माधव केलकर

हाल ही में मुझे एक खगोल क्विज़ में जाने का मौका मिला। खग्रास सूर्य ग्रहण के पहले आयोजित इस क्विज़ में कुछ सवाल सूरज से सम्बन्धित थे। क्विज़ में बहुत-से सवाल तथ्य परक जानकारी पर आधारित थे और, सही जवाब का चुनाव ही अगले राउंड में जाने की कसौटी थी। सवालों के जवाब पर किसी तरह की चर्चा भी नहीं हो रही थी। मैं क्विज़ आयोजकों पर किसी तरह की तोहमत नहीं लगाना चाहता क्योंकि आमतौर पर क्विज़ ऐसे ही पैटर्न पर चलते हैं।

वहाँ एक सवाल पूछा गया कि सूरज अपनी धुरी पर कितने दिन में एक चक्कर लगाता है? किसी एक टीम ने बताया 27 दिन और उसे सही जवाब बताया गया। क्विज़ का वो राउंड खत्म होने के बाद मैंने टीम के सदस्यों से पूछा कि तुम्हें कैसे पता चला कि सूरज अपनी धुरी पर कितने दिन में घूमता है? उन्होंने बताया कि कहीं पढ़ा था। मैंने उनसे पूछा, “क्या और भी कुछ लिखा था सूरज के घूर्णन के बारे में?” उन्होंने इन्कार में सिर हिलाया। मैंने संक्षेप में उन्हें बताया कि सूरज एक गैसीय पिण्ड है और वो धरती या चांद से कुछ फर्क किस्म से धुरी पर घूमता है। बाद में सोचा कि चलो सूरज की इस विशेषता के बारे में औरों को भी विस्तार से बताते हैं।

कोई आकाशीय पिण्ड अपनी धुरी पर घूम रहा है या नहीं यह पता करने के लिए उस पिण्ड की सतह पर लगातार नज़र रखनी होती है। उसकी सतह पर मौजूद पहाड़-खड्ड जो भी दिख रहे हों, यदि वे सभी एक ही दिशा में खिसकते हुए दिखें तो कहा जा सकता है कि पिण्ड अपनी धुरी पर घूम रहा है। कुछ पिण्ड अपनी धुरी पर तेज़ी से घूमते हैं तो कुछ काफी धीमे। जैसे शनि अपनी धुरी पर 10 घण्टे में घूमता है तो चांद 30 दिन में। खगोलविदों ने इसी तरीके से अनेक ग्रहों, उपग्रहों, उल्का पिण्डों के धुरी पर एक चक्कर लगाने का समय पता किया है।

लेकिन सूरज के बारे में मामला ही कुछ और था। उसकी चमक की वजह से सूर्योदय और सूर्यास्त के समय के अलावा सूरज को निहारना आँखों को जान-बूझकर खराब करने जैसा है। सुबह या शाम को दिखने वाले सूरज की चकती या सतह पर नंगी आँखों से ऐसे कोई निशान या चिन्ह नहीं दिखते जिनसे धुरी पर घूमने के बारे में अनुमान लगाया जाए। शायद आप कहेंगे कि सूरज की सतह एकदम सपाट या समतल नहीं है, उसकी सतह पर सौर धब्बे या सन-स्पॉट तो दिखाई देते हैं। तौबा-तौबा! यह क्या कह रहे हैं आप? 500 साल पहले ऐसा कहा होता तो शामत आ जाती। चलिए पहले थोड़ा सूर्य के धब्बों के इतिहास को खंगालते हैं क्योंकि सूर्य के धब्बों से ही सूर्य के धुरी पर घूमने के समय को जाना गया था।

