लेखक : सी. पी. स्नो
अनुवाद: मनीषा शर्मा

यह कथानक सी.पी. स्नो के उपन्यास द सर्च (तलाश) से लिया गया है। आलेख में इस बात का दिल को छू जाने वाला विवरण है कि तब क्या होता है जब कोई शिक्षक किसी विषय के प्रति अपने नीरस रुख को घण्टे भर के लिए त्याग देता है और विद्यार्थियों को सीधे-सीधे विज्ञान की उत्तेजना, आश्चर्य और रोमांच से रूबरू होने देता है। और यह सब हो रहा है बीसवीं सदी के दूसरे-तीसरे दशक में जब भौतिक शास्त्र के क्षेत्र में उथल-पुथल मची हुई थी।

अपने पिता के साथ मेरी उस सैर ने एक ऐसी सोच की शुरुआत की जिसमें मेरे जीवन का अधिकांश समय लगने वाला था। हाँ, यह ज़रूर है कि उसका वास्तविक आरम्भ सितारों से जगमगाती उस शाम से काफी पीछे जाता था। फिर भी वह शाम एक संकेत थी और उसे मैं कभी नहीं भूला।

खगोल विज्ञान में मेरी रुचि अनियमित रूप से कई सालों तक चली और धीरे-धीरे कम होती गई। फिर अचानक एक दिन मैंने पाया कि वह पूरी तरह से गायब हो गई थी। इस विषय में जोश तब तक रहा जब तक मैं कस्बे की माध्यमिक शाला में नहीं पहुँच गया। मैंने विज्ञान के अपने प्रथम पाठों की बड़ी उत्सुकता से प्रतीक्षा की थी; पर जब वे पढ़ाए गए तो मुझे बड़ी उलझन और निराशा हुई। विज्ञान के शिक्षक, लुआर्ड, स्कूल की एक खास शख्सियत थे; मैंने उनके बारे में, उनकी कड़वी ज़ुबान और क्रोध के दौरों के बारे में, उनके द्वारा हमें रसायन शास्त्र का पहला पाठ पढ़ाए जाने से पहले ही सुन रखा था। ऐसा दिखाई देता था कि सभी उनसे डरते थे -- फिर भी, एक लड़के के शब्दों में, जो स्कूल में एक या दो साल से था, “कभी-कभी वे रोचक लगते हैं।”

जब मैंने उन्हें कक्षा में आते हुए देखा तो मुझे भरोसा नहीं हुआ कि वे वही थे। प्रभावित होने के लिए आतुर मेरे जैसे लड़के के लिए भी वे कोई प्रभावशाली व्यक्ति नहीं थे। वे दुबले-पतले थे, बीमारों जैसा पीलापन लिए हुए थे और डोरी वाला बिना कमानी का चश्मा पहने थे। वे निश्चित ही चालीस से ज़्यादा के नहीं रहे होंगे, पर वे गंजे हो चले थे और उनकी आवाज़ भावहीन और थकी हुई सुनाई देती थी। उन्होंने हमें उदासीन और अनिच्छुक ढंग से पढ़ाया; उस पाठ और बाकी के पूरे सत्र के दौरान हमने प्रयोगशाला में खड़े रहने और नलियों -- जिन्हें लुआर्ड ‘दहन-नलिका’ कहते थे -- में लकड़ी और अन्य चीज़ों के छोटे-छोटे टुकड़ों और बेंचों पर रखी हुई बोतलों से लिए गए चूर्ण की सूक्ष्म मात्राओं को गर्म करने के सिवाय और कुछ नहीं किया। उन्होंने हमें इनमें होने वाले परिवर्तनों का अवलोकन करने के लिए कहा। मैंने बड़ी लगन से देखा और लिखा: “काला चूर्ण बदलता हुआ प्रतीत नहीं हुआ। सफेद चूर्ण बदलता हुआ प्रतीत नहीं हुआ। लकड़ी का नमूना पहले भूरा हुआ, फिर धुँआ देने लगा, फिर काला हो गया।” मैंने नलियों का बहुत ध्यानपूर्वक अध्ययन किया। यह सब अत्यन्त व्यर्थ महसूस होने के बावजूद पहले कुछ महीनों तक मैं फिर भी सोचता रहा कि मैं कहीं कुछ चूक रहा हूँ। यह काम इतना निरर्थक नहीं हो सकता था जितना कि वह दिखाई देता था। पर मैं क्या कर रहा था, यह किसी ने नहीं समझाया। किसी भी अन्य कवायद की तरह यह भी सिर्फ एक कवायद बन कर रह गई थी, जो स्कूल के नित्यकर्म के ऐसे अंशों में से एक थी जो समझ से परे थे: तुलनात्मक दृष्टि से यह फ्रांसीसी भाषा की ‘क्रियाओं’ से काफी कम रोचक था जिन्हें मैंने प्रयोगशाला में जाने से पहले वाली कक्षा में सीखना शुरू किया था। अन्तत: मैं इस नतीजे पर पहुँचा कि स्कूली ‘विज्ञान’ मेरे अपने निजी रोमांचक विज्ञान से, मेरे अन्तरिक्ष और तारों भरे संसार से, काफी भिन्न था।
फिर एक दिन, हमारी क्रिसमस की छुट्टियों से ठीक पहले, लुआर्ड उत्साह से लगभग चमकते हुए कक्षा में आए।
“हम आज सुबह प्रयोगशाला में नहीं जा रहे हैं,” उन्होंने कहा। “मेरे दोस्तो, मैं आपसे कुछ बात करने वाला हूँ।” वे ‘मेरे दोस्तो’ व्यंग्य से तब कहा करते थे जब उन्हें हमें फटकारना होता था, लेकिन इस बार यह काफी हद तक दिल से कहा गया-सा सुनाई दिया। “आप जो कुछ भी जानते हैं उसे भूल जाइए, बशर्ते कि आप कुछ जानते हों।” वे अपने पैरों को झुलाते हुए डेस्क पर बैठ गए।

