शशि सक्सेना

"... आयनिक यौगिक में आयन बहुत ही व्यवस्थित रूप से जमे होते हैं। जब लवण को घीला जाता है तो वह जमावट खत्म हो जाती है और उसका स्थान ले लेती है बेतरतीबी..."

एक परखनली में थोड़ा-सा पानी लेकर उसमें चुटकी भर नौसादर ( अमोनियम क्लोराइड ) डालिए; थोड़ा-सा हिलाइए ताकि नौसादर पानी में घुल जाए। परखनली को बाहर से छूने पर अब वह आपको ठंडी-ठंडी महसूस होगी।

क्यों होता है ऐसा? इसे समझने के लिए हमें पहले ठोस अवस्था में लवणों की संरचना और उनके घुलने की प्रक्रिया को समझना होगा। एक्स रे और अन्य कई तरीकों की मदद से बहुत से लवणों की संरचना का पता लगाया जा चुका है। इस खोजबीन से पता चलता है कि इनमें आवेशित कण ( परमाणु या परमाणुओं के समूह ) एक विशेष तरह से जमे होते हैं, जिसे क्रिस्टल लैटिस कहा जाता है। इन आवेशित कणों को आयन कहते हैं। और इसलिए इन यौगिकों को आयनिक यौगिक या लवण कहते हैं। प्रत्येक लवण में इसी तरह आयनों की त्रिआयामी, समरूप पुनरावृत्ति-पूर्ण जमावट होती है।

विभिन्न लवणों में आयनों की जमावट फर्क होती है जो उनके आकार और आवेश पर निर्भर करती है। यही विशेष जमावट किसी भी लवण की अपनी विशेषता होती है।

नमक, यानी सोडियम क्लोराइड (NaCl) को ही देखें। ठोस अवस्था के नमक में Na+ और Cl के आयन एक घनाकार लैटिस में जमे होते हैं।

चित्र-1 में '*' निशान सोडियम आयन को प्रदर्शित करता है और '' का निशान क्लोराइड आयन को। अगर तीनों आयाम में फैली इस घनाकार आकृति को बहुत बार दोहराया जाए तो जो आकृति बनेगी वो सोडियम क्लोराइड के एक छोटे से क्रिस्टल की होगी।

प्रत्येक आयनिक ठोस पदार्थ में धनायन चारों तरफ से ऋणायनों से घिरा रहता है - और इसी तरह प्रत्येक ऋणायन सब तरफ से धनायनों से। ये सब आयन एक दूसरे के सापेक्ष अपनी विशेष जगह पर जमे रहते हैं। इन ऋणायनों और धनायनों के बीच मौजूद प्रबल विद्युतीय आकर्षण के कारण ही लवणों में आयन एक दूसरे से जुड़े रहते हैं और लैटिस बना लेते हैं। दूसरे शब्दों में अलग-थलग पड़े ऋण और धन आयन एक दूसरे से आकर्षित होकर आयनिक ठोस बनाते हैं।

लैटिस ऊर्जा
इस लैटिस के बनने में ऊर्जा पैदा होती है। इसे उस यौगिक की लैटिस ऊर्जा कहा जाता है।
(Ax+)n, + (By–)m, (AB)nm, + लैटिस ऊर्जा

यहां पर
(A+) धनायन है जिस पर (x) आवेश है।
(B) ऋणायन है जिस पर (Y) आवेश है।
(n) और (m) बराबर हों यह ज़रूरी नहीं है।
x और y बराबर हों यह जरूरी नहीं है।

इस तरह से देखने पर यह शायद एक कठिन-सा सूत्र नज़र आए - परन्तु एक उदाहरण लेने से बात अपने आप ही स्पष्ट हो जाएगी।

जैसे नमक में,

Na+ + Cl → NaCl
x = 1 y = 1 m = 1 n=1

चित्र:2: आयनों का हाइड्रेशन: घोल में पानी के ध्रुवीय अणु आयनों की ओर आकर्षित होते हैं। पानी की धनात्मक सिरा ऋणायनों की ओर और ऋणात्मक सिरा धन आयनों की ओर आकर्षित हो जाता है।

कोई भी पदार्थ कम ऊर्जा वाली अवस्था में अधिक स्थिर होता है। इसका मतलब है कि अलग-अलग रहने की तुलना में जब आयन आपस में जुड़े हों तो ज्यादा स्थिर अवस्था में होते हैं।

आयनों को अलग-अलग करना
दूसरी तरह से देखें तो इसका अर्थ यह हुआ कि किसी आयनिक यौगिक या लवण के आयनों को अलग-अलग करना हो तो ऊर्जा की जरूरत होती है। इसका एक तरीका है कि लवण को गर्म किया जाए, जब तक कि उसका वाष्पन न हो जाए। लवण में से अपनों को अलग-थलग करने का एक और तरीका भी है कि उसे पानी जैसे घोलक में घोल दिया जाए।

जब भी किसी लवण को पानी में डाला जाता है तो उसका कुछ हिस्सा पानी में घुल जाता है। इस दौरान दो परिवर्तन होते हैं -

