मनोहर चमोली  [Hindi PDF, 226 kB]

भाषा शिक्षण के दौरान अक्सर देखने में आता है कि अधिकतर छात्र पाठ पढ़ लेते हैं। पाठोपरान्त प्रश्न-अभ्यास कर लेते हैं। गद्य-पद्य आधारित किताबी सन्दर्भ भी लिख लेते हैं, लेकिन अधिकतर छात्र पढ़ाए हुए को अपने शब्दों में बोलने और कुछ मन से लिखने में काफी कमज़ोर पाए जाते हैं।

माध्यमिक स्तर पर पढ़ाते हुए मुझे नौ साल हो गए हैं। मैं हिन्दी और संस्कृत पढ़ाता रहा हूँ। हमेशा उत्तीर्ण छात्रों का प्रतिशत लगभग सौ के आसपास ही रहा है। यह खुद पर इतराने का ख्याल अच्छा है। लेकिन तस्वीर का दूसरा पहलू यह है कि कक्षा में पाठ्य पुस्तक पढ़ाने और अभ्यास कराने मात्र से छात्रों में मौलिक लेखन विकसित नहीं होता। कुछ प्रार्थना-पत्र और कुछ निबन्ध का अभ्यास करा देने भर से रचनात्मक अभिव्यक्ति का कौशल विकसित नहीं होता।

अधिकतर शिक्षक परीक्षा में पूछे जाने वाले प्रश्नों के हिसाब से पाठ और प्रश्नों के अभ्यास कराते हैं। और ऐसे में जब कोई सवाल पाठ्य-पुस्तक में दिए गए अभ्यास प्रश्नों से थोड़ा भी इतर आ जाता है तो शिक्षक साफ कहते हुए पाए जाते हैं, “सवाल कोर्स से बाहर का था।”
इस बात की पुष्टि तब और हुई जब मुझे माध्यमिक बोर्ड (कक्षा-10) की उत्तर-पुस्तिका जाँचने का मौका मिला। रचनात्मक अभिव्यक्ति का एक सवाल आया था, ‘सरकारी स्कूलों में घटती छात्र संख्या के कारणों पर लेख लिखिए।’

कुछ कॉपियाँ जाँचने के बाद अचानक मेरा ध्यान इस बात पर गया कि अधिकतर छात्रों ने इस सवाल को छोड़ दिया था। मुझे याद है कि लगभग दस फीसदी छात्रों ने ही इस सवाल पर मशक्कत की थी। जिन्होंने की भी तो उनमें से अधिकतर छात्रों ने इसे किसी प्रार्थना-पत्र या निबन्ध शैली में लिख दिया था।

ऐसा क्यों हुआ?
कुछ गिने-चुने प्रार्थना-पत्रों और निबन्धों का अभ्यास कराने के बाद यह मान लिया गया होगा कि अभ्यास कराए गए निबन्धों और प्रार्थना-पत्रों में से कोई-न-कोई तो परीक्षा में आ ही जाएगा और छात्र कर ही लेंगे।

अंकों का वितरण
वैसे भी अगर हम नज़र दौड़ाएँ कि हमारी स्कूली व्यवस्था इस मौलिक- रचनात्मक लेखन और अभिव्यक्ति को कितना महत्व देती है तो इसका अन्दाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि हिन्दी के सौ अंकों के प्रश्न पत्र में रचनात्मक लेखन के लिए अधिकतम 14 अंक आरक्षित किए जाते हैं जिसमें एक प्रार्थना-पत्र और एक निबन्ध भी होता है। सोचिए अगर यह हिस्सा छूट भी जाए तो छात्रों के पास 86 प्रतिशत हिस्सा तो है ही जिसके ज़रिए वे अच्छे अंक हासिल कर सकते हैं।

वहीं दूसरी ओर रचनात्मक लेखन और अभिव्यक्ति का अभ्यास या उसे विकसित करने के लिए साल भर कुछ खास ठोस, नियमित गतिविधियाँ होती ही नहीं। गद्य-पद्य आधारित समस्त पाठों के अभ्यासों में भी रचनात्मक कौशल आधारित सवाल बेहद न्यून हैं।
शिक्षकों एवं मूल्यांकन-कर्ताओं में आज भी ऐसे शिक्षक ही अधिक हैं जो हर सवाल का एक ही उत्तर चाहते हैं। यही कारण है कि इस तरह के सवालों के प्रति यदि कोई छात्र कक्षा में संवाद करने की कोशिश भी करता है तो उसे प्रोत्साहित ही नहीं किया जाता।

