सौरभ रॉय    

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भाग-2

लेख के पहले हिस्से में हमने भाषा-शिक्षण में समग्र-भाषा दृष्टिकोण को अपनाने की ज़रूरतों, इसके पीछे के तर्कों एवं इसके दार्शनिक व सैद्धान्तिक पहलुओं को जाना। लेख के इस दूसरे हिस्से में हम समग्र-भाषा के सिद्धान्तों, परिभाषाओं और प्रक्रियाओं को कक्षा में प्रयोग होते हुए और अभिभावकों को भी भागीदार बनाकर भाषा को व्यावहारिक जीवन में उतरते हुए देखेंगे।

समग्र-भाषा की कक्षा का गहराई से किया गया अवलोकन उसकी कई परिभाषाओं को जानने से ज़्यादा महत्वपूर्ण है। ऐसा इसलिए क्योंकि कक्षा-कक्ष में ही समग्र-भाषा के सिद्धान्तों, परिभाषाओं और प्रक्रियाओं को उतरते हुए देखा जा सकता है। अगर हम समग्र-भाषा पद्धति की कुछ कक्षाओं का अवलोकन करें तो यह समझ पाएँगे कि इस पद्धति की कोई भी दो कक्षाएँ एक जैसी नहीं होती हैं। इसके बावजूद कुछ निश्चित रणनीतियाँ प्रत्येक कक्षा में शामिल होती हैं जिन्हें तय करने में उम्र, कक्षा या बच्चों के स्तर से कोई फर्क नहीं पड़ता। ये रणनीतियाँ समग्र-भाषा शिक्षण की कक्षा के अनुरूप शिक्षक की भाषा और सीखने की धारणाओं एवं उसके कहानी, बच्चे, बच्चों का समुदाय, बच्चों के विद्यालय के बाहर के जीवन आदि के प्रति आदर-सम्मान एवं चिन्तन को भी दर्शाती हैं।

कहानी-कविता सुनना और पढ़ना
समग्र-भाषा पद्धति पर कार्य करने वाले शिक्षक बच्चों को लगभग प्रतिदिन कहानी-कविता सुनाते हैं या पढ़ने के लिए देते हैं। यहाँ कहानी-कविता में गाने, चुटकुले, नाटक, पहेलियाँ, किसी घटना अथवा जगह के बारे में जानकारी आदि सभी शामिल हैं। 
इस तरह शिक्षक रोज़ कहानी सुनाकर या पढ़ने के मौके उपलब्ध कराकर कोशिश करते हैं कि पाठ्यक्रम के केन्द्र में बच्चों के साथ-साथ कहानियाँ भी हों। समग्र-भाषा की कक्षा में कहानी-कविता सुनने हेतु समर्पित समय सीखने-सिखाने के लिए आधार का काम करता है। और इस प्रक्रिया में अर्थ-निर्माण भी साथ-साथ ही होता है।

बच्चों की स्वयं एवं आसपास के बारे में समझ अत्यन्त महत्वपूर्ण है। कहानी-कविताओं को सुनाकर और पढ़कर बच्चे स्वयं, अपने परिवेश और आसपास के बारे में बेहतर एवं स्पष्ट समझ बना पाते हैं। यदि हम चाहते हैं कि बच्चे अच्छे पाठक बनें तो यह अत्यन्त आवश्यक है कि उनके आसपास अलग-अलग तरह की मुद्रित कहानियों, कविताओं, चुटकुलों, पहेलियों, घटना एवं अनुभव आदि का भण्डार हो। यह वातावरण बच्चों को पढ़ना-लिखना सीखाने में आधारभूत रूप से सहायक होता है।

कहानी की विषयवस्तु और स्वरूप बच्चों के भाषा और साहित्य के अनुभवों को विस्तार देने के साथ-साथ पढ़ना और लिखना सीखने के लिए आधार भी देते हैं। कहानियों को सुनकर बच्चे उसमें समाहित व्याकरण (वाक्य रचना आदि) का भी अनुमान लगा लेते हैं। इस अनुमान लगाने की प्रक्रिया से बच्चों को अर्थ बनाने में मदद मिलती है। कहानियों पर चर्चा बच्चों में एक साझी समझ बनाने में सहायता करती है। साथ ही यह बच्चों को कहानी को आगे बढ़ाने एवं उसकी विषय-वस्तु या चरित्र आदि को दूसरी कहानियों के साथ जोड़कर देखने का अवसर भी प्रदान करती है। कहानी सुनने वाले भी अन्य साहित्य जैसे नाटक, संगीत आदि को सुनकर या उसी लेखक की अन्य काहनियाँ पढ़कर चर्चित कहानी पर अपनी बात रख सकते हैं। वे कहानी को आगे बढ़ाकर उसमें कुछ घटना जोड़कर भी अपनी बात कह सकते हैं।

