सौरभ रॉय [Hindi PDF, 87 kB]

भाग-1   

हमारी शिक्षा व्यवस्था पाठ्य-पुस्तकों पर टिकी है और किताबों का दारोमदार है उसके पठन पर। इसीलिए बच्चों के स्कूल में जाते ही जो सबसे महत्वपूर्ण कार्य किया जाता है वह है भाषा शिक्षण। भाषा सीखने-सिखाने की जो दो मूल पद्धतियाँ अपनाई जाती हैं वो हैं ध्वनि-वर्ण पद्धति और समग्र-भाषा पद्धति। यहाँ पर हम समग्र-भाषा पद्धति की विस्तार से बात करेंगे। इस दृष्टिकोण के साथ कि स्कूलों में काम कर रहे शिक्षकों का ज़मीनी अनुभव है यह लेख।

विद्यालयों में जाने से पहले मैंने कभी यह सोचा ही नहीं था कि कक्षा 5 के बच्चे किताब भी नहीं पढ़ पाते होंगे। पिछले सात-आठ साल के काम के दौरान कई बार शिक्षकों और बच्चों से पढ़ना सीखना-सिखाने पर बातचीत की कवायदों ने मुझे यह समझा दिया कि अधिकांश बच्चे सामान्य तौर पर पाठ्य-पुस्तकों में लिखी बातें नहीं पढ़ पाते। कई बार यह भी पाया कि कक्षा चार-पाँच के बच्चे अपनी पाठ्य-पुस्तक का पाठ तो पढ़ लेते हैं, पर अपने से निचली कक्षा के पाठ या कोई अन्य विषयवस्तु नहीं पढ़ पाते। यह तो और हैरान करने वाली बात थी।

यदि बच्चे पढ़ भी पाते हैं तो अटक-अटक कर जैसे कि शमी ने पढ़ा, ‘ब’ ब में आ की मात्रा ‘बा’, ‘र’ र में ई की मात्रा ‘री’, ‘श’ -- ‘बारीश’ ‘आ’ ‘ई’ -- ‘आई’ ‘छ’ ‘म’ -- ‘छम’, ‘छ’ ‘म’ -- ‘छम’, ‘छ’ ‘म’ -- ‘छम’, ‘ल’ ल में ए की मात्रा ‘ले’ ‘क’ ‘र’ -- ‘लेकर’ ‘छ’ छ में आ की मात्रा ‘छा’, ‘त’ त में आ की मात्रा ‘ता’ -- ‘छाता’ ‘न’ न में इ की मात्रा ‘नि’ ‘क’ ‘ल’ ल में ए की मात्रा ‘ले’ -- ‘निकले’ ‘ह’ ‘म’ -- ‘हम’।

इसी अंश को छाया ने इस तरह पढ़ा था - ‘बा’ ‘री’ ‘श’ -- ‘बारीश’, ‘आ’ ‘ई’ -- ‘आई’, ‘छ’ ‘म’ -- ‘छम’, ‘छ’ ‘म’ -- ‘छम’, ‘छ’ ‘म’ -- ‘छम’, ‘ले’ ‘क’ ‘र’ -- ‘लेकर’, ‘छा’ ‘ता’ -- ‘छाता’, ‘नि’ ‘क’ ‘ले’ -- ‘निकले’, ‘ह’ ‘म’ -- ‘हम’। परन्तु तब भी उस कक्षा के शिक्षक मानते हैं कि उस बच्चे को पढ़ना आता है। बड़ा प्रश्न यह है कि इसे क्या कहा जाए - पढ़ना या डिकोडिंग? क्योंकि पढ़ने में तो समझना भी शामिल है। इस प्रकार काम करते-करते यह बात समझ में आई कि पढ़ना सीखना आज भी प्राथमिक शिक्षा के मूलभूत संकटों में से एक है।

इस दौरान कई शिक्षकों ने बातचीत में कई बार बच्चों द्वारा न पढ़ पाने का कारण बच्चों की पृष्ठभूमि (हरबोले थारू, नेपाली, कसाइयों आदि के लिए), समुदाय का वातावरण, परिवेश में होने वाले आपसी संवाद की अलग भाषा, परिवार के कार्य आदि को बताया। इसके विपरीत अवलोकनों के दौरान यह समझ भी बनी कि अलग-अलग पृष्ठभूमि से आए कई बच्चे वह सब सीख पा रहे हैं जो बच्चों के लिए उस कक्षा-विशेष में सीखना ज़रूरी माना जाता है। पढ़ना भी इसमें शामिल है। बच्चों के कुछ न सीखने के लिए सिर्फ उनके परिवार को, उनकी पृष्ठभूमि या उनके दृष्टिकोण को ही उत्तरदायी ठहराया जाना सही नहीं है। सामान्यत: शायद बच्चों के न सीखने की जड़ कक्षा में पढ़ने-पढ़ाने के तरीके और विधियों में है। इसलिए यदि बच्चे नहीं सीख पा रहे हैं तो इसका अर्थ है कि कक्षा में प्रयुक्त विधि कारगर नहीं है। अत: यह सोचना चाहिए कि क्या सीखने-सिखाने की प्रक्रिया में इन विधियों को त्यागकर किसी नए तरीके को अपनाने की ज़रूरत है।