  1. क्रिस्टल लैटिस में से आयन अलग अलग हो जाते हैं।
  2. प्रत्येक आयन घोलक (यहां पानी) के अणुओं से घिर जाता है। इस प्रक्रिया को हाइड्रेशन कहते हैं।

इसका अर्थ हुआ कि घोल में धनायन और ऋणायन घोलक के अणुओं से घिरे रहते हैं ( चित्र-2 )। वे अब सिर्फ इसलिए अलग-अलग रह पा रहे हैं क्योंकि उन्हें पानी के अणुओं ने स्थिरता प्रदान की है।

लवण का घोल बनाने के लिए ऊपर जिन दो चरणों का जिक्र किया था उनमें से पहले के दौरान ऊर्जा की ज़रूरत होती है क्योंकि एक बनी हुई व्यवस्था को बिगाड़ा जा रहा है। इस काम के लिए जरूरी ऊर्जा लैटिस ऊर्जा के बराबर होगी

दूसरे चरण में ऊर्जा छोड़ी जाएगी क्योंकि एक नई व्यवस्था निर्मित हो रही है। इस चरण के दौरान पैदा ऊर्जा को हाइड्रेशन ऊर्जा कहा जाता है। पूरी प्रक्रिया को एक साथ देखने परः

घुलने के दौरान ऊर्जा में कुल बदलाव = लैटिस ऊर्जा + हाइड्रेशन ऊर्जा

कुछ लवणों में लैटिस ऊर्जा, हाइड्रेशन ऊर्जा से कम होती है। इसलिए जब लवण पानी में घुलता है तो लैटिस को तोड़ने के लिए कुछ ऊर्जा खर्च होती है परन्तु आयनों और पानी के अणुओं की परस्पर क्रिया की वजह से उससे ज्यादा ऊर्जा पैदा होती है। ऐसी स्थिति में घुलने की प्रक्रिया के दौरान गर्मी के रूप में ऊर्जा छोड़ी जाती है। - इसलिए घोल का तापमान घोलक (पानी) के तापमान से ज्यादा होता है। इस तरह के बदलाव को ऊष्माक्षेपी बदलाव कहा जाता है।

कुछ अन्य स्थितियों में लैटिस ऊर्जा हाइड्रेशन ऊर्जा से ज़्यादा होती है - इसलिए घुलने की प्रक्रिया के दौरान ऊर्जा इस्तेमाल होती है। ऐसे में लवण के पानी में घुलने पर घोल: पानी से ठंडा होता है। नौसादर ( अमोनियम क्लोराइड ) एक ऐसा ही लवण है। ऐसी प्रक्रियाओं को ऊष्माशोषी क्रिया कहा जाता है।

हम कह सकते हैं। कि अमोनियम क्लोराइड की लैटिस रचना अत्यन्त मज़बूत होती है, इसे अगर घोलकर तोडना है तो बहुत सारी ऊर्जा की जरूरत होती है। इस जरूरत को कुछ हद तक तो हाइड्रेशन ऊर्जा पूरा करती है - वह ऊर्जा जो आयनों और पानी के अणुओं के बीच बन रही नई व्यवस्था के दौरान पैदा हो रही है। शेष ज़रूरत घोलक यानी पानी से पूरी की जाती है जिससे पानी ठंडा हो जाता है।

घुलनशीलता
इस सबके आधार पर हम यह समझने की कोशिश भी कर सकते हैं कि एक ही घोलक में विभिन्न लवणों की घुलनशीलता अलग-अलग क्यों होती है।

यह स्पष्ट है कि हाइड्रेशन ऊर्जा घुलने की प्रक्रिया में सहायक होती है। परन्तु क्या इसका अर्थ है कि अगर हाइड्रेशन ऊर्जा ज्यादा है तो पदार्थ ज़्यादा घुलनशील होगा? लेकिन नीचे दी गई तालिका देखें तो समझ में आता है कि ऐसा नहीं है।

तालिका से हाइड्रेशन ऊर्जा और घुलनशीलता में कोई संबंध नज़र नहीं आ रहा। ऐसा इसलिए है क्योंकि घुलनशीलता लैटिस ऊर्जा पर निर्भर करती है।

इसलिए अगर किसी लवण की हाइड्रेशन ऊर्जा ज्यादा है, परन्तु उसकी लैटिस ऊर्जा भी काफी है तो वह लवण अघुलनशील होगा। इसी तरह कम हाइड्रेशन ऊर्जा वाला लवण भी घुलनशील होगा अगर उसकी लैटिस ऊर्जा कम है। लैटिस ऊर्जा और हाइड्रेशन ऊर्जा, आयनों के आकार व आवेश पर निर्भर करती है।

पुराना सवाल और धुलनशील
वापस लौट जाते हैं अपने शुरूआती सवाल पर। अब हमें मालूम है कि नौसादर को पानी में घोलने पर ऊर्जा इस्तेमाल होती है इसलिए घोल का तापमान कम हो जाता है और वह हमें पानी की तुलना में ठंडा लगता है। पर फिर सवाल उठता है कि ऐसे लवण पानी में घुलते ही क्यों हैं?

