कमलेश चन्द्र जोशी

चित्रों वाली किताबों को देखते हुए बच्चे बहुत कुछ सीख समझ रहे होते हैं। बस जरूरत है उनसे बात करके यह समझा जाए कि बच्चे क्या समझ रहे हैं।

अक्सर हम लोगों का यह अनुभव ग रहा है कि बच्चों को रंग-बिरंगी, पशु-पक्षियों वाली, मोटे अक्षरों वाली किताबें बहुत अच्छी लगती हैं। आइए हम यह जानने की कोशिश करें, कि आखिर बच्चे इन रंग-बिरंगी किताबों को देख-पढ़कर क्या समझ रहे हैं, क्या सीख रहे हैं? इन्हीं सब बातों को लेकर मैं चार-छह साल के बच्चों के साथ अपने अनुभव आपके साथ बांटना चाहूंगा।

दिल्ली में 'अंकुर' संस्था के गौतमपुरी केन्द्र की लाइब्रेरी में औसतन 20-25 बच्चे रोज़ आते। हैं। यहां पर हम बच्चों के साथ किताबों में से कहानी-कविताएं पढ़ने, सुनाने, लिखने और साथ ही बच्चों में किताबों के प्रति रुचि पैदा करने के लिए कुछ और गतिविधियां करते हैं। सुबह के समय हमारे केन्द्र में आने वाले बच्चों में वे बच्चे होते हैं जो सुबह स्कूल नहीं जाते या जिनका नाम स्कूल में नहीं लिखा है। चार-पांच साल के ऐसे कुछ छोटे बच्चे प्रतिदिन आते हैं। ये बच्चे बकाइन के पेड़ के नीचे अपने आप चटाई बिछाते हैं, ब्लैक-बोर्ड रखते हैं। फिर उनके आगे 20-25 किताबें फैला दी जाती हैं। आइए, अब हम यह देखने की कोशिश करें कि ये बच्चे इन किताबों में क्या देखते हैं, कैसे पढ़ते हैं, और क्या समझते हैं?

मौलिक भाषा का विकास
चार साल का इन्द्रजीत ‘मेंढक और सांप' किताब देख रहा है। वह उसका मुखपृष्ठ देखता हुआ अपने दोस्त भारत को बता रहा हैं - ''इत्ता मोटा सांप। मेंढक कितना छोटा है। अभी सांप मेंढक को खा जाएगा।'' फिर वह आगे पन्ने पलटते हुए भारत को बता रहा है कि “मेंढक पानी में रहता है, ये सांप आ रहा है।'' इस किताब को देखने में उसे मुश्किल से 5-7 मिनट का समय लगा होगा। लेकिन इस दौरान दोनों बच्चों की बातचीत से कई बातें मैं समझ सका। जैसे, बच्चा मोटे और छोटे के भेद को समझ पा रहा है। वह चित्रों को देखकर उनमें संबंध जोड़ रहा है और उसके आधार पर अनुमान भी लगा रहा है कि सांप मेंढक को खा जाएगा। ये छोटी-छोटी बातें उसकी मौखिक भाषा के विकास में एक हद तक सहायक हैं। वह चित्र को समझते हुए मौखिक रूप से व्यक्त कर रहा है। बच्चों की यह मौखिक अभिव्यक्ति आगे उसकी लिखित भाषा के रूप में कैसे सहायक होती है, इस पर भी गौर करना होगा।