सूर्य के धब्बों ने दिखाई राह
सन् 1600 के पहले सूरज के धुरी पर घूमने को लेकर किसी तरह के अध्ययन या खोज के कोई संकेत नहीं मिलते। लगभग सभी धार्मिक सम्प्रदाय सूर्य को पूर्ण और कलंक रहित दैवी अग्नि मानते थे। यूरोप में पुनर्जागरण काल के पहले यही माना जाता था कि धरती ब्रह्माण्ड के केन्द्र में है और सूरज और अन्य ग्रह इसका चक्कर लगाते हैं। प्राचीन ग्रीक विद्वानों के इस मत को गिरजाघरों की भी सहमति मिली हुई थी। उस दौर में यूरोप में धर्म की ऐसी धाक थी कि इन मान्यताओं पर अविश्वास जताना कोई आसान काम नहीं था।
दूरबीन की खोज के बाद खगोलविदों के लिए दूरबीन से आकाशीय पिण्डों को निहारना एक ज़रूरी शौक बन गया था। सन् 1610 के आस-पास गैलीलियो, जोहनॉन गोल्डश्मिट (फैब्रिशियस), थॉमस हैरियट और क्रिस्टोफर शीनर (scheiner) ने अलग-अलग जगहों से अपनी दूरबीनों से सूरज का अवलोकन किया और देखा कि सूरज की चकती पर कुछ काले धब्बे दिखाई दे रहे हैं। ये काले धब्बे क्या हो सकते हैं, इसे लेकर कोई आम राय नहीं बन पाई थी। शुरु में यह सम्भावना व्यक्त की गई कि ये धब्बे सूर्य के वायुमण्डल के बादल, या बुध और सूर्य के बीच स्थित कोई पिण्ड हैं।

गैलीलियो और फैब्रिशियस एक-दूसरे के प्रतिद्वन्द्वी थे। फैब्रिशियस ने तुरन्त आम जनता के सामने घोषणा कर डाली कि सूर्य पूरी तरह कलंक रहित और मुकम्मल (परफेक्ट) नहीं है। उसने खुद सूरज पर काले धब्बे देखे हैं। गैलीलियो ने भी बताया कि उसने भी सूर्य पर ऐसे ही धब्बे देखे हैं। लेकिन उसने इस सम्बन्ध में कुछ भी प्रकाशित नहीं करवाया। हाँ, गैलीलियो ने रोम में कुछ अन्य लोगों को भी इन धब्बों के दीदार ज़रूर करवा दिए। गैलीलियो भी पहले यही सोच रहे थे कि ये धब्बे, हो सकता है कि सूर्य के वायु मण्डल के बादलों की वजह से हों। लेकिन इन धब्बों के सूर्य की चकती पर नियमित खिसकाव और चकती की किनार पर जाकर आकार में आने वाले बदलाव की वजह से उन्हें महसूस हुआ कि ये धब्बे सूरज की सतह पर ही हैं।

शीनर एक जेसुइट पादरी थे और किसी विवाद में नहीं पड़ना चाहते थे। उनके वरिष्ठों ने उन्हें पहले ही आगाह कर दिया था फिर भी उन्होंने 1611 में गैलीलियो को दो-तीन खत लिखकर अपने अवलोकनों के बारे में बताया। गैलीलियो ने भी उनके जवाब दिए। शीनर ने विवादों के डर से छद्म नाम से यह प्रकाशित किया कि ये काले धब्बे दरअसल, सूरज के काफी पास कोई छोटे ग्रह या सूरज के उपग्रह हैं जो सूरज के चारों ओर घूम रहे हैं। गैलीलियो ने शीनर को तीन खत लिखे। तीसरे खत में गैलीलियो ने दो महत्वपूर्ण बातें कही थीं। पहली - सूरज पर दिखाई देने वाले धब्बों के अध्ययन के आधार पर यह समझ में आता है कि सूरज अपनी धुरी पर घूमता है। दूसरी बात - सूरज धरती का चक्कर नहीं लगाता बल्कि धरती सूरज के चारों ओर चक्कर लगाती है। इस तरह उन्होंने कॉपरनिकस के मॉडल यानी सूर्य केन्द्री सिद्धान्त की पैरवी की। बाद में रोम में इन तीनों खतों को प्रकाशित किया गया।

गैलीलियो ने सूरज का अध्ययन लगातार जारी रखा। जल्द ही गैलीलियो को समझ में आया कि सौर्य धब्बे सूर्य की मध्य रेखा से दोनों तरफ 30 डिग्री उत्तर या दक्षिणी अक्षांश तक फैले होते हैं। इनसे ऊपर के अक्षांशों पर धब्बे कभी-कभार ही दिखाई देते हैं। सभी धब्बे एक ही दिशा में चलते हैं और इन्हें सूरज की चकती की एक किनार से दूसरी किनार तक पहुँचने में लगभग 14 दिन का समय लगता है। मोटेतौर पर सूरज को अपनी धुरी का पूरा एक चक्कर लगाने में 27 दिन का समय लगता है। शीनर ने भी अपना अध्ययन जारी रखा और उसने पाया कि सभी सौर धब्बे एक-सी गति से चकती की एक किनार से दूसरे किनार तक नहीं चलते। कुछ धब्बे 14 दिन में चकती पार करते हैं तो कुछ को थोड़ा ज़्यादा समय लगता है।
इसके बाद भी अन्य कई खगोलविदों ने सूर्य के धब्बों का अध्ययन जारी रखा। जिसकी वजह से धब्बों के विविध पैटर्न देखे जा सके और सौर्य धब्बों की सक्रियता और सुप्तता की अवधि को जाना जा सका।