इन कोशिशों के लिए लगातार शिक्षकों के साथ बातचीत ज़रूरी है, लेकिनयह भी सही है कि औपचारिक मंचों पर अकादमिक बातचीत के मौके बहुत ही सीमित हैं। शिक्षक साथियों के साथ लगातार फॉलोअप करने के लिए शिक्षकों ने स्वयं ही एक ‘अनौपचारिक शिक्षक समूह’ का गठन कर लिया। अनौपचारिक शिक्षक समूह महीने, दो महीने में एक दिन मिलकर आपस में अपने स्कूल के मुद्दे, काम के मुद्दे, बच्चों के साथ काम करने में आने वाली दिक्कतों आदि के बारे में विचार साझा करते और उपाय निकालने की कोशिश करते।

ध्वनि-वर्ण पद्धति
प्राथमिक विद्यालयों में बच्चों के प्रवेश के तुरन्त बाद उनका सामना पढ़ने और लिखने की निरर्थक कवायदों से होता है। इस प्रक्रिया में चरणबद्ध रूप से स्वर-व्यंजन रटाने, बारहखड़ी सिखाने, बिना मात्राओं के शब्द को पढ़ाने, मात्राओं के साथ शब्द पढ़ाने, बिना मात्राओं के छोटे-छोटे वाक्य, मात्राओं के साथ छोटे-छोटे वाक्य और फिर कविता, कहानी तथा अनुच्छेद पढ़ाने की कवायदें की जाती हैं। इसको हम ‘ध्वनि-वर्ण अप्रोच’ कह सकते हैं। इसमें वर्ण को एक खास ध्वनि के रूप में पहचानने की कोशिश की जाती है। शिक्षक का पूरा ध्यान इस पर होता है कि ध्वनि और उसके लिखित संकेतकों के बीच सम्बन्ध स्थापित किया जाए ताकि बच्चे ध्वनि को सुनकर इन संकेतों को लिख पाएँ या संकेतों को देखकर वही ध्वनि निकाल पाएँ।

इस प्रक्रिया में कक्षा की भाषा एवं बच्चे की भाषा के बीच टकराव बच्चे को पढ़ने की प्रक्रिया से ही दूर कर देता है। सामान्यत: बच्चे स्कूल में प्रवेश के पहले अपने आसपास के परिवेश, घर-संसार, रिश्ते-नाते, खेत-खलिहान, बाज़ार आदि के बारे में काफी कुछ जानते हैं। इन सभी बातों को वे अपनी भाषा में व्यक्त कर पाते हैं। उनसे अर्थ निकाल पाते हैं। ध्वनि-वर्ण अप्रोच में अक्सर बच्चे अर्थ नहीं निकाल पाते और अगर अर्थ निकालते भी हैं तो वह भी काफी बाद में। ऐसा इसलिए क्योंकि वर्ण सीखने के दौरान अर्थ-ग्रहण करने की प्रक्रिया नहीं होती बल्कि पूरा ज़ोर उच्चारण पर होता है। सामान्यत: वर्णमाला ही पूरी तरह से रटवा दी जाती है। जब ‘क’ से ‘कमल’ पढ़ाते हैं तो पढ़ाने के तरीके से यह लगता है कि ‘क’ का मतलब ‘कमल’ है ना कि ‘कमल’ तीन वर्णों से मिलकर बना है क-म-ल। इसके साथ ही ‘क’ का कोई चित्र बच्चे के दिमाग में नहीं बनता। रटवाने की यह प्रक्रिया पूरी बारहखड़ी तक चलती है। इसके बाद के चरण में बिना मात्राओं के छोटे-छोटे शब्द और वाक्यों को पढ़ाते हैं तो सामान्यत: ‘घर पर चल’, ‘छत पर मत चढ़’, ‘रथ तक चल’, ‘कल तक चल’ जैसे वाक्य होते हैं, जिनका बच्चों के अनुभव से कोई लेना-देना नहीं है। इसके बाद मात्राओं वाले शब्द और सरल वाक्य आते हैं, इनके भी सीमित अर्थ होते हैं। इतनी कवायदों के बाद जाकर बच्चों को यह मौका मिलता है कि वे कविता, कहानियाँ तथा अनुच्छेद पढ़ें। यह सामग्री ज़रूर अर्थ-पूर्ण होती है, परन्तु तब तक कई बार बच्चों को वर्णों को जोड़कर पढ़ने की ऐसी आदत विकसित हो जाती है कि शब्दों के उच्चारण के साथ उनका अर्थ-निर्माण मुश्किल हो जाता है।

शिक्षकों के इस अनौपचारिक समूह के साथ काम करने के दौरान यह भी देखा कि पढ़ना सीखने-सिखाने के लिए कुछ शिक्षक साथियों द्वारा अलग पद्धति काम में लाई जा रही है। इस पद्धति को उन शिक्षकों ने समग्र-भाषा पद्धति या अप्रोच कहा।