शिक्षक जब पाठ्यक्रम की स्वाभाविक प्रक्रिया के रूप में कहानी सुनाते हैं तो बच्चों के ऊपर किसी तरह का दबाव नहीं होता है। बच्चे अपनी पृष्ठभूमि के आधार पर कहानियों के अर्थ को ग्रहण करते हैं, साथ ही अलग-अलग संस्कृतियों के बारे में समझ भी बनाते हैं। समग्र-भाषा की कक्षा में प्रतिदिन बच्चों को स्वयं कहानी पढ़ने के मौके दिए जाते हैं। इन कक्षाओं में इसके साथ-साथ पढ़ने की अन्य सामग्री भी उपलब्ध होती है। इस प्रकार कहानियों एवं कई अन्य विषय-वस्तु को बच्चे स्वयं पढ़ते हैं और बेहतर पाठक बनने की दिशा में अग्रसर होते हैं।

लेखन
समग्र भाषा की कक्षा में लेखन के अन्तर्गत नए विचारों को बुनने, उन्हें आवश्यकतानुसार बदलने अथवा सुधारने, और अन्य साथियों के समक्ष प्रस्तुत अथवा साझा करने की प्रक्रिया समाहित होती है। इस प्रक्रिया में बच्चे कहानी-कविता के माध्यम से अपने लेखन का प्रस्तुतिकरण करते हैं।
बच्चों की कक्षा-कक्ष में कहानी, कविता, घटना के वर्णन, पत्र, अखबार के समाचार, रिपोर्ट, चुटकुले, पहेलियाँ आदि के साथ के अनुभव उन्हें लेखन की अलग-अलग शैलियों से परिचित कराते हैं। साथ ही ये बच्चों को अलग-अलग रूपों में लिखने के लिए प्रेरित भी करते हैं। उदाहरण के लिए बच्चों को कविता सुनने, पढ़ने आदि के अनुभव उनको अपनी ज़िन्दगी के अनुभवों को कविताओं के रूप में लिखने के लिए प्रेरित करते हैं। एक महत्वपूर्ण सिद्धान्त के रूप में इन कक्षाओं में लिखना सीखने के लिए लिखने के अर्थपूर्ण मौके दिए जाने का चलन होता है। इस प्रक्रिया में बच्चे दृढ़निश्चित होकर विश्वास के साथ लिखना सीखते हैं।

व्यक्तिगत और सामाजिक सम्बन्ध
समग्र-भाषा का पाठ्यक्रम पढ़ने और लिखने के दौरान निकलने वाले अर्थों को व्यक्तिगत अनुभवों के साथ जोड़कर देखने के लिए व्यक्ति-विशेष को प्रोत्साहित करता है। बच्चों के पास लगातार इस बात के अवसर होते हैं कि वे अपनी स्वयं की पसन्द की सामग्री को अकेले (यदि वे ऐसा करना चाहते हैं तो) बैठकर पढ़ें या उस पर लिखें। इसके साथ ही समग्र-भाषा पर काम करने वाले सभी शिक्षक इस बात का ध्यान रखते हैं कि यह एक अकेले बच्चे की अकेली कक्षा न हो। इस बात के पीछे शिक्षकों की यह समझ है कि भाषा को व्यक्तिगत एवं सामाजिक परिप्रेक्ष्य में एक-दूसरे के साथ सहयोग करके, बात करके एवं अन्त:क्रिया करके सीखा जा सकता है। इनका मत है कि भाषा के कई उपयोग होते हैं और समग्र-भाषा-शिक्षण में इन सारे उपयोगों को शामिल किया जाता है।