व्यक्तिगत प्रयास
मैंने अपने विद्यालय में मौलिक लेखन के लिए बच्चों को प्रोत्साहित करने का प्रयास किया। इसे लेकर छात्रों में जमकर उत्साह रहा और उन्होंने इसमें बढ़-चढ़कर भाग भी लिया। मैंने कोशिश की कि मैं किसी भी छात्र के लेखन में कोई मीन-मेख न निकालूँ, व्याकरण दोष न खोजता रहूँ। बस एक ध्येय रहा कि छात्र जो कुछ सोचते हैं, जैसा सोचते हैं, बस उसे लिखकर अभिव्यक्त करें।
यह तो मैं जानता था कि कक्षा छह से दस तक के मेरे छात्र मौलिक लेखन में सामान्य भी नहीं हैं। उन्हें पढ़ाई गई किताब के इतर कुछ लिखने को दे दिया जाए तो वे सकपका जाते हैं। ऐसे में पिछले दो शैक्षणिक सत्रों के आरम्भिक दिनों में कुछ हटकर काम करने का मन बनाया। मसलन, किताब एक ओर रखकर मैं उनसे आधा पेज, एक पेज या जितना उनका मन करे लिखने को दिया करता था। लिखने के बिन्दु कुछ इस तरह के होते थे।

* यदि चॉकलेट और जलेबियाँ पेड़ पर फलों की तरह उगने लगें तो क्या होगा?
* स्कूल केवल रविवार को ही लगे तो कैसा रहेगा?
* यदि स्कूल में आधा दिन पढ़ाई हो और आधा दिन खेल तो आप कौन-कौन से खेल खेलोगे और क्यों?
* अपने घर से स्कूल तक आते-आते आपको क्या-क्या दिखाई देता है?
* यदि तुम्हें मछलियों की तरह तैरना और पानी में रहना आ जाए तो क्या करोगे?
मेरे छात्रों ने इस तरह के सवालों के जवाब देना अधिक पसन्द किया। उन्होंने केवल जवाब ही नहीं दिए बल्कि अपनी कल्पना और सोच को विस्तार दिया। ऐसा वे पाठ को पढ़ते और प्रश्न-अभ्यास करते हुए नहीं कर पाते थे। इसके अलावा मैंने पाया कि छात्र जैसा सोचते थे, वैसा लिखने की कोशिश भी कर रहे थे।
एक दिन मैंने सभी छात्रों को गृह-कार्य दिया। लेखन का बिन्दु था, ‘ऐसे काम जिन्हें आप करना चाहते हों लेकिन कर नहीं पाते।’
मुझे यह भी आकलन करना था कि कहीं छात्र मिलकर एक जैसा तो नहीं लिख कर लाएँगे। मैं गलत था। प्रत्येक बच्चे ने अपने मन की बातें व्यक्त कीं।

* मैं घास काटना नहीं जानती।
* मैं दूध दुहना जानना चाहता हूँ।
* मैं तैरना सीखना चाहता हूँ।
* मैं शीशे में देखे बिना सिर के बालों की सीधी माँग निकालना सीखना चाहता हूँ।
* मुझे हल लगाना नहीं आता।
* मैं सीटी बजाना सीखना चाहती हूँ।
* मुझे टीवी के कलर कम-ज़्यादा करना नहीं आता।
* मैं खम्बे पर नहीं चढ़ पाता।
* मुझे आटा गूँधना सीखना है।
* मुझे गोल रोटी बनाना सीखना है।
* मुझे सही से चाय बनाना नहीं आता।

ये सब काम उनके घर-गाँव से जुड़े हुए थे। इन कामों में उनकी पढ़ाई-केरियर और सूचना-तकनीक से जुड़े कोई काम नहीं थे। मैंने कल्पना भी नहीं की थी कि बच्चे अपने घर-परिवार से जुड़े छोटे-छोटे काम-धन्धों पर इतनी गहन नज़र रखते हैं। न सिर्फ इन्हें महत्वपूर्ण मानते हैं बल्कि इन्हें करने में दिलचस्पी भी लेते हैं।