समग्र-भाषा पद्धति
समग्र-भाषा पद्धति भाषा सीखने-सिखाने का एक दर्शन है। इस दर्शन के साथ काम करने वाले शिक्षक बतलाते हैं कि कैसे भाषा पढ़ने-पढ़ाने की प्रक्रिया इनके विद्यालयों के बच्चों को बोझिल न लगकर उत्सुकता-पूर्ण एवं मज़े से भरपूर लग रही है। उदाहरण के लिए एक शिक्षक साथी ने साझा किया कि उन्होंने कक्षा-1 की शुरुआत बच्चों के साथ बातचीत से की। बातचीत के विषय उनकी रोज़मर्रा की ज़िन्दगी से होते थे - जैसे, “आज आपके यहाँ क्या खाना बना है?”, “घर से स्कूल आने में क्या-क्या देखा” आदि। इस तरह की बातचीत को शिक्षक ने कुछ समय तक लगातार किया, फिर कुछ सप्ताह के बाद उनकी ही बात को बोर्ड पर लिखने की शुरुआत की। इसका मकसद था कि बच्चे यह समझ पाएँ कि जो बात कही जाती है उसे लिखा भी जा सकता है।
तत्पश्चात् शिक्षक ने जो बोर्ड पर लिखा था उस पर उँगली रख कर पढ़ने की शुरुआत की। इस प्रकार की बातचीत के साथ-साथ शिक्षक साथी कुछ कविता और कहानी पर भी काम करते रहे। इन कविताओं में ‘ऊँट चला भई ऊँट चला’, ‘धम्मक-धम्मक आता हाथी’, ‘पहाड़ी पर पेड़ था’, ‘एक कहानी कहनी है’, ‘क्योंजी बेटा रामसहाय’, ‘वह देखो वह आता चूहा’, ‘चन्दा मामा, चन्दा मामा’, ‘रज्जू के बेटों ने’, ‘लाल टमाटर’ आदि शामिल थे। इनमें से एक कविता के अंश पर शिक्षक द्वारा किया गया काम समूह के साथ साझा किया गया।

लाल टमाटर, लाल टमाटर
मैं तो तुमको खाऊँगा।
अभी न खाओ मैं कुछ दिनों में
और अधिक पक जाऊँगा।
लाल टमाटर, लाल टमाटर
मुझको भूख लगी भारी।
भूख लगी है तो तुम खा लो
यह गाजर-मूली सारी।

शिक्षक साथी ने कविता का यह अंश बच्चों को तीन-चार बार सुनाया और फिर बच्चों को सुनाने को कहा। इस प्रकार उन्होंने यह कोशिश की कि बच्चों को कविता याद हो जाए। यदि बच्चों द्वारा कविता सुनाने में कुछ हेर-फेर हो जाती तो बाकी बच्चे उसे स्वयं ही ठीक कर देते। कभी-कभी शिक्षक भी उस कविता को पुन: सुना देते। शिक्षक ऐसा मानते हैं कि बच्चों की मौखिक भाषा उनके पढ़ने और लिखने की प्रक्रिया में मददगार होती है।

एक बार जब बच्चों को यह कविता याद हो गई तो शिक्षक ने ‘टमाटर’ पर बातचीत की, जैसे -- “किस-किस के घर खाने में टमाटर का उपयोग होता है?”, “टमाटर घर पर कहाँ से लाते हैं?”, “किनके घरों में टमाटर उगता है?” आदि। इसी तरह उन्होंने ‘लाल’ और ‘खाने’ आदि विषयों पर भी बात की। इसके बाद शिक्षक ने बोर्ड पर यह कविता लिख दी और प्रत्येक शब्द पर उँगली रखकर कविता को फिर से पढ़ा। कुछ समय बाद शिक्षक ने बच्चों से भी बोर्ड पर लिखी कविता पढ़ने की प्रक्रिया करवाई। बच्चों ने उँगली रख कर कविता को पढ़ने की कोशिश की। इस प्रकार शिक्षक ने यह प्रयास किया कि बच्चे उच्चारण और प्रतीक के सम्बन्ध को पकड़ पाएँ। तत्पश्चात् शिक्षक ने ‘टमाटर’ शब्द पर गोला लगाया और बच्चों से पूछा कि यह शब्द कविता में कहाँ-कहाँ आया है। बच्चों ने बड़े मज़े से इस प्रक्रिया में ‘टमाटर’ शब्द को पहचाना और शिक्षक ने उन पर गोला लगाया। यह शिक्षक साथी जानते थे कि शब्द भी एक तरह से चित्र है और बच्चे एक चित्र के समान दूसरे चित्र को अच्छी तरह पहचान सकते हैं।