ऐसी स्थितियों में एक और कारक महत्वपूर्ण बन जाता है और घुलनशीलता पर असर डालता है - यह है ‘अव्यवस्था का प्रवेश'। हमें मालूम है कि सब प्राकृतिक बदलाव उसी दिशा में होते हैं जिस दिशा में अव्यवस्था (disorder) बढ़ रही है।

उदाहरण के लिए नीचे दिए गए चित्र-3 में स्वाभाविक रूप से बदलाव बाईं ओर से दाईं ओर होगा, उसकी विपरीत दिशा में नहीं। इसे ऐसे भी समझाया जा सकता है कि अगर कुछ कंचे व बीज गिर कर बिखर जाएं तो वे दाईं ओर जैसी कोई अनियमित व्यवस्था बनाएंगे न कि बाईं ओर जैसी नियमित व्यवस्था।

जब एक ठोस आयनिक यौगिक को घोला जाता है, तो जहां तक व्यवस्था या अव्यवस्था का सवाल है, दो बदलाव होते हैं। आयनिक यौगिक में आयन बहुत ही व्यवस्थित रूप से जमे होते हैं। जब लवण को घोला जाता है तो वह जमावट खत्म हो जाती है और उसका स्थान ले लेती है बेतरतीबी (disorder)। दूसरी ओर प्रत्येक आयन घोलक के अणुओं से घिर जाता है यानी घोल में एक नई व्यवस्था पैदा हो जाती है। कोई पदार्थ तभी घुलेगा जबकि दोनों परिवर्तनों के फलस्वरूप अव्यवस्था बढ़ रही हो। कुछ लवणों में पहला प्रभाव ज्यादा वज़नदार होता है जिससे घुलनशीलता बढ़ जाती है। ( यह उन लवणों में ज़्यादा प्रभावशाली होता है जिनमें आयन बड़े हों और उन पर आवेश कम हो )। कुछ अन्य लवणों में दूसरा प्रभाव ज्यादा होता है ( जिनमें आयन छोटे आकार के परन्तु अधिक आवेश वाले हों )।

नौसादर ऐसा लवण है जो पहले दर्जे में आता है। उसके घोल में अव्यवस्था बढ़ना ही वह प्रमुख कारक है जिससे घोलक आयनों को अलग कर पाता है। यहां पर यह भी गौरतलब है कि न सिर्फ पहला कारक ज़्यादा प्रभावशाली है, बल्कि पहले व दूसरे प्रभावों के बीच का अंतर लगभग उतना ही है जितना अंतर लैटिस ऊर्जा और हाइड्रेशन ऊर्जा में है। अन्यथा लवण पानी में घुलनशील नहीं होता। यानी नौसादर के पानी में घुलने पर कुल मिलाकर अव्यवस्था बढ़ती है, और यह बढ़ी हुई अव्यवस्था लैटिस को तोड़ने में सहायक होती है। इसलिए लैटिस ऊर्जा के हाइड्रेशन ऊर्जा से ज़्यादा होने पर भी पदार्थ घुलनशील है।

संक्षेप में देखा जाए तो लवण को घोलक में मिलाने पर चार प्रभावों पर ध्यान देना होगाः

  1. धनात्मक ऊर्जा जो लैटिस तोड़ने के लिए ज़रूरी है। ( लैटिस ऊर्जा )
  2. ऋणात्मक ऊर्जा जो आयनों के घोलक के अणुओं द्वारा घिर जाने से छोड़ी जाती है ( हाइड्रेशन ऊर्जा ) ।
  3. आयनों के एक दूसरे से दूर हटने से जो अव्यवस्था पैदा होती है।
  4. घोलक में आयनों की एक नई जमावट बनाने से जो व्यवस्था बनती है।

घुलनशीलता पर इन चारों प्रभावों का असर कुछ ऐसा होता है:

  • प्रभाव 2 और 3 लवण के पानी में घुलने में सहायक होते हैं।
  • प्रभाव 1 और 4 लवण के पानी में घुलने में असहायक होते हैं।
  • अगर प्रभाव 1 प्रभाव 2 से ज्यादा है, तो लवण तभी घुलनशील होगा जब प्रभाव 3 प्रभाव 4 से काफी ज़्यादा हो और ऐसा घोल घोलक से ठंडा होगा।
  • अगर प्रभाव 2 प्रभाव 1 से ज्यादा है तो लवण घुलते वक्त ऊर्जा छोड़ेगा। यानी कि घोल गर्म हो जाएगा।

आखिरी वाली स्थिति में एक संभावना यह भी है कि लवण एकदम अघुलनशील बना रहे - अब आपको सोचना है कि किन स्थितियों में ऐसा संभव है


शशि सक्सेनाः दीनदयाल उपाध्याय कॉलेज, नई दिल्ली में रसायनशास्त्र की व्याख्याता।