“अब, तुम्हारे विचार से संसार का सारा पदार्थ किस चीज़ से बना है? हमारा प्रत्येक अंश, तुम और मैं, इस कमरे में रखी कुर्सियाँ, हवा, सभी कुछ। कोई नहीं जानता? पर शायद तुम जैसे बुद्धुओं के लिए भी इसमें कोई अचरज की बात नहीं है क्योंकि एक या दो साल पहले तक कोई भी नहीं जानता था। पर अब हम सोचने लगे हैं कि हम जानते हैं। यही मैं तुम्हें बताना चाहता हूँ। अलबत्ता, तुम समझोगे नहीं। पर तुमको यह बताना मेरे लिए रोचक होगा, और मेरा खयाल है कि यह तुम्हें नुकसान नहीं पहुँचाएगा, और वैसे भी मैं तुम सबको यह बताने ही वाला हूँ।”

उसी समय किसी ने रूलर गिरा दिया, और उसके बाद कमरे में काफी खामोशी छा गई। लुआर्ड ने इस ओर कोई ध्यान नहीं दिया और आगे बढ़ गए: “यदि तुम सीसे का एक टुकड़ा लो और उसको आधा कर दो, और फिर आधे का आधा कर दो, और इस तरह करते जाओ, तो तुम्हें क्या लगता है कि अन्त में तुम कहाँ पहुँचोगे? क्या तुम सोचते हो कि वह हमेशा सीसा ही रहेगा? क्या तुम सोचते हो कि अत्यन्त सूक्ष्म स्तर तक पहुँचकर भी तुम्हारे पास सीसे के ही सूक्ष्म कण होंगे? इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुम क्या सोचते हो। मेरे दोस्तो, ऐसा नहीं हो सकता। यदि तुम काफी आगे तक ऐसा करते ही जाओ तो तुम सीसे के एक परमाणु तक पहुँच जाओगे, एक परमाणु, सुना तुमने, एक परमाणु, और यदि तुम उसे भी विभाजित कर दो तो तुम्हारे पास सीसा नहीं बचेगा। तुम्हारा क्या खयाल है तुम्हारे पास क्या बचेगा? इस प्रश्न का उत्तर उन सबसे विचित्र बातों में से एक है जिन्हें तुम अपने जीवन में कभी भी सुनोगे। यदि तुम सीसे के एक परमाणु को विभाजित करोगे तो तुम्हें मिलेंगे- धनात्मक और ऋणात्मक विद्युत के अंश। बस यही। सिर्फ धनात्मक और ऋणात्मक विद्युत। पदार्थ बस यही है। तुम भी बस यही हो। सिर्फ धनात्मक और ऋणात्मक विद्युत -- और निस्सन्देह एक अमर आत्मा।”