शिक्षक साथी ने बच्चों को यह कविता अपनी कॉपी/स्लेट पर लिखने को कहा। बच्चों ने इसको लिखने की कोशिश की। कुछ बच्चों की स्लेट पर शिक्षक ने स्वयं लिखा। स्लेट पर लिखने के पश्चात् बच्चों को अपनी कॉपी में ‘लाल’ शब्द पहचान कर उस पर गोला लगाना था। बच्चों ने यह काम अपनी स्लेट पर किया और साथ-ही-साथ शिक्षक ने बोर्ड पर। इसके बाद शिक्षक ने यही प्रक्रिया ‘भूख’ शब्द के साथ दोहराई। बच्चों ने इस शब्द के आगे भी स्लेट पर गोला लगाया।

इन सब के पश्चात् शिक्षक ने बोर्ड पर एक तरफ ‘टमाटर’ शब्द लिखा और उसे ज़ोर-से इस तरह बोला ‘ट’ ‘मा’ ‘ट’ ‘र’ टमाटर। बच्चों ने भी बोला ‘टमाटर’। शिक्षक ने यह प्रक्रिया बच्चों के साथ कुछ बार दोहराई और कोशिश की कि बच्चे उच्चारण और वर्ण (लिपि) के सम्बन्ध को समझ पाएँ।

बच्चों के आसपास के शब्द
फिर शिक्षक ने ‘ट’ लिखा और पूछा, “बताओ ‘ट’ कहाँ-कहाँ आता है?” कुछ देर कक्षा में शान्ति रही। फिर एक बच्चे ने कहा, “सर - टोकरी।” शिक्षक ने ‘टोकरी’ को बोर्ड पर लिख दिया। फिर कहा, “अच्छा, कुछ और बताओ।” तो एक बच्चे ने कहा - टोपी। शिक्षक ने इसे भी लिख दिया। तभी किसी ने कहा -- पानी की टोंटी। शिक्षक ने पूरा लिखा ‘पानी की टोंटी’ और ‘टोंटी’ को रेखांकित कर दिया। इसके बाद तो एक-एक करके बच्चे बताने लगे। किसी ने कहा- मुर्गे की टंगड़ी, किसी ने कहा- आलू टिक्की, टिकिया, मम्मी की टिकुली, कुत्ते की टट्टी, टप्पा फोड़, घड़ी की टिन-टिन, टूथ पेस्ट, टैक्सी, टेबल, टेलीफोन, टैंक, ट्रैक्टर, ट्रक, ट्रॉली, टोस्ट, टेबलेट, टिकट, टॉर्च, घण्टी की टन-टन आदि। शिक्षक ने इन सभी को बोर्ड पर लिखा और ‘ट’ से शु डिग्री होने वाले शब्दों को रेखांकित कर दिया। इसी बीच एक बच्चे ने कहा -- पटाखा। शिक्षक साथी ने कुछ देर सोचकर इसे भी बोर्ड पर लिख दिया और सभी से प्रश्न पूछा, “बताओ इसमें ‘ट’ कहाँं है?” तो कुछ बच्चों ने कहा, “सर बीच में।” शिक्षक ने उसे रेखांकित कर दिया।

अब शिक्षक ने एक-एक करके सब शब्दों को उँगली रख कर पढ़ा। बच्चों ने भी इस प्रक्रिया में शिक्षक का साथ दिया। इसके बाद शिक्षक ने बच्चों से कहा कि इसे अपनी कॉपी/स्लेट पर लिख लो। लिखने की प्रक्रिया में कई बच्चों की शिक्षक ने मदद भी की। तत्पश्चात् शिक्षक ने यही प्रक्रिया ‘लाल’ शब्द के साथ दोहराई। इसके बाद शिक्षक ने राजीव से पूछा, “अच्छा बताओ, मुर्गी की टंगड़ी कब खाई तुमने?” राजीव ने कहा, “सर परसों।” शिक्षक ने बोर्ड पर लिख दिया, ‘राजीव ने परसों मुर्गे की टंगड़ी खाई।’ इसमें उन्होंने मुर्गे की टंगड़ी को रेखांकित करके टंगड़ी पर गोला लगा दिया। अब शिक्षक ने इस पर उँगली रखकर दो-तीन बार पढ़ा और बच्चों को इसे दोहराने को कहा। शिक्षक ने एहज़ान से पूछा, “तुमने आलू टिक्की कब खाई थी?” एहज़ान ने कहा, “सर हर इतवार को खाता हूँ।” शिक्षक ने बोर्ड पर लिखा, ‘एहज़ान हर इतवार को आलू टिक्की खाता है’ और इसे भी उँगली रखकर बार-बार पढ़ा और बच्चों को दोहराने को कहा। कुछ समय बाद शिक्षक ने बच्चों को बोर्ड पर आकर उँगली रखकर पढ़ने को कहा और इसके बाद सभी बच्चों से कहा कि इसे लिख लें। शिक्षक साथी ने यह बताया कि उसने यह प्रक्रिया बच्चों के साथ कई कविताओं एवं कहानियों के द्वारा की। इससे बच्चे बिना वर्ण रटाए एवं वर्णमाला पढ़ाए भी वर्णों को पहचान पा रहे थे और उनका उपयोग अपने सन्दर्भ में शब्द-वाक्य निर्माण हेतु कर पा रहे थे।