दूसरों की बात समझना, पढ़ना, अपनी बात कहना, लिखना, सोचना, सामाजिक सम्बन्ध बनाना, निर्देश देना व लेना आदि सबको साथ लेकर भाषा पर काम करना इन कक्षाओं के लक्षण हैं। अत: समग्र-भाषा पद्धति पर काम करने वाले विद्यालयों में बच्चे एक-दूसरे के साथ समाजीकरण की प्रक्रिया में उसी तरह घुलते-मिलते हैं जैसे कि वे कक्षा के बाहर एक-दूसरे से घुलमिल रहे होते हैं। बच्चे एक-दूसरे के साथ इन बिन्दुओं पर बात करते हैं कि वे क्या पढ़ रहे हैं, लिख रहे हैं, किन समस्याओं का सामना कर रहे हैं, किन समस्याओं का समाधान कर पा रहे हैं या किनका नहीं कर पा रहे हैं और कौन-कौन से प्रयोग कर रहे हैं। इस प्रकार सभी बच्चों को ध्यान में रखते हुए कक्षा-कक्ष के सन्दर्भ में प्राकृतिक एवं उपयुक्त परिस्थितियों में सीखने-सिखाने की प्रक्रिया होती है। समग्र-भाषा की कक्षा में काम करने वाले शिक्षक उन क्षेत्रों में बच्चों के लिए कुछ नहीं करते हैं जिन क्षेत्रों में बच्चे स्वयं कार्य कर सकते हैं। बच्चों को जब भी मदद चाहिए तो यह मदद उनके साथियों के रुप में उनके पास उपलब्ध रहती है। यहाँ बच्चे एक-दूसरे से प्रश्न करते हैं और प्रश्नों के उत्तरों को बातचीत के द्वारा गहराई से समझने का प्रयास करते हैं। इस प्रकार समग्र-भाषा की कक्षा में सहयोग की भावना को प्रोत्साहित किया जाता है। समग्र-भाषा पद्धति पर काम करने वाले शिक्षक लगातार अपनी कक्षा शिक्षण प्रक्रिया में इस बात के मौके ढूँढ़ते रहते हैं कि कैसे बच्चों के बीच एक-दूसरे की मदद करने की भावना बढ़े। इसके लिए शिक्षक साथी कई बार बच्चों का जोड़ा बनाकर, समूह में कार्य देकर अथवा शिक्षक (स्रोत व्यक्ति) की भूमिका पर बातचीत कर ऐसे मौके की सम्भावनाओं को बढ़ाने की कोशिश करते हैं। कुछ जगहों पर हमने यह भी देखा है कि बच्चे पढ़ने-लिखने के दौरान न केवल कहानियों की विषयवस्तु के बारे में बात करते हैं वरन् वे इसकी प्रक्रियाओं के बारे में भी बात करते हैं। 

इस दौरान कई शिक्षकों द्वारा बहुभाषिता को कक्षा में चर्चा को आगे बढ़ाने हेतु एक संसाधन के रूप में उपयोग करते हुए भी हमने देखा। जबकि इसी बहुभाषिता को पारम्परिक ध्वनि-वर्ण पद्धति एप्रोच में एक बाधा बना दिया जाता था। एक विद्यालय में तो हमने यह भी देखा कि शिक्षक और कुछ बच्चों के मध्य इस बात की सचेत जागरूकता है कि पढ़ने और लिखने के दौरान उनके दिमाग में क्या चल रहा था।

