लेखक :  हेमा रामचन्द्रन
अनुवाद: अभिनव दुबे

महिला वैज्ञानिकों से परिचय की कड़ी में इस बार हमारी वैज्ञानिक हैं हेमा रामचन्द्रन। ये लेख ‘लीलावतीज़ डॉटर्स’ पुस्तक से लिए जा रहे हैं।

दुखी न हों कि गुलाब की झाड़ी में काँटे हैं,
खुश हों कि काँटों से भरी झाड़ी में गुलाब है।

अक्सर लोग मुझसे पूछते हैं कि क्या महिला होने के नाते विज्ञान के क्षेत्र में मुझे कठनाइयाँ पेश आती हैं। अगर ज़्यादा सोचे-विचारे बिना उत्तर दूँ तो मैं शायद कहूँगी, “कुछ खास नहीं।” परन्तु जब इसी सवाल को दूसरी तरह से पूछा जाता है कि क्या आपको लगता है, अगर कुछ चीज़ें अलग होतीं तो एक वैज्ञानिक महिला होने के नाते आपको सरलता होती? इसका जवाब है, “हाँ, बिलकुल!” इस लेख के ज़रिए मैंने इस विषय पर अपने व्यक्तिगत अनुभवों और विचारों को व्यक्त करने का प्रयास किया है।

चार वर्षों के छोटे अन्तराल को छोड़, मैंने हमेशा ऐसे संस्थानों में पढ़ाई की है जहाँ लड़के-लड़कियाँ साथ पढ़ते थे। शारीरिक रूप से हृष्ट-पुष्ट होने के कारण मैं खेल-कूद में लड़कों के साथ बराबरी से प्रतिस्पर्धा कर सकती थी और शायद इसी कारण मुझे महसूस हुआ कि लड़के (अथवा पुरुष) मेरे समान ही हैं, मुझसे श्रेष्ठ नहीं।

मैंने देखा कि अगर लड़कों के साथ कोई बहस करनी हो या कोई वास्तविक मुद्दा उठाना हो, तो अधिकतर लड़कियाँ शर्माती या हिचकिचाती हैं। मेरे विचार में लड़कों से एक सीमित मेलजोल के कारण ऐसा होता है, जिससे लड़कियों में यह सोच बन जाती है कि लड़के अलग हैं और शायद अवांछित प्राणी भी। इसके साथ ही परिवार के सदस्यों, समाज और साथ वालों के द्वारा लड़कियों में यह सोच भर दी जाती है कि उन्हें सदैव नम्र, शान्त, क्रोध न करने वाली, सहनशील और दूसरों के हित को अपने हितों से पहले रखने वाली होना चाहिए।

बचपन से ही मुझे और मेरे भाई, दोनों को ही बहुत-सा पढ़ने, प्रश्न पूछने व ज्ञान संग्रह करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता रहा। मेरे पिता स्वयं एक वैज्ञानिक थेे और माँ एक गृहणी परन्तु औरों से हटकर, अच्छी पढ़ी-लिखी और सूचनाओं से परिपूर्ण। दोनों ने ही हमें पढ़ाने के लिए कष्ट सहे। छोटी उम्र से ही मेरे मन में कोई सन्देह नहीं था कि मुझे अपना भविष्य अनुसंधान के क्षेत्र में ही बनाना है।
मैं अपने अभिभावकों को नमन करती हूँ कि वे अपने भाई-बहनों से अलग थे। उन्होंने अपने दोनों बच्चों, मुझे और मेरे भाई को बिना किसी भेदभाव के, समान रूप से बड़ा किया। उन्होंने मुझे कभी भी बेटे से कमतर महसूस नहीं होने दिया और न ही कुछ करने से सिर्फ इसलिए रोका क्योंकि मैं एक लड़की थी।