इसी प्रक्रिया के दौरान शिक्षक ने बच्चों से यह भी पूछा कि आपके घरों में और कौन-कौन-सी सब्ज़ियाँ आती हैं। बच्चों ने जिन सब्ज़ियों के नाम बताए उन्हें बोर्ड पर लिख दिया। बोर्ड पर लिखे गए कुछ नाम निम्न थे -
आलू, अल्लू
प्याज़, पियाज़, गण्डा, टमाटर, टिमाटर, बैंगन, बेगुन, बीन्स, फ्रासबीन, बोदी, बोरा, छेमी मटर, छिम्मी, गोभी, गाजर, पालक, पलिंगू, तुरई, गुदडी, सीताफल, कद्दू, तूमा
शिक्षक ने कोशिश की कि वह सब्ज़ियों को अन्य भाषाओं में जो भी कुछ कहते हैं उन्हें भी इसी सूची में लिखें। इस प्रकार यह कोशिश की जाती है कि कक्षा के अन्दर की भाषाई विविधता उनके लिए एक संसाधन बने।

शिक्षकों के अपने सन्देह
इतना कुछ साझा हो जाने के बावजूद अनौपचारिक समूह के ही कई शिक्षक साथियों के मन में समग्र-भाषा पद्धति को लेकर गहरे सन्देह हैं। इस लेख में आगे हम इनको गैर समग्र-भाषी उप-समूह कहेंगे। गैर समग्र-भाषी उप-समूह के शिक्षक साथी इस बात से खुश हैं कि उनके ब्लॉक के कुछ विद्यालयों में बच्चे कविताओं और कहानियों को मज़े से बोल-बोल कर पढ़ पा रहे हैं। पर पढ़ने के आधार ‘ध्वनि-वर्ण संयोजन’ के साथ शुरुआत न करने को लेकर इनके कई सारे सवाल हैं। समग्र-भाषा पर काम कर रहे शिक्षक साथियों के काम को इस उप-समूह के साथी अभी स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं। गैर समग्र-भाषी उप-समूह के कई शिक्षक साथी अनौपचारिक समूह की बैठकों में यह सवाल करते हैं कि आखिर जब बच्चों के साथ ध्वनि और उनके प्रतीक-चिन्ह पर काम नहीं करेंगे तो वे पढ़ कैसे सकते हैं। इसका एक कारण यह हो सकता है कि इन शिक्षकों के मन-मस्तिष्क एवं उनके द्वारा अपनाए गए पढ़ाने के तरीकों में ‘वर्ण पद्धति द्वारा प्रतीक चिन्ह पर कार्य करने की मान्यता’ इतनी गूढ़ है कि वे इसके बाहर ही नहीं निकल पा रहे हैं। साथ ही वे चाहते हैं कि आप जिस पद्धति की बात कर रहे हैं उसे परिभाषित कर दें। अगर परिभाषित नहीं कर सकते तो यह कैसे पता कि जो हो रहा है वही समग्र-भाषा पद्धति है?

इन प्रश्नों की प्रतिक्रिया में समग्र-भाषा पद्धति पर काम कर रहे शिक्षक साथी कई बार यह तर्क देते हैं कि बच्चे सन्दर्भ से समग्र रूप में सीखते हैं और सन्दर्भ की समग्रता सीखने में मदद करती है। एक शिक्षक साथी ने तो यह भी कहा कि वह समग्र-भाषा अप्रोच अपनाते हुए काफी पहले से काम कर रहे हैं। यद्यपि वे नहीं जानते थे कि वे जो कर रहे हैं, वही समग्र-भाषा अप्रोच है। इस तरह की बातें सही हो सकती हैं, परन्तु शिक्षकों के बीच इसके तर्क के बारे में समझ का होना भी काफी ज़रूरी है; ताकि अन्य शिक्षक भी इस पर समझ बना सकें। मैंने कई बार देखा है कि इस तरह की चर्चाओं के बावजूद कई साथी कहते हैं कि आप जो कह रहे हैं वह बात तो सही है लेकिन यह बताइए, “यह समग्र-भाषा पद्धति है क्या और क्या यह तरीका सचमुच काम करता है?”

