विनता विश्वनाथन  [Hindi PDF, 186 kB]

अपने स्नातकोत्तर शोध के दौरान मैंने काफी समय जंगलों में बिताया है। जंगल में रहना मेरे जैसे शहरी के लिए चुनौती-भरा तो था, साथ में बहुत मज़ा भी आता था। उन दिनों की एक बात मुझे बहुत अच्छी लगती थी - रात को जागकर जंगल की आवाज़ें सुनना। हमारा कमरा गाँव से कुछ दूर था और रात के सन्नाटे में जानवरों की विभिन्न आवाज़ें सुनाई देती थीं। चीतल-साम्भर, रीछ-तेन्दुआ, टिटहरी-उल्लू, चमगादड़, मेंढक, झींगुर आदि सुनने को मिलते थे। इनमें से मुझे बहुत पसन्द थी एक धीमी और गहरी आवाज़ में हु-हु-ह्ऊऊऊऊ। ये ब्राउन फिश आउल की आवाज़ थी। कभी एक ही उल्लू की आवाज़ सुनाई देती, कभी दो उल्लू बातें कर रहे होते। कभी-कभी दोनों बातें करते हुए, धीरे-धीरे जंगल से गुज़र रहे होते - उनकी आवाज़ें एक दिशा में जाती हुई सुनाई देतीं। डेढ़-दो फुट के इस पक्षी को मैंने दिन में एक ही बार देखा था (ब्राउन फिश आउल ज़्यादातर उल्लुओं की तरह दिन में आराम करते हैं और रात को सक्रिय रहते हैं) लेकिन इनकी आवाज़ अक्सर सुनाई देती थी।

उल्लुओं के बारे में उस समय कम ही जानती थी लेकिन उन्हें पहचानने में कभी दिक्कत नहीं होती थी। उनके चेहरे का नक्शा और उनकी आँखें अन्य पक्षियों से काफी अलग जो हैं। उल्लुओं की आँखें सचमुच बहुत बड़ी होती हैं - शरीर के आकार को ध्यान में रखते हुए शायद ही किसी और जन्तु की आँखें उल्लू जितनी बड़ी होंगी। 2-3 फुट के कुछ उल्लुओं की आँखें 5-6 फुट के मनुष्यों की आँखों जितनी होती हैं। इनकी आँखें ही नहीं, पुतलियाँ भी बड़ी होती हैं जो ज़्यादा-से-ज़्यादा प्रकाश आँख के अन्दर आ पाए यह सम्भव बनाती हैं।

इस तरह उल्लू रात के अँधेरे में भी, बहुत ही कम रोशनी में देख पाते हैं। उल्लुओं की आँखों की कुछ अन्य विशेषताएँ भी हैं। अन्य पक्षियों जैसे उल्लुओं की आँखें सिर के दाईं-बाईं ओर स्थित नहीं होतीं; बल्कि चपटे चेहरे पर सामने की तरफ होती हैं (चित्र-1)। और उल्लू अपनी आँखों को हिला-घुमा नहीं सकते। रास्ते पर खड़े आते-जाते लोगों को कुछ हद तक हम सिर्फ अपनी आँखें यानी आँखों की पुतलियाँ फेरकर भी देख सकते हैं। उल्लू ऐसा नहीं कर सकते। सामने की तरफ अगर नज़र केन्द्रित करते हैं, तो कई जानवरों की तुलना में उल्लू का दृष्टि-क्षेत्र (field of vision, बिना सिर या गर्दन घुमाए जितना इलाका नज़र आता है) सबसे कम है (चित्र-2, 3)।

किसी अलग दिशा में देखना हो तो उल्लू को अक्सर सिर घुमाना ही पड़ता है। शायद इसलिए वे लगभग 270 डिग्री तक गर्दन घुमा सकते हैं। यानी कि सामने देखने वाला उल्लू सिर घुमाकर न केवल यह देख सकता है कि पीछे क्या हो रहा है, दाईं ओर मुड़ते-मुड़ते बाईं तरफ भी देख सकता है। और ऊपर देखते-देखते, अपना सिर उल्टा करके पीछे की तरफ भी देख सकता है।