उस समय मैं उनकी कहानी सुनने में इतना व्यस्त था कि मैंने कुछ और नहीं देखा; लेकिन बाद में मेरे मन में उस क्षण की लुआर्ड की जो छवि बनी उसमें मुझे उनके चेहरे पर मुस्कान की एक फड़क दिखती है। “और इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुम सीसे से शुरुआत करते हो या किसी और चीज़ से। अन्त में तुम यहीं पर आओगे। धनात्मक और ऋणात्मक विद्युत। फिर चीज़ें एक-दूसरे से भिन्न कैसे होती हैं? ऐसा है कि परमाणु बस धनात्मक और ऋणात्मक विद्युत होते हैं और वे सभी एक ही तरह से बने होते हैं, पर फिर भी वे आपस में भिन्न होते हैं, क्या तुम यह समझ सकते हो? प्रत्येक परमाणु के केन्द्र में थोड़ी धनात्मक विद्युत होती है-- जिसे वैज्ञानिक न्यूक्लियस कहते हैं -- और प्रत्येक परमाणु में कुछ ऋणात्मक विद्युत कण होते हैं जो न्यूक्लियस के चारों ओर घूमते हैं -- जैसे सूर्य के चारों ओर ग्रह घूमते हैं। पर कुछ परमाणुओं का न्यूक्लियस दूसरे परमाणुओं के न्यूक्लियस से बड़ा होता है, जैसे सीसे का न्यूक्लियस कार्बन के न्यूक्लियस से बड़ा होता है, और कुछ परमाणुओं में दूसरे परमाणुओं की तुलना में ऋणात्मक विद्युत के कण ज़्यादा होते हैं।

यह कुछ ऐसा ही है जैसे कि तुम्हारे पास एक ही तरह के पदार्थों से बने अलग-अलग सौरमण्डल हों, जिनमें कुछ के सूर्य दूसरों के सूर्य से बड़े हों, और कुछ में दूसरों की अपेक्षा ग्रह ज़्यादा संख्या में हों। यहीं सारा अन्तर है। यहीं एक हीरा सीसे के एक टुकड़े से भिन्न हो जाता है। यही हमारे इस समस्त संसार का आधार है।” वे रुके और अपने डोरी वाले बिना कमानी के चश्मे को साफ किया और उसे घुमाते हुए बोले: “तो समझे तुम? चीज़ें इस दिशा में जा रही हैं। दो लोगों ने परमाणुओं के बारे में पता लगाया है: एक अँग्रेज़ हैं, रदरफोर्ड, और दूसरे बोह्र नामक डेनमार्कवासी हैं। और मेरे दोस्तो, वे महान व्यक्ति हैं। मिस्टर माइल्स से भी ज़्यादा महान।” -- मैं शर्म से लाल हो गया। मैं कक्षा में अव्वल आया था और मुझे बधाई देने का यह उनका तरीका था - “भले ही इस पर विश्वास नहीं हो। महान व्यक्ति, मेरे दोस्तो, और शायद जब हम बड़े होंगे, तो इनके बगल में तुम्हारे रंगे-पुते नायक, तुम्हारे सीज़र और नेपोलियन, ऐसे दिखाई देंगे जैसे गोबर के ढेर पर खड़े होकर मुर्गे अपनी शान में बाँग दे रहे हों।”

मैं घर गया और परमाणुओं के बारे में जो भी खोज पाया वह सब पढ़ा। उस ज़माने में नई बातों का लोकप्रिय विवरण सुलभ होने में अभी की तुलना में काफी समय लग जाता था। अत: तब तक रदरफोर्ड का न्यूक्लियस भी मेरे ज्ञानकोष में नहीं आ पाया था, बोह्र का परमाणु तो बाद की बात है जिसके विवरण का प्रकाशन लुआर्ड द्वारा पढ़ाए गए पाठ के केवल कुछ ही महीनों पहले हुआ होगा। मुझे इलेक्ट्रॉन के बारे में कुछ जानकारी मिली और उसके आकार का कुछ अन्दाज़ हुआ; मैं इलेक्ट्रॉन की सूक्ष्मता और बड़े तारों की विराटता से मंत्रमुग्ध था: मैं प्रकाश-वर्षों में उलझ गया, मैंने सबसे समीप के तारे तक की यात्रा की समय-तालिकाएँ बनाईं (विश्वकोष में एक सम्मोहित कर देने वाली तस्वीर थी जिसमें प्रकाश की चाल से अन्तरिक्ष में जाती हुई एक एक्सप्रेस ट्रेन को सितारों तक पहुँचने में वर्षों लग जाते थे)। सूक्ष्म और विराट के इस पैमाने ने मुझे मोहित कर दिया, इलेक्ट्रॉन के स्तर की अत्यन्त सूक्ष्म दूरियाँ और रोहिणी तारे  की विशालता मेरे दिमाग में नाचने लगीं और न्यूक्लियस के चहुँ ओर घूमता विद्युत कण अपनी यात्रा में लगे समय की तुलना उस समय से करने लगा जो प्रकाश द्वारा आकाशगंगा को पार करने में लगता है। दूरी और समय, अनन्त रूप से बड़ा और अनन्त रूप से छोटा, इलेक्ट्रॉन और सितारे, सब मेरे दिमाग में फिरकी की तरह घूमने लगे।