सिद्धान्तों की आवश्यकता
इन चर्चाओं से यह लगता है कि शिक्षकों के बड़े समूह के साथ काम करने के लिए यह कह देना भर पर्याप्त नहीं है कि कुछ शिक्षक इस पर काफी पहले से काम कर रहे हैं, या यह कि समग्र-भाषा पद्धति भाषा को देखने का या भाषा के बारे में सोचने का एक तरीका है। इन अनुभवों से यह लगता है कि अगर हम समग्र-भाषा पद्धति के सिद्धान्तों और व्यवहार में इसके उपयोग के बारे में सरल एवं स्पष्ट रूप से बात नहीं कर पाएँगे, सामग्री नहीं बना पाएँगे तो शिक्षकों के बड़े समूह में इस पर समझ बनाने में कठिनाई होगी। इसलिए समग्र-भाषा पद्धति को न केवल उन साथियों को समझने की ज़रूरत है जो इस पर काम नहीं कर रहे हैं वरन् उन्हें भी है जो इस पर काम कर रहे हैं, ताकि अपनी समझ को विस्तार दे सकें। इसे समझने के लिए तीन बिन्दुओं को ध्यान में रखना होगा और इनसे सम्बन्धित सामग्री को समालोचनात्मक नज़रिए से देखना होगा,
1. शिक्षकों द्वारा इस पर विद्यालय में किया जा रहा कार्य।
2. भाषा शिक्षण को लेकर हुए शोध-कार्य से निकले शैक्षणिक सिद्धान्त।
3. साक्षरता और सीखने के सम्बन्ध को लेकर किए गए शोध जो समग्र-भाषा पद्धति को विश्वसनीय करार देते हों।
इसके साथ ही यह भी ध्यान रखना होगा कि ऐसा न हो कि सिद्धान्त रूप में शिक्षक समग्र-भाषा पद्धति को पढ़ना-लिखना सिखाने में भाषा की प्रणाली के रूप में मानें और व्यवहार में पढ़ना सीखने में ध्वनि-वर्ण पद्धति का उपयोग करें। अगर एक शिक्षक के रूप में हमें लगता है कि प्रारम्भिक शिक्षा में समग्र-भाषा पद्धति सभी विषयों की विषय-वस्तु को समाहित कर सकती है तो शिक्षक को गणित, विज्ञान, पर्यावरण-अध्ययन जैसे विषय पढ़ाते समय भी इन विषयों में सुनने, बोलने, पढ़ने और लिखने पर अपनी गहरी पारखी नज़र रखनी होगी।

समग्रता में हो इस्तेमाल

एक शिक्षक के रूप में यदि हमें लगता है कि समग्र-भाषा के पाठ्यक्रम के केन्द्र में बच्चा है तो शिक्षक साथियों को इस बात के लिए सक्षम होना होगा (खुद को स्थितियों के अनुरूप ढालने के लिए लोचदार रुख अपनाना होगा) कि बच्चों को कक्षा-कक्ष के अन्दर अकादमिक और सामाजिक निर्णयों में शामिल करें। सिर्फ यह कह भर देने से काम नहीं चलेगा कि मैं समग्र-भाषा के नज़रिए का प्रयोग कर रहा हूँ। शिक्षक साथियों को यह सुनिश्चित करना होगा कि कक्षा-कक्ष में जो कुछ हो रहा है -- कक्षा में पढ़ने-पढ़ाने की विधि, सामग्री, बच्चों की प्रतिभागिता, अर्थ पर ज़ोर आदि वह सब समग्र-भाषा के नज़रिए के अनुरूप हो।

कई बार विद्यालयों के अवलोकनों के दौरान यह देखा गया कि शिक्षकों द्वारा उपयोग की जा रही सामग्री समग्र-भाषा पद्धति के अनुरूप नहीं है। इस पद्धति पर काम करने वाले कुछ शिक्षकों की कक्षाओं में हमने दीवारों पर वर्णों के चार्ट, वर्णमाला और बारहखड़ी आदि अंकित भी देखे हैं। अत: यह समझ भी अत्यन्त आवश्यक है कि समग्र-भाषा पद्धति के लिए सभी सामग्री उपयुक्त नहीं है। इन शिक्षक साथियों द्वारा उपयोग में लाई जा रही सामग्री और समग्र-भाषा पद्धति के नज़रिए में मत-भिन्नता है।
अनौपचारिक समूह की बैठकों में यह भी देखा कि जब हम समग्र-भाषा पद्धति को छात्र केन्द्रित, बाल-साहित्य (कहानी, कविता आदि) के इर्द-गिर्द अर्थ को समाहित करते हुए समझाते हैं तो शिक्षक पाठ्यक्रम में उन सम्भावनाओं के बारे में जानने के लिए प्रेरित होते हैं।

परिभाषित करने की समस्याएँ
अनौपचारिक समूह में काम करते हुए एक समझ यह भी बनी कि समग्र-भाषा पद्धति को परिभाषित करना मुश्किल है। इसका एक मुख्य कारण तो यह है कि जो भी शिक्षक इस पद्धति के साथ काम कर रहे हैं उनके रास्ते एवं तरीके स्वयं के द्वारा खोजे गए हैं, जो एक-दूसरे से अलग एवं अनूठे हैं।
इसके साथ ही इस समूह के अधिकांश शिक्षकों का परिभाषाओं पर यकीन भी नहीं है इसलिए वे इसे करके देखकर अपने अनुभव को विस्तार दे रहे हैं। इनमें से कुछ साथियों का यह भी मानना है कि समग्र-भाषा पद्धति को समझने के लिए शिक्षक साथियों को उस ‘असुविधा क्षेत्र’ यानी स्वयं के कार्यों पर प्रश्न खड़े करना, भाषा-शिक्षण के क्षेत्र में होने वाले शोधों को पढ़ना आदि में प्रवेश करना होगा जहाँ सामान्यत: कई शिक्षक साथी जाना ही नहीं चाहते हैं। साथ ही इसको समझने के लिए शिक्षकों को स्वयं के साथ काफी ईमानदार होकर अपने पिछले और वर्तमान कार्य का मूल्यांकन करना होगा। यह प्रक्रिया धैर्य, समय और गहन चिन्तन की माँग करती है।