मैं बच्चों से कहता हूं कि किताबों में देखे गए चित्रों जैसे - सांप, मेंढक, पतंग, फूल, पेड़ इत्यादि को अब हम खुद बनाएंगे। उसके लिए मैं उन्हें कागज़ के टुकड़े देता हूं। इन कागजों पर टेढे मेढ़े लेकिन अपने ढंग से बच्चे इन चित्रों को बनाते हैं। अब मैं इन चित्रों में रंग भरवाता हूं और पूछता हूं कि तुमने क्या-क्या बनाया? बच्चे अपने सभी चित्रों को पहचानते हैं तथा बताते हैं। इन्द्रजीत कहता है, “मैंने पतंग बनाई।'' मैं उससे दुबारा पूछता हूं - "क्या तुम्हें पतंग लिखना आता है?'' वह कहता है - "नहीं।'' मैं उसे पतंग लिखकर दिखाता हूं। पहले वह इसे कागज़ के टुकड़े पर लिखता है। मैं कहता हूं इसे कॉपी पर लिखो और पतंग भी बनाओ। अब वह लिखने की प्रक्रिया पर आता है। इसी तरह वह आगे चलकर और कई जानी-पहचानी चीजें भी लिखना सीखता है।

यह तो हुई एक बात कि बच्चा चित्रों की किताब देखने के बाद लिखना भी सीख रहा है, लेकिन आमतौर पर हम अध्यापक या पालक बच्चों से उम्मीद करते हैं कि बच्चे को एक किताब दे दी जाए और वह पूरे मन से उस किताब को आधे घंटे देखता रहे। फिर हम उससे जो भी पूछे वह हमें बता दे। यहां हमें इस तथ्य पर गौर करना होगा कि चार-पांच साल के बच्चे के लिए किताब में चित्र के अलावा किसी अन्य चीज़ का कोई महत्व नहीं है क्योंकि किताब के शब्द अभी वह पढ़ना नहीं जानता। वह केवल चित्रों से ही संबंध बना रहा है। इसके अलावा एक छोटा बच्चा एकाग्रचित होकर एक किताब को आधे घंटे कैसे देख सकता है?

चित्रों से बातचीत
एक दूसरा उदाहरण भी देखें, चार साल का गुड्डू जो कि बस्ती में अभी नया-नया है। वह पूर्वी उत्तर-प्रदेश की भाषा बोलता है। वह ‘ये है पेड़' किताब देखते हुए चित्रों पर टिप्पणी कर रहा है, कहीं-कहीं चित्र उसकी समझ में नहीं आ रहे हैं, तो वह मुझसे पूछ रहा है। उसका इस किताब के साथ वार्तालाप काफी मज़ेदार रहा। वह सेब के पेड़ वाला चित्र देखते हुए कह रहा था - "पेड़े मा आम लागा है, तोड़े के खावा जाय।'' इसको कहते हुए वह पेड़ से सेब तोड़कर आम खाने का अभिनय कर रहा है। इसके बाद वह कह रहा है कि “मीठ है।' यहां पर गुड्डू अपने पहले खाए हुए आम के स्वाद को याद कर रहा है कि आम मीठा होता है। आगे इसी किताब के एक चित्र में पेड़ पर बैठे बंदर को देखकर वह बोल पड़ता है - "पेड़े पर बनरवा बैइठ है, सारे का मार डारौ।'' फिर वह अपने हाथों से बंदर को मार भी रही है। गुड्डू ने ऐसा क्यों कहा, गुड्डू बंदर को क्यों मार रहा है, उसमें इस तरह की प्रवृत्ति कहां से जन्मी? इन सब सवालों के लिए हम अनुमान तो यही लगा सकते हैं कि हो सकती है कि उसने अपने गांव में कभी देखा होगा कि लोग बंदर को भगा देते हैं क्योंकि वह हमारा नुकसान करता है।

इसके अलावा मैंने कुछ छोटे बच्चों को किताबों को आकार के हिसाब से बड़े से छोटे क्रम में लगाते हुए भी देखा है। यहां यह बात साफ हो जाती है कि बच्चों में निरीक्षण करने की क्षमता के साथ-साथ आकारों की समझ भी है। बच्चे चीजों का निरीक्षण करते हुए उन्हें फिर व्यवस्थित रूप से अपने आप लगाते हैं। एक-दो बार तो मैंने यह भी देखा कि कुछ बच्चे किताब से निकलकर बाहर गिरे पन्नों पर बने चित्रों को देखकर ही समझ जाते थे कि यह किस किताब का पन्ना होगा और फिर वे उस पन्ने को उस किताब में लगा देते हैं।