इस घटना के थोड़े ही बाद की बात रही होगी जब मैं उन फन्तासियों में बहने लगा जो आजकल कई कल्पनाशील बच्चों के दिमाग में आती हैं। क्या ऐसा नहीं हो सकता कि इलेक्ट्रॉन के भीतर उससे भी छोटे संसार समाए हों जिनमें शायद हमारी अकल्पनीय रूप से सूक्ष्म नकलें हों? “वे नहीं जानते होंगे कि वे छोटे हैं; वे हमारे बारे में भी नहीं जानते होंगे,” मैंने सोचा, और मुझे बहुत संजीदगी और गहराई का अनुभव हुआ। और क्या हमारा संसार किसी विराट परमाणु के इलेक्ट्रॉन का बस एक हिस्सा नहीं हो सकता, जो स्वयं किसी विशालकाय संसार का भाग हो? मेरे लगभग सोलह साल के होने तक इन अटकलबाज़ियों ने मुझे दार्शनिक विराटता के भय का सुखद अहसास दिया, और फिर मैं उनसे उकता गया।

लुआर्ड, जिन्होंने मुझे आधे घण्टे के व्याख्यान से प्रज्जवलित कर दिया था, ने फिर दोबारा ऐसा नहीं किया। रसायन शास्त्र के पाठ एक बार फिर ऐसे अभ्यास बन गए जो मेरे लिए अर्थहीन थे, अम्लों और क्षारों की परिभाषाएँ जिन्हें मैंने अप्रसन्नता से सीखा, और, जैसे-जैसे स्कूल में हम आगे बढ़ते गए, गैसों के गुणधर्मों के वर्णन, जिनकी शुरुआत हमेशा ‘रंगहीन, पारदर्शी, अविषैली’ से होती थी। लुआर्ड, जो एक बार जोश से फूट पड़े थे, नीरसता से परिभाषाएँ बताते रहते या हमें पाठ्यपुस्तकों के भरोसे छोड़ देते, जबकि वे खुद प्रयोगशाला के छोर पर अकेले बैठे रहते। कभी-कभार क्षण भर के लिए उनमें कोई चिंगारी चमकती थी; उन्होंने हमें ज्वलनशीन पदार्थों में निहित एक काल्पनिक पदार्थ फ्लोजिस्टोन के बारे में बताया, “मेरे दोस्तो, यह याद रखना, तुम्हारे लिए यह एक सबक होना चाहिए कि यदि तुम पर्याप्त रूप से बेईमान हो तो तुम परम्परा का सहारा ले सकते हो” और फैराडे के बारे में “उनसे बेहतर कोई दूसरा वैज्ञानिक नहीं होगा; और डेवी ने उन्हें रॉयल सोसायटी से बाहर रखने की कोशिश की क्योंकि वे एक प्रयोगशाला सहायक रह चुके थे। डेवी छलांग लगाके आगे बढ़ने वाले अन्य सभी दोयम दर्ज़े के व्यक्तियों की तरह ही था।”

हालाँकि ऐसे क्षण बड़े बिरले ही आते थे और मैंने रसायन शास्त्र के पाठों से सिवाय नीरसता के किसी और चीज़ की आशा छोड़ दी।