डिफरेन्शियल रोटेशन
अगले 200 साल तक सूरज के धुरी पर घूमने को लेकर कुछ भी सुनाई नहीं दिया। 1850 में रिचर्ड कैरिंगटन और गुस्ताव स्पोरर ने अपने सूर्य सम्बन्धी अध्ययन के बाद बताया कि सूरज अपनी धुरी पर किसी ठोस पिण्ड की तरह नहीं घूम रहा है। सूरज पर अक्षांश-दर-अक्षांश गति में परिवर्तन देखा गया है। सूरज की धुरी पर घूमने की गति मध्य रेखा पर सबसे ज़्यादा है और जैसे-जैसे ध्रुवों की ओर बढ़ते हैं गति में कमी आती जाती है। इसे डिफरेन्शियल रोटेशन कहा गया। उस समय सूरज किन रासायनिक पदार्थों से बना है यह भी हम ठीक से नहीं जानते थे।

कैरिंगटन ने सूर्य के एक घूर्णन को मानक रूप से 27.27 पृथ्वी दिन के बराबर माना। यानी आप धरती से सूरज को देख रहे हैं और सूरज की सतह अलग-अलग दर से घूर्णन कर रही है फिर भी ठीक 27.27 दिन के बाद यह मान लिया जाएगा कि सूरज ने अपनी धुरी पर एक चक्कर पूरा कर लिया है। कैरिंगटन ने यह गणना 9 नवम्बर 1853 से शुरु की थी। कैरिंगटन ने चकती के ठीक बीच से गुज़रने वाली देशान्तर रेखा (शून्य डिग्री देशान्तर या ज़ीरो डिग्री मेरिडियन) को मानक रेखा मानकर सूर्य के घूर्णन की गणना शु डिग्री की। हर 27.27 दिन बाद सूर्य का नया घूर्णन शु डिग्री होगा, ऐसा माना गया। उन्होंने एक तालिका बनाकर हर घूर्णन को एक नम्बर दिया। इस संख्या को कैरिंगटन रोटेशन संख्या कहा जाता है। समय-समय पर इस तालिका में संशोधन भी किए जाते रहे हैं। 23 जुलाई से 20 अगस्त 2009 तक चलने वाले घूर्णन का नम्बर 2086 है। या दूसरे शब्दों में 9 नवम्बर 1853 से सूरज अपनी धुरी पर 2086 बार घूम चुका है।

सूरज पर धब्बे

सूरज की चकती पर नंगी आँखों से आसानी से दिखाई देने वाले काले धब्बे वास्तव में, सूरज की सतह (फोटोस्फीयर) के वे स्थान हैं जो अपेक्षाकृत कम तापमान वाले हैं। सूरज की सतह का तापमान 6000 केल्विन होता है तो धब्बों वाले इलाके का लगभग 4500 केल्विन।
सूरज पर ये धब्बे आमतौर पर शून्य डिग्री अक्षांश रेखा के दोनों ओर 40 डिग्री अक्षांश तक देखे गए हैं। ये अमूमन दो-दो के जोड़े में होते हैं।
इन धब्बों का सम्बन्ध सूरज की चुम्बकीय गतिविधियों से है। सूरज में अति चुम्बकीय सक्रियता और कम सक्रियता का चक्र चलता है जो लगभग 11 साल का होता है।
19वीं सदी में अर्थशास्त्री विलियम स्टेनली जेवोन्स ने लोगों का ध्यान इस ओर दिलाया कि धरती पर मौसम सम्बन्धी गड़बड़ी -- जिससे फसलों को नुकसान पहुँचता है और व्यापार पर बुरा असर पड़ता है -- का सम्बन्ध सौर धब्बों से है। 19वीं सदी में जब ब्रिटिश भारत में लगातार अकाल के हालात पैदा हो रहे थे और ब्रिटिश हुकूमत हालात से निपटने में असमर्थ साबित हो रही थी, तब 1880 में अकाल कमीशन का गठन किया गया। कमीशन के एक सदस्य खगोलविद नॉर्मन लोकियार ने पिछले 80 वर्षों के अकाल और सौर सक्रियता वर्षों का मिलान किया। अकाल कमीशन ने राहत कार्यों से पल्ला झाड़ते हुए, इन अकालों को प्रकृति का प्रकोप बताया। साथ ही, सूरज की चुम्बकीय सक्रियता का हवाला भी दिया।