ये छोटी-छोटी बातें
वैसे तो इन छोटी-छोटी चीज़ों का बच्चे की शिक्षा से सीधा संबंध भले न हो, लेकिन एक गहरा रिश्ता तो ज़रूर है। वह इन क्रिया-कलापों द्वारा चीज़ों को समझ रहा है, संबंध जोड़ने की कोशिश कर रहा है, समानता देख पा रहा है।

अब बच्चों के चित्र संबंधी अवलोकनों को हम ज़रा अपने अनुभवों से भी जोड़कर देखें। जब हम अपने बड़े-बुजुर्गों, मित्रों, रिश्तेदारों आदि की तस्वीरें थोड़ा गौर से देखते हैं तो हम उनके साथ बिताए दिनों को याद करते हैं। वह तस्वीर कब खींची थी जैसी कई बातों को याद करते हैं। हम ऐसा कह सकते हैं। कि हमारे सामने एक चित्र के द्वारा मस्तिष्क में एक फिल्म-सी’ बन जाती है। इस फिल्म में और भी बहुत सारे अनुभव होते हैं। कभी-कभी यह भी होता है कि चित्र में आए चरित्रों की भावनाओं या उनके अनुभवों की भी हम कल्पना करते हैं। बच्चे भी कुछ ऐसा ही करते हैं। वे भी किताबों के चित्रों में कभी-कभार खुद को रखकर देखते हैं। यह कल्पना उनके आगे के विकास के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। क्योंकि जब बच्चे चित्र बनाना, लिखना सीख जाते हैं तब वे कल्पना के द्वारा मौलिक अभिव्यक्ति देते हैं, चाहे चित्रों के द्वारा या कहानी-कविताओं के रूप में।

अंत में, मैं यह कहना चाहूंगा कि बच्चों को इन रंग-बिरंगी किताबों को देखने में मुश्किल से 8-10 मिनट लगते हैंअब ये आपके ऊपर है कि आप इन किताबों पर कितनी देर बात कर सकते हैं? आमतौर पर बच्चे इन किताबों को देखते हुए बोर नहीं होते। वे उन्हें बार-बार देखते हैं तथा हर बार वे कुछ नया संबंध बिठाते हैं। चीजें आप बच्चों के साथ गौर कर देख सकते हैं। मैंने यह भी महसूस किया है कि बच्चे किताबों को न पा पाने के बावजूद भी सिर्फ देखकर भी उनसे पूरी तरह परिचित हो जाते हैं। हो सकता है किसी दिन कोई बच्चे आपसे अपनी देखी हुई किताब मांग ले। एक दिन हुआ कुछ यूं कि गुड्डु मुझसे कह रहा था - ‘‘मास्टर वो गाड़ी वाली किताब लाव'' उसका आशय 'रेलगाड़ी चले छुक-छुक किताब से था। मैं कहता हूं- “अभी मेरे पास नहीं है।'' तो वह तुरन्त कहता है, "काल्ह तो रहय।'' फिर मैं उसे बताता हूं कि कोई पढ़ने के लिए ले गया होगा। इस पर वह मान जाता है।

इसी तरह से इन्द्रजीत भी हाथी वाली, गुब्बारे वाली, बंदर वाली, चूहे वाली आदि नामों से कई किताबों को पहचानता है। बच्चों की किताबें देखने से जुड़ी और भी न जाने कितनी बातें हम रोज़ देखते हैं लेकिन गौर-ए काबिल नहीं समझते।


कमलेश चन्द्र जोशीः बच्चों के साथ विविध गतिविधियां करते और करवाते हैं। फिलहाल लखनऊ की नालंदा संस्था में सक्रिय।

इस लेख के सभी चित्र किशोर उमरेकर ने बनाए हैं।

भूलः पिछले अंक में प्रकाशित लेख 'साकार होती कल्पनाएं' के चित्र किशोर उमरेकर ने बनाए थे। असावधानीवश उनका नाम लेख के साथ जाना छूट गया था। इस भूल के लिए हमें खेद है।