काफी समय बाद ही मैं लुआर्ड को समझ पाया। उन्होंने क्यों अपना उत्साह खो दिया था, और क्यों अपनी कक्षाओं को इतना ढर्रे में बँधा हुआ तथा नीरस बना दिया था। इसे पूरी तरह समझने के लिए मुझे दो विश्वविद्यालयों से गुज़रना पड़ा, शिक्षाशास्त्रियों के व्याख्यान सुनने पड़े और खुद भी विश्वविद्यालय की छात्रवृत्तियों के लिए परीक्षक बनना पड़ा। क्षोभ के साथ मैंने जाना कि लोगों के निहित स्वार्थ, भ्रमित सोच और उनके अपने अतीत की यादों का मिलाजुला प्रभाव ही उन्हें विज्ञान पढ़ाने के ‘तर्कसंगत’ तरीके से चिपके रहने को मजबूर कर देता है। जब मैं विद्यार्थियों की कल्पनाशक्ति को आकर्षित करने के लिए रोशनी की कोई किरण तलाश रहा था, तब, मुझे याद है, किसी ने कहा था: “यदि तुम अपने विद्यार्थियों में रुचि पैदा करना चाहते हो तो तुम उन्हें मूल खोजकर्ता की स्थिति में वापस ले जाओ।”

मूल खोजकर्ता की स्थिति में वापस ले जाना! यह सब शिक्षाशास्त्रीय बकवास है! ज़रा उन तमाम संयोगों, लड़खड़ाते कदमों, अन्तर्दृष्टि की झलकों और निपट गलतियों के बारे में तो सोचिए जो विज्ञान की शुरुआत से अब तक की हर खोज के पीछे रही हैं! और फिर अध्यापक से यह उम्मीद करना कि वह उसी तरह से पढ़ाए। वह व्यक्ति आगे कहता गया: “ऊपरी सजावट को छोड़ दें तो विज्ञान को पढ़ाने का वास्तविक तरीका प्रेक्षणों से निष्कर्षों तक जाना है। सरल प्रयोगों से शुरुआत करें, उनसे निकाले गए निष्कर्षों को नोट करें, और बच्चों पर बहुत-सी नई-नई जानकारियों का वज़न न डालें। यही अनुभवसिद्ध रास्ता है, माइल्स, यही तर्कसंगत तरीका भी है, और इससे बेहतर कोई दूसरा तरीका नहीं हो सकता।” तर्कसंगत तरीका। जैसे फ्रांसीसी भाषा पढ़ाने के लिए किसी जोड़कर बनी (agglutinative) भाषा, मिसाल के लिए ऐस्किमो भाषा से शुरू करें और उसमें हुए तार्किक परिवर्तनों का अनुसरण करते हुए, बास्क भाषा से होते हुए यूरोपीय ज़ुबानों तक आएँ। इसी तरह से वे बच्चों को बाइबल का इतिहास भी सिखा सकते हैं, बशर्ते कि उनको सिनाई में चालीस वर्षों तक रखा जाए।

और यह पाण्डित्य प्रदर्शन चलता रहता है जबकि किसी बच्चे में उमंग जगाने का अवसर हर तरफ मौजूद है, सितारों से लेकर मोटरकारों तक, परमाणुओं से लेकर पक्षियों की ज़िन्दगियों तक। जब मैं नीरसता के इस षड़यंत्र के बारे में सोचता हूँ जिसमें बचपन के ये रोमांचक वर्ष लपेट दिए जाते हैं, तो मुझे इस पर ज़रा भी आश्चर्य नहीं होता कि मध्यकाल में अरस्तू को पढ़ाना एक उबाऊ रिवाज़ बना दिया गया था: इसकी बजाय मुझे आश्चर्य तो यह होता है कि वे फिर भी उसे इतना स्पष्ट और तरोताज़ा रहने दे सके। 


सी.पी. स्नो: (1905-1980)। जाने-माने भौतिक शास्त्री तथा उपन्यासकार। वे अपने उपन्यासों की ‘स्ट्रेंजर्स एण्ड ब्रदर्स’ (अजनबी और भाई) के लिए चर्चित हैं। उन्होंने विज्ञान, शिक्षा, साहित्य इत्यादि विभिन्न विषयों पर लिखा है।

अँग्रेज़ी से अनुवाद: मनीषा शर्मा: शिक्षा से चिकित्सक हैं। विज्ञान और शिक्षा में गहरी दिलचस्पी। अनुवाद करने का शौक है। दिल्ली में रहती हैं।
मैकमिलन, लंदन द्वारा 1959 में प्रकाशित ‘द सर्च’ पुस्तक से साभार।