ऐसे समय और पारिवारिक वातावरण में, जहाँ स्नातक होते ही लड़कियों का विवाह कर दिया जाता था, मुझे उच्च शिक्षा के लिए प्रोत्साहित किया गया। इससे कहीं अधिक, मैं छात्रावास में रही और पढ़ाई के बाद पुरुषों के वर्चस्व वाले एक संस्थान में नौकरी की। मेरे माता-पिता ने मेरे रिश्तेदारों से सुरक्षा प्रदान की जो मेरे नौकरी करने और अभी तक अविवाहित रहने के विरुद्ध थे।

सौभाग्यवश मैं अधिकांश समय पक्षपात और भेदभाव से मुक्त वातावरण में रही पर अब जब अतीत में झाँकती हूँ तो ऐसी कई घटनाएँ मुझे याद आती हैं। मेरी सबसे पहली यादों में से एक प्राथमिक शाला की है, जब मैं 5 या 6 वर्ष की थी। सत्र समाप्ति के बाद हुए वार्षिक पुरस्कार वितरण में मुझे कई विषयों में सर्वाधिक अंक प्राप्त करने पर पुरस्कार मिले थे। मेरा मित्र जो एक लड़का था और कक्षा में द्वितीय आया था, अपने अभिभावकों द्वारा कई बार झिड़का और अपमानित किया गया कि, “तुम्हें शर्म नहीं आती, तुमने एक लड़की के अपने से अधिक अंक आने दिए?” इस बात की महत्ता मुझे उस समय समझ में नहीं आई, परन्तु अब जब मैं सोचती हूँ, तो मुझे आश्चर्य होता है, कितने अभिभावक अपने मासूम लड़कों के दिमाग में यह विचार डाल देते हैं कि जन्मजात ही लड़के, लड़कियों से बेहतर होते हैं।

दूसरी घटना जो अभी भी मेरी स्मृति में ताज़ा है, मेरे करीबी मित्र द्वारा की गई टिप्पणी थी। बी.एससी. में पुरुष सहपाठी ने मेरे भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आई.आई.टी.), मुम्बई में एम.एससी. में दाखिले के बाद (जिसमें वह दाखिला नहीं पा सका) छूटते ही टिप्पणी की, “तुमने एक पुरुष का भविष्य खराब कर दिया। तुम लड़कियाँ आई.आई.टी. में क्यों पढ़ना चाहती हो जबकि एक महिला के लिए कैरियर का कोई औचित्य नहीं है? तुमने आई.आई.टी. में एक स्थान बेकार कर दिया और उसके हकदार एक लड़के को उससे वंचित कर दिया।” उसकी इस ईर्ष्या से भरी हुई अगम्भीर टिप्पणी तथा महिलाओं के भविष्य के बारे में उसके विचार सुनकर मुझे तगड़ा झटका लगा।

मैंने अपनी पहली नौकरी भाभा एटॉमिक रिसर्च सेंटर, मुम्बई में की। मैं यह ज़रूर कहना चाहती हूँ कि “मैंने वैज्ञानिक क्षेत्र के अपने सहयोगियों के बीच किसी प्रकार का गम्भीर भेदभाव नहीं देखा।” मैंने पाया कि पुरुष सहयोगी तीन प्रकार के थे। पहले, अधिकतर बुज़ुर्ग, जो आपके लिए फैसले लेते थे। “अरे! यह शहर से बाहर होने वाला सम्मेलन है, यह वहाँ शोधपत्र प्रस्तुत करने कैसे जा सकती है?” मैं इस पर नाराज़गी जताती रहती जब तक कि मुझे यह एहसास नहीं हुआ कि ये वाक्य अर्थपूर्ण और सुरक्षात्मक भावनाओं के कारण थे। दूसरे प्रकार के लोग वे हैं जो जानबूझकर चीज़ों को कठिन व दुष्कर बनाते हैं, यह साबित करने के लिए कि एक महिला होने के नाते मैं कुछ विशेष कार्यों को करने में अक्षम हूँ। और अन्त में युवा वर्ग के वे लोग जो स्कूलों, कॉलेजों, व्यावसायिक पाठ्यक्रमों और कार्यस्थलों में महिलाओं की बढ़ती भागीदारी से परिचित हैं। ये लोग, विशेषकर वे जिनकी पत्नियाँ कामकाजी हैं, ज़्यादा समझदार और हमें बराबरी से सम्मान देने वाले थे। सौभाग्य से ऐसे व्यक्तियों की संख्या बढ़ रही है।