आप अपना सिर कितना घुमा सकते हैं? हम मनुष्य अपने सिर को सिर्फ 90 डिग्री घुमा सकते हैं। अपने पीछे क्या हो रहा है, यह देखने के लिए हमें शरीर को मोड़ना पड़ता है। अगर हम उल्लुओं जैसे गर्दन मोड़ते-मरोड़ते तो मस्तिष्क तक खून पहुँचाने वाली नलियाँ बन्द हो जातीं और हम बेहोश हो जाते। फिर उल्लू ऐसी हरकत अपने आप को बिना नुकसान पहुँचाए कैसे करते हैं? शोध से हमें इस सवाल के कुछ जवाब मिले हैं।

सिर को 270 डिग्री घुमाने के लिए दो समस्याओं को हल करना होता है। पहला गर्दन, खासकर सख्त हड्डियों को इतना लचीला कैसे बनाया जाए, और दूसरा मस्तिष्क तक खून का बहाव कैसे बनाए रखें। उल्लुओं कीगर्दन की संरचना और उसके लचीलेपन को हम साइकिल की चेन के उदाहरण से समझ सकते हैं। मान लेते हैं कि सामान्य साइकिल की चेन में 90 कड़ियाँ हैं। अगर उतनी ही लम्बाई की चेन 90 छोटी कड़ियों की बजाय 10 बड़ी कड़ियों की बनी होती तो क्या होता - साइकिल चलाते समय क्या चेन सुचा डिग्री घूमती, क्या साइकिल आसानी से चलती? समझ में आता है कि उतनी ही लम्बाई में जितने ज़्यादा लिंक, चेन में उतना लचीलापन और चेन उतनी अच्छी तरह से घूम पाती है। रीढ़धारी जानवरों की गर्दन भी कुछ ऐसे ही - कशेरुकों की एक चेन जैसी बनी होती है। मनुष्यों (और सभी स्तनधारी जानवरों) की गर्दन में 7 की तुलना में उल्लुओं की गर्दन में 14 कशेरुक हड्डियाँ होती हैं। इस तरह, कम लम्बाई की गर्दन में ज़्यादा जोड़ होने के कारण उल्लू गर्दन आसानी से और हमसे ज़्यादा घुमा सकते हैं। 


वैसे पक्षियों के लिए यह खास बात नहीं है क्योंकि उनकी गर्दन में 11से 25 तक कशेरुक होते हैं। हंस जैसे लम्बी गर्दन वाले पक्षियों के मेरूदण्ड के इस क्षेत्र में 22-25 कशेरुक होते हैं और इसलिए उनकी गर्दन काफी लचीली होती है। लेकिन उल्लुओं की गर्दन बहुत लम्बी नहीं होती। फिर भी स्क् डिग्री की तरह उसे 270 डिग्री घुमा लेते हैं। हाल ही में हुए शोध से पता चला है कि उल्लुओं के कशेरुकों की संरचना और उनके बीच जोड़ की कुछ विशेषताएँ उनके लचीलेपन का राज़ हैं।

अब दूसरी समस्या पर आते हैं - मस्तिष्क तक खून के बहाव को रोके बिना सिर कैसे घुमाया जाए। उल्लुओं की रक्त धमनियों की कई खास बातें हैं जिनके कारण वे बिना दिक्कत गर्दन मोड़ सकते हैं। रीढ़धारी जन्तुओं में ग्रीवा धमनियाँ (carotid arteries),, जो मस्तिष्क को खून पहुँचाती हैं, गर्दन में दाईं व बाईं ओर पाई जाती हैं। उल्लुओं में ये धमनियाँ गर्दन के बाजूवाले हिस्सों में न होकर, रीढ़ के बिलकुल आगे, गर्दन के बीच में होती हैं। तो जब हम अपना सिर घुमाते हैं तो गर्दन में ये धमनियाँ उल्लुओं की धमनियों से ज़्यादा मुड़ती हैं। साइकिल के पहिए का सोचिए - एक चक्कर में पहिए के बाहरी भाग पर एक बिन्दु जितना घूमता है, अन्दर के गोले पर स्थित बिन्दु उसकी तुलना में बहुत कम घूमता है (चित्र-5)।