अर्थपूर्ण सन्दर्भ में भाषा
समग्र-भाषा पद्धति सीखने-सिखाने की प्रक्रिया का एक तरीका है। इसमें बच्चों को वाक्यों/शब्दों को सन्दर्भ के साथ सम्पूर्णता में पढ़ने और समझने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। इस नज़रिए को मानने वाले शिक्षक साथी यह मानते हैं कि भाषा को वर्ण और डिकोडिंग की प्रक्रिया में तोड़ कर नहीं देखना चाहिए। भाषा सन्दर्भ को समाहित करते हुए अर्थ-निर्माण और सार्थक संवाद की प्रक्रिया है। यह पद्धति बच्चों के भाषा के बारे में सम्पूर्ण पिछले ज्ञान और बढ़ती हुई समझ का उपयोग करती है। समग्र-भाषा उप-समूह के साथी जो इस पद्धति की वकालत करते हैं वे इस बात पर ज़ोर देते हैं कि पढ़ना-लिखना सीखने-सिखाने की प्रक्रिया में बच्चों की भाषा और उनके अनुभवों को महत्व दिया जाए। इसलिए कुछ साथी इसे लिखित और मौखिक भाषा के लिए अर्थपूर्ण सन्दर्भ को समायोजित करते हुए तर्कपूर्ण संवाद करने की प्रक्रिया भी मानते हैं तथा इसे भाषा को, सीखने को, लोगों को, खास तौर से बच्चों और शिक्षकों के समूह को एक साथ लाने के तरीके के रुप में भी देखते हैं।

स्ंक्षिप्त रूप से समग्र-भाषा पद्धति पाठ्यक्रम के बारे में विश्वासों का एक समूह है। यह सिर्फ भाषा के पाठ्यक्रम की बात नहीं करता वरन् कक्षा-कक्ष में सीखने-सिखाने के लिए होने वाले सभी कुछ को समाहित करता है...। समग्र भाषा पद्धति एक दार्शनिक स्वरूप है। यह दर्शन, भाषा विज्ञान, बाल विज्ञान, समाज शास्त्र, मानव शास्त्र, पाठ्यक्रम एवं साहित्यिक सिद्धान्तों के क्षेत्र में हो रहे सैद्धान्तिक संवादों के व्यवहारिक अनुप्रयोगों का विवरण है। यह शिक्षा का एक नज़रिया है जो सीखने वाले और सीखना, शिक्षक और शिक्षण, भाषा और पाठ्यक्रम के बारे में विचारों से समर्पित है।

शिक्षकों के अनौपचारिक समूह में एक समझ यह बनने लगी है कि भाषा सम्पूर्णता एवं समग्रता लिए हुए ही होती है। परन्तु कई शिक्षक भाषा को छोटे-छोटे टुकड़ों (ध्वनि-वर्ण समूह) में देखने के आदी हो गए हैं। उन्हें लगता है कि बच्चे इन टुकड़ों को आसानी से सीख सकते हैं। इस उप-समूह के शिक्षकों में एक मान्यता यह भी है कि भाषा को टुकड़ों में सीखने वाले बच्चों द्वारा पढ़ना-लिखना सीखने की प्रक्रिया के दौरान बारीकी से निरीक्षण करने में ध्वनि-वर्ण पद्धति कारगर होती है।

इसके विपरीत कई शिक्षकों का मानना है कि समग्र-भाषा पद्धति से भाषा सीखने-सिखाने की प्रक्रिया में भाषा की समग्रता को ध्यान में रखा जाना चाहिए और वाक्य-रचना, वाक्य-विन्यास तथा उसमें उपयोग किए गए शब्दों के अर्थ आदि कोे व्यावहारिक रूप में भाषा का उपयोग करते हुए सिखाया जाना चाहिए। इस उप-समूह में शिक्षक कोशिश करते हैं कि इस प्रक्रिया में सीखने वालों के सन्दर्भों एवं पिछली जानकारियों का ध्यान रखें और उसका परिस्थितियों के अुनरूप उपयोग करते हुए भाषा सीखने-सिखाने की प्रक्रिया को आगे बढ़ाएँ।

बहुआयामी भूमिकाओं में शिक्षक
समग्र-भाषा पर काम कर रहे उप-समूह के शिक्षकों का मानना है कि प्रत्येक भाषा का विकास संस्कृति के विकास से जुड़ा हुआ है, इसलिए कक्षा-कक्ष शिक्षा के दौरान भाषा सीखने-सिखाने एवं उस पर समझ बनाने की प्रक्रिया में वे बच्चों की संस्कृति को महत्व देते हैं। साथ ही बच्चे भाषा का कुशलतापूर्वक उपयोग करें, इसके लिए शिक्षक यह पता लगाने की कोशिश करते हैं कि बच्चे क्या करने की कोशिश कर रहे हैं और उन्हें वह करने में मदद करते हैं। इस प्रक्रिया में शिक्षक बच्चों का ध्यान से अवलोकन करते हैं।