एक प्रमुख निर्णय जो मुझे लेना था, वह था शादी के बाद दूसरे स्थान पर रहने का जो एक बहुत कठिन निर्णय था। इसका अर्थ था एक बेहतरीन वैज्ञानिक समूह को छोड़ना और साथ में एक स्थाई नौकरी को भी, विशेषकर जब कार्यस्थल में मेरे लिए सब कुछ अच्छी तरह से चल रहा था। परन्तु मैं उससे भी ज़्यादा डरी हुई थी उस पूर्व प्रचलित विचार का एक और उदाहरण बनने से, जिसके अनुसार एक महिला को नौकरी पर रखना बुद्धिमत्तापूर्ण नहीं है, क्योंकि वो शादी के बाद नौकरी छोड़ देगी या बच्चों के जन्म के बाद अनियमित हो जाएगी। एक महिला द्वारा लम्बे समय के लिए नौकरी का वादा नहीं दिया जा सकता। दो विरुद्ध विचारों के द्वन्द्व के बीच अन्तत: मैंने भाभा एटॉमिक रिसर्च सेंटर, मुम्बई की नौकरी छोड़ने का फैसला किया और बैंगलू डिग्री चली गई। सौभाग्यवश, मुम्बई के बाहर जाने पर भी मैं विज्ञान से दूर नहीं हुई। मैंने शोध जारी रखा यद्यपि शोध का क्षेत्र कई बार परिवर्तित किया। मैंने गौरीबिदनूर में भूकम्प विज्ञान के क्षेत्र में कुछ समय कार्य किया और उसके पश्चात् रमन शोध संस्थान में प्रकाशिकी प्रयोगशाला की स्थापना पर कार्य करने लगी।

अब जब आस-पास देखती हूँ तो मैं पाती हूँ कि पुरुष भी विभिन्न कारणों से नौकरियाँ बदलते रहते हैं, वे मुख्यत: उन नौकरियों की तरफ जाते हैं जो ज़्यादा लाभदायक हों या जहाँ तरक्की आसानी से मिले। संघर्ष कैरियर का हिस्सा बन चुका है। आजकल की एक बात जो मुझे अच्छी लगती है कि युवाओं में विवाह के बाद कहाँ रहना है, इस निर्णय में पत्नी की नौकरी, महत्वपूर्ण स्थान रखती है।

जीवन के अपने उतार-चढ़ाव होते हैं। भारत में एक कामकाजी महिला के जीवन में शायद उतार ज़्यादा और चढ़ाव कम होते हैं। परन्तु दो लोकोत्तियाँ मुझे मुश्किलों से उबरने का साहस देती रही हैं। उनमें से एक है जिससे मैंने इस लेख को शुरू किया। और दूसरी यह कि “सर्वाधिक अन्धकार भोर के पहले ही होता है।”


हेमा रामचन्द्रन: रमन शोध संस्थान, बैंगलू डिग्री में कार्यरत। होमी भाभा पुरस्कार और ‘इंडियन नेशनल साइंस एकेडमी यंग साइंटिस्ट’ अवार्ड से सम्मानित। वर्तमान शोध रुचियाँ क्वांटम लॉजिक एवं क्वांटम इन्फर्मेशन, क्वांटम ऑप्टिक्स, अल्ट्राकोल्ड एटॉमिक सिस्टम और बोस-आइंसटाइन कंडनसेट्स विषयों में हैं।

अँग्रेज़ी से प्राथमिक अनुवाद: अभिनव दुबे। जबलपुर से इंजीनियरिंग की शिक्षा प्राप्त की। पठन-पाठन में गहरी रुचि। भोपाल में निवास।
लीलावतीज़ डॉटर्स पुस्तक का सम्पादन रोहिणी गोडबोले व राम रामास्वामी ने किया है।

प्रकाशक: इण्डियन एकेडमी ऑफ साइंसेज़।