नवीन सत्र के आरम्भ में तो मैं यह करता रहा, लेकिन जैसे-जैसे सत्र आगे बढ़ता गया मैं भी कोर्स को पूरा करने की जुगत में लग गया। सोचा तो था कि पहले कोर्स पूरा करा दूँगा फिर बचे समय में रचनात्मक गतिविधियाँ कराता रहूँगा। लेकिन ऐसा नहीं हो सका। परन्तु मैंने इतना ज़रूर किया है कि पाठ के आधार पर पाठ्य-पुस्तक से इतर कुछ मौखिक सवाल ज़रूर पूछता हूँ जिनके उत्तर विविध हों। एक उदाहरण देना चाहूँगा। कक्षा-9 में प्रेमचंद की ‘दो बैलों की कथा’ कहानी पाठ के रूप में है। पाठ पढ़ा लेने और प्रश्न अभ्यास करा लेने के बाद मैं छात्रों से पाठ्य-पुस्तक से इतर चर्चा के लिए कुछ प्रश्न करना चाहूँगा:

* यदि काँजी हाउस मनुष्यों के लिए भी बने होते तो आप कैसे मनुष्यों को उनमें बन्द करना चाहते?
* हीरा और मोती में से आपको कौन अधिक प्रिय लगा और क्यों?
* क्या हीरा और मोती का झूरी के घर से भागना ठीक था? यदि हाँ, तो क्यों?
* पशुओं को बाँधकर रखना क्या ठीक है? यदि नहीं तो पशुओं को हम पालते क्यों हैं?

उपरोक्त चार प्रश्न, अभ्यास प्रश्नों में से नहीं हैं। ये ऐसे प्रश्न हैं जिनके जवाब विविधता से भरे हो सकते हैं। ये प्रश्न छात्रों की रचनात्मकता और चिन्तनशीलता को बढ़ाते हैं। ऐसा करना हर पाठ में सम्भव नहीं है, लेकिन असम्भव भी नहीं। यह शिक्षक पर निर्भर करता है कि वह पढ़ाए गए पाठ से इस तरह की खुली चर्चा कैसे करवाएँ। बस इतना ध्यान रखना ज़रूरी होगा कि हर छात्र की राय का सम्मान हो। किसी के जवाब को गलत न ठहराया जाए। यह तभी होगा जब सवाल विविधता से भरे उत्तर की सम्भावना रखता हो।

छ:माही और सालाना परीक्षाओं का अप्रत्यक्ष मानसिक दबाव शिक्षकों पर पड़ता ही है और वे फिर से परम्परागत ढर्रे पर शिक्षण कार्य करने लगते हैं। परम्परागत शिक्षण छात्रों को परीक्षा में अच्छे अंक तो दिला देता है लेकिन छात्र न तो अच्छे वक्ता बन पाते हैं, न ही कभी कोई प्रभावशाली लेख लिख पाते हैं। वे अपनी बात ठीक से व्यक्त नहीं कर पाते और हाज़िरजवाब तो बन ही नहीं पाते।
मुझे लगता है कि हम शिक्षकों को पूरे सत्र में छात्रों को ऐसे भरपूर अवसर उपलब्ध करवाने चाहिए जिनसे वे अपने मन की बात कह सकें, लिख सकें। यदि हम ऐसा कर सकें तो यही छात्रों के प्रति हम शिक्षकों का सच्चा कर्तव्य माना जा सकेगा।


मनोहर चमोली ‘मनु’: शिक्षा विभाग, विद्यालयी शिक्षा, उत्तराखण्ड में भाषा शिक्षक हैं। कहानियाँ लिखते हैं। कई कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। साहित्य के अनेक राजकीय पुरस्कारों से सम्मानित। पौड़ी (गढ़वाल) में निवास।

सभी चित्र: तनुश्री: आई.डी.सी., आई.आई.टी. बॉम्बे से एनीमेशन में स्नातकोत्तर। स्वतंत्र रूप से एनीमेशन फिल्में बनाती हैं और चित्रकारी करती हैं।