डॉप्लर प्रभाव से अवलोकन

1840 के बाद आकाशीय अवलोकन में स्पेक्ट्रोस्कोप का उपयोग बढ़ने लगा था। 1842 में क्रिश्चियन डॉप्लर ने बताया कि प्रकाश का उत्सर्जन करने वाले किसी गतिमान पिण्ड से निकलने वाली प्रकाश तरंगें गति की वजह से प्रभावित होती हैं। गति इन प्रकाश तरंगों की प्रभावी वेवलैंथ में परिवर्तन ला देती है। इन परिवर्तनों को देख पाने का सबसे अच्छा उपकरण स्पेक्ट्रोस्कोप है। यदि कोई पिण्ड अवलोकनकर्ता से दूर जा रहा है तो पिण्ड से आए प्रकाश के स्पेक्ट्रम में रंग लाल सिरे की ओर खिसके हुए दिखाई देंगे। यदि पिण्ड अवलोकनकर्ता की ओर आ रहा है तो पिण्ड से आने वाले प्रकाश के वर्णक्रम में रंग नीले सिरे की ओर खिसके हुए दिखाई देंगे।

सूरज की चकती की एक किनार की सतह धरती पर खड़े अवलोकनकर्ता की ओर आती है और फिर दूर जाती है। इसलिए डॉप्लर विधि का उपयोग सूरज के अपनी धुरी पर घूमने की जाँच-पड़ताल में भी हो सकता था। 1870 में हरमन वोगल, नील्स ड्यूनर और जैकोब हाल्म ने डॉप्लर विधि से सूरज की धुरी पर घूमने की गति को पता करने की कोशिश की (देखिए चित्र)। इन अध्ययनों में भी स्पेक्ट्रम का लाल या नीले सिरे की ओर खिसकाव देखा गया था। यह खिसकाव गति के सापेक्ष बदलता है। लाल या नीले सिरे की ओर जितना खिसकाव देखा गया है उससे गणना करके गति का अनुमान लगाया जाता है। अगले कुछ वर्षों में स्पेक्ट्रोस्कोपी में फोटोग्राफ ले पाना सम्भव हो गया। इस तकनीक के विकसित होने के बाद न केवल स्पेक्ट्रोस्कोपिक अवलोकनों में एकरूपता आई बल्कि सूरज की अक्षीय गति का मामला भी आगे बढ़ सका। डॉप्लर विधि ने गैलीलियो और उनके समकालीन खगोलविदों के अवलोकनों की पुष्टि की। साथ ही, विविध अक्षांशों पर सूरज के घूमने की गति के थोड़े संशोधित आँकड़े सामने आए।

धार्मिक मान्यताओं से पंगा कौन ले?

सौर धब्बों के अवलोकनों के शुरुआती ब्यौरे चीन में 28 ईसा पूर्व में मिलते हैं। यूनान में भी सौर धब्बों के अवलोकन के एक-दो उल्लेख मिलते हैं। यह लेख पढ़ते हुए आपको ऐसा लगेगा कि गैलीलियो के अवलोकनों के पूर्व यूरोप में सौर धब्बों को लेकर कोई सुगबुगाहट ही न थी, लेकिन ऐसा नहीं है। यूरोप के खगोलविद भी सौर धब्बों को लेकर उत्सुक थे और उन्होंने इनका अवलोकन भी किया था। खगोलविद जोहनॉन केप्लर को पता चला कि 1607 में बुध ग्रह सूर्य के सामने से गुज़रेगा और इसे धरती से देखा जा सकेगा। केप्लर ने सूर्य के बिम्ब को प्रोजक्ट करके इस घटना को देखने की व्यवस्था की थी। केप्लर ने सूरज के बिम्ब पर काले धब्बे को देखा भी। अगले कुछ दिनों तक काले धब्बे दिखते रहे तो उनका माथा ठनका। वे जानते थे कि बुध ग्रह को सूर्य की चकती के सामने से गुज़रने में चन्द घण्टे का समय लगेगा। ये काले धब्बे कुछ और ही मामला है। लेकिन धार्मिक मान्यताओं के खिलाफ न जाते हुए उन्होंने इसे ट्रांज़िट ऑफ मरक्यूरी (बुध का पारगमन) करार दिया।