समग्र-भाषा पद्धति पर काम कर रहे शिक्षक एक ही समय पर अलग-अलग भूमिकाएँ निभा रहे होते हैं। वे कक्षा-कक्ष में शोधकर्ता, प्रतिभागी, सन्दर्भ व्यक्ति, शिक्षार्थी (सीखने वाला) और श्रोता की भूमिकाओं में होते हैं। साथ ही शिक्षक कक्षा-कक्ष के बाहर होने वाली घटनाओं और गतिविधियों को कक्षा-कक्ष के साथ जोड़ने की कोशिश भी करते हैं। इस प्रकार इन कक्षाओं में छात्र पाठ्यक्रम की योजना के केन्द्र में होता है एवं कक्षा-कक्ष में होने वाली प्रक्रिया उसकी रुचियों एवं आवश्यकताओं से प्रेरित होती है। इस पद्धति में काम कर रहे शिक्षक बच्चों के साथ सीखने-सिखाने की सामग्री का विकास भाषा एवं सीखने की प्रक्रिया के ज्ञान, बच्चों के बारे में जानकारी और अपने विषय और साहित्य की समझ के आधार पर करते हैं।

क्या नहीं है समग्र-भाषा पद्धति?
समग्र-भाषा की कई परिभाषाएँ अनुपयुक्त भी साबित हुई हैं जिससे कई तरह के भ्रम भी फैलते हैं जो इसकी वकालत करने वाले शिक्षकों को हतोत्साहित करते हैं। परन्तु इसका एक सकारात्मक पहलू यह भी है कि इस तरह के भ्रम समग्र-भाषा पद्धति पर काम करने वाले शिक्षकों को एक साझी स्वीकार्य परिभाषा बनाने के लिए प्रेरित भी करते हैं ताकि समग्र-भाषा से सम्बन्धित भ्रान्तियों को कम किया जा सके।

समग्र-भाषा पद्धति को एक हद तक इस तरह से भी परिभाषित किया जा सकता है कि समग्र-भाषा पद्धति क्या नहीं है। उदाहरण के लिए समग्र-भाषा पद्धति का अर्थ पढ़ना-लिखना सिखाने की शब्द पद्धति से नहीं है और न ही यह भाषाई अनुभव का दूसरा नाम है। कई बार यह भी कहा जाता है कि समग्र-भाषा की कक्षा का मतलब है कि बच्चे कक्षा में कुछ भी करें (जैसे गलत शब्द पढ़ें, गलत उच्चारण करें, व्याकरण की गलतियाँ करें, कक्षा में काफी अधिक बात करें, हुड़दंगी करें) वह सही है... परन्तु वास्तविकता में ऐसा नहीं है।

इन परिभाषाओं में कुछ हद तक समग्र-भाषा के गुण शामिल हैं परन्तु ऐसा नहीं है कि ये सभी बिलकुल सही हैं। उदाहरण के लिए समग्र-भाषा की कक्षा में बच्चों द्वारा अपनी बात को कहने की कोशिश को महत्व दिया जाता है, सिखाने के तरीके और उद्देश्य अर्थपूर्ण होते हैं। इसलिए सामान्यत: बच्चों के अनुभव, कविताएँ एवं लेखों को समग्र-भाषा की कक्षा में भाषा सीखने-सिखाने की प्रक्रिया में उपयोग में लाया जाता है। परन्तु यदि इसी कक्षा में ध्वन्यात्मक चिन्हों (वर्णों) को भाषा सीखने की कई प्रक्रियाओं के उपायों की ओर इशारे के रूप में ना सिखा कर एक यांत्रिक अभ्यास के रूप में सिखाया जाता है, तो सिखाने के तरीके और उद्देश्य अर्थपूर्ण नहीं रहते हैं। इस तरह की कक्षा समग्र-भाषा पद्धति के पढ़ना सिखाने के नज़रिए के साथ मेल नहीं खाती और इस आधार पर इसे समग्र-भाषा पद्धति की कक्षा नहीं माना जा सकता।

उपर्युक्त बातों में यह बात छुपी हुई है कि समग्र-भाषा पद्धति एक कार्यक्रम, सामग्रियों का पुलिन्दा, गतिविधियाँ, अभ्यास या तकनीक नहीं है वरन् यह भाषा और सीखने का एक नज़रिया है जो एक प्रकार की रणनीतियों, विधियों, सामग्रियों और तकनीकों (जैसे भाषा की कुछ पूर्वानुमानित किताबें, चर्चा समूह, शब्दों के नए उच्चारणों को स्वीकार करने का लोचपूर्ण रुख) आदि को निर्देशित करता है।

(शेष अगले अंक में)


सौरभ रॉय: अज़ीम प्रेमजी फाउण्डेशन, देहरादून में कार्यरत।