फिर मनुष्यों में गर्दन की हड्डियों में गुहिकाएँ यानी सुराख सिर्फ इतने बड़े होते हैं कि धमनियाँ उनमें से निकल जाएँ। उल्लुओं में धमनियों के लिए मनुष्यों से दस गुना ज़्यादा जगह होती है और इसलिए सिर घुमाते समय, धमनियाँ भी बिना बहुत कसे मुड़ सकती हैं। साथ में, ग्रीवा और अन्य धमनियों के बीच नलियाँ पाई जाती हैं। अगर गर्दन मुड़ते समय कोई धमनी बन्द हो जाती है, तो खून किसी अन्य नलिका या धमनी से निकल सकता है (चित्र-6, (क))। सबसे अनोखी बात तो यह है कि उल्लुओं में खोपड़ी के नीचे, ग्रीवा धमनियों में चौड़े खण्ड होते हैं जो फैलने पर खून से भर जाते हैं। यह संरचना किसी और जन्तु में नहीं पाई गई। वैज्ञानिकों का मानना है कि यह खून का एक कुण्ड, एक स्रोत है। जब मस्तिष्क तक खून का बहाव चाहे कुछ क्षण के लिए ही रुक जाता है, तो यहाँ से खून मस्तिष्क में पहुँचता है (चित्र-6, (ख))। शायद इसी कारण उल्लू पीठ दिखाते समय भी हमें आसानी से नज़र में रख सकते हैं।

उल्लुओं की घटती आबादी

भारत में उल्लुओं की 30 प्रजातियाँ पाई जाती हैं। आज तक इनका कोई व्यवस्थित आंकलन नहीं हुआ है, लेकिन पक्षी वैज्ञानिकों का कहना है कि पिछले कुछ दशकों से उल्लू कम दिख रहे हैं। मुमकिन है कि जंगलों का कटना और उनकी गुणवत्ता में घटाव (forest degradation) इसका प्रमुख


इन अनुकूलनों के बावजूद, उल्लू शिकार के लिए अपनी दृष्टि पर नहीं, अपने सुनने की क्षमता पर ज़्यादा निर्भरहोते हैं। उल्लुओं के कान भी उनकी आँखों की तरह चेहरे कीचपटी सतह पर होते हैं और कई प्रजातियों में एक कान, दूसरे से कुछ ऊपर स्थित होता है। वे इतना अच्छा सुनते हैं कि घोर अँधेरे में भी किसी शिकार (चूहे, छछूँदर जैसे छोटे जानवर) की आवाज़ मात्र से उसे पकड़ सकते हैं।

एक और बात है जिसके कारण वे बेहतर शिकारी हैं - उल्लू चुपचाप उड़ते हैं। उनके पर ऐसे आकार के हैं कि उड़ते समय कम-से-कम आवाज़ करते हैं। साथ में उनके शरीर पर पंखों का घनत्व अन्य पक्षियों से कहीं अधिक है - जो उड़ते समय आवाज़ों को सोख लेते हैं। सोचिए, रात को बिना किसी आवाज़ के उड़ते हुए, बड़ी-बड़ी आँखों वाले ये पक्षी शायद डरावने लगते होंगे, लेकिन मुझे तो ये सुन्दर लगते हैं।
कुछ सालों से एक छोटे शहर में, जंगल से दूर रह रही हूँ। रात को बाइक-ऑटो की आवाज़ों के बीच स्कॉप्स आउल या बार्न आउल की आवाज़ें जब सुनती हूँ तो अच्छा लगता है - ऐसा आभास होता है कि वन्यजीव के बीच आज भी रह रही हूँ।


विनता विश्वनाथन: ‘संदर्भ’ पत्रिका से सम्बद्ध हैं।