20वीं सदी के शुरुआती दशकों में सूरज के बारे में हमारी जानकारी काफी पुख्ता हो चली थी। हम सूरज का रासायनिक संघटन जानते थे, सूरज पर होने वाली नाभिकीय क्रियाओं को समझने लगे थे। साथ ही, सूर्य की चुम्बकीय गतिविधियों और सौर्य धव्बों के बनने और खत्म होने के परस्पर सम्बन्ध को हम जान गए थे।
बीसवीं सदी में सूरज की चुम्बकीय गतिविधियों के मापन के लिए सोलर मेगनेटोमीटर का उपयोग किया जाने लगा। सोलर मेगनेटोमीटर बेहद संवेदनशील उपकरण है। इसका अन्दाज़ इस बात से लगाया जा सकता है कि सूरज के जिस इलाके की चुम्बकीय हलचलों को रिकॉर्ड किया जा रहा है उस इलाके में सूर्य की सतह पर 10 मीटर प्रति सेकण्ड तक की गति से हो रही हलचलों को भी मैगनेटोमीटर नाप लेता है। यानी इसका उपयोग सूरज के घूर्णन के मापन में भी किया जा सकता था। इस वजह से सूरज के किसी भी हिस्से में चुम्बकीय क्षेत्र के मापन के साथ-साथ उस भाग की गति को भी नापा जा सकता था।

डिफरेन्शियल रोटेशन क्यों?
अभी तक हमने गैलीलियो के समय से लेकर 20वीं सदी तक विविध तकनीकों से सूरज के धुरी पर घूमने का पता लगाने और घूमने में लगने वाले समय के बारे में जाना। शायद आपके दिमाग में भी एक सवाल उठ रहा होगा कि सूरज में डिफरेन्शियल रोटेशन क्यों है?
हम सूरज के फोटोस्फीयर, कोरोना वगैरह को देख पाते हैं लेकिन सूरज के केन्द्रीय भाग को देख पाना या इसका अध्ययन करना अभी भी सम्भव नहीं हो पाया है। इसलिए गैसीय पिण्डों के घूर्णन के बारे में कोई मुक्कमल सोच नहीं बन पाई है। फिलहाल, सूरज के डिफरेन्शियल रोटेशन के बारे में पक्के तौर पर कुछ भी बता पाना थोड़ा मुश्किल है।
डिफरेन्शियल रोटेशन के सम्बन्ध में कुछ मॉडल या हाइपोथीसिस पेश की गई हैं। सैद्धान्तिक तौर पर ऐसा माना जाता है कि सूरज के केन्द्रीय भाग (कोर) और रेडिएटिव इंटिरिअर (जहां विकिरण उत्पन्न होते हैं) तो किसी ठोस पिण्ड की तरह एकरूप गति करते हैं। इनकी गति सौर सतह (फोटोस्फीयर) और संवहन क्षेत्र (कन्वेक्टिव ज़ोन) के मुकाबले तेज़ है। गतियों में फर्क की वजह से हर अक्षांश पर अक्षीय गति में भी फर्क होता है। लेकिन यह सिर्फ एक विचार है, वास्तविक कारणों की तह तक जाना अभी भी बाकी है।
तो, अगली बार जब कोई आपसे यह पूछे कि सूरज अपनी धुरी पर कितने समय में घूमता है तो यह ज़रूर पूछ लीजिए कि आप सूरज के किस हिस्से के घूमने के बारे में पूछ रहे हैं जनाब?


माधव केलकर: संदर्भ पत्रिका से सम्बद्ध हैं।
सूर्य के धब्बों से संबधित लेख संदर्भ के अंक 34 में भी प्रकाशित हुआ है।