योजना बनाने की योजना
समग्र-भाषा पर कार्य करने वाले शिक्षकों के समूह की एक मान्यता यह है कि दुनिया में रहने के लिए आवश्यक ज़रूरतें, विद्यालय के बाहर का जीवन और वहाँ प्राप्त ज्ञान एवं अनुभव सीखने के लिए तात्कालिक रुप से आवश्यक प्रेरणा देते हैं। इन कारणों से समग्र-भाषा की कक्षा में पढ़ाने वाले शिक्षक कक्षा-कक्ष में पढ़ने-पढ़ाने की विषयवस्तु (क्या पढ़ाएँगे) और तरीके (कैसे पढ़ाएँगे) को बच्चों के साथ मिलकर उनकी रज़ामन्दी से ही अन्तिम रूप देते हैं। इसका मतलब यह कतई नहीं है कि समग्र-भाषा पर काम करने वाले इन शिक्षकों के पास कक्षा में काम करने को लेकर कोई योजना नहीं होती है। इसके विपरीत इन शिक्षकों का विद्यालय/कक्षा शु डिग्री होने से पहले का काफी समय ‘इस योजना की योजना (विषयवस्तु/प्रसंग, पाठ, इकाई आदि को खोजने)’ बनाने में जाता है। शिक्षक एक ही विषयवस्तु पर विभिन्न प्रकर के कारणों को ध्यान में रखते हुए विचार करते हैं, पूर्व के बच्चों ने इस विषयवस्तु को मज़े के साथ पढ़ा था, यह सामग्री आसानी से उपलब्ध है, शिक्षक की स्वयं इस विषय में रुचि है, माता-पिता इस विषय को पढ़ने के लिए बच्चों को प्रोत्साहित करते हैं, यह विषय परीक्षा के हिसाब से महत्वपूर्ण है, पाठ्यक्रम में यह विषय प्रमुखता से लिया गया है आदि। इनमें से जो भी कारण रहे हों परन्तु समग्र-भाषा पर काम करने वाले शिक्षक विषयों पर काम करने से पहले उन पर बच्चों के साथ बात अवश्य कर लेते हैं। कुछ जगहों पर तो हमने यह भी देखा कि बाकायदा बच्चों की रज़ामन्दी ली जाती है। कई विद्यालयों में तो इस तरह के भी उदाहरण मिले हैं जहाँ शिक्षकों के साथ बच्चों ने अपनी रुचियों एवं जीवन की घटनाओं को साझा करना शु डिग्री किया और शिक्षकों ने इसके इर्द-गिर्द कक्षा-कक्ष की विषयवस्तु को बुनकर पाठ्यक्रम एवं विषयवस्तु के बारे में छात्रों को बताया।

समग्र-भाषा के लिए सहायक सिद्धान्त
समग्र-भाषा पर कार्य करना इसकी एक परिभाषा गढ़ने या इसमें की जा रही मुख्य गतिविधियों की सूची बनाने की तुलना में कहीं अधिक है। यह शिक्षक का सीखने-सिखाने के बारे में एक दृष्टिकोण है जो उसके कक्षा-कक्ष शिक्षण, सीखना कैसे होता है एवं बच्चों की समझ के नज़रिए से बनता है। समग्र-भाषा की कक्षा में पढ़ाने वाले शिक्षक बार-बार अपने इन विश्वासों को कक्षा-कक्ष की शिक्षण प्रक्रिया के दौरान ध्यान में रखते हैं। इनमें से कुछ मुख्य सिद्धान्त जिनका समग्र-भाषा पर काम करने वाले शिक्षक ज़िक्र करते हैं निम्न हैं:

बच्चों के अनुभवों का उपयोग
समग्र भाषा पर काम कर रहे साथी बच्चों के पिछले अनुभवों पर बातचीत करते हैं। बातचीत की प्रक्रिया में यह सुनिश्चित करते हैं कि सभी बच्चे सक्रिय रूप से इसमें भाग लें। किन विषयों पर बातचीत करनी है यह चुनने की आज़ादी भी कुछ शिक्षक बच्चों को देते हैं। इस प्रक्रिया में शिक्षक बच्चों की रुचि, किन विषयों पर उन्हें बातचीत पसन्द है, उनकी अवलोकन क्षमता, विषय के बारे में जानकारी आदि पर समझ बना पाते हैं। साथ ही वे बच्चों के साथ बेहतर सम्बन्ध भी बना पाते हैं। बातचीत की यह प्रक्रिया जैसे-जैसे पढ़ना-लिखना सीखने सिखाने के दौर की ओर बढ़ती है, बच्चों को पढ़ना-लिखना सीखना मज़ेदार लगने लगता है। उन्हें यह लगता है कि वे जो कुछ बोल रहे हैं उसे लिखा भी जा सकता है और लिखी हुई चीज़ को पढ़ा भी जा सकता है। इस तरह से वे पढ़ना-लिखना सीखने की प्रक्रिया में सक्रिय भागीदारी करते हैं और इसके लिए विषय-वस्तु बनाने में शिक्षक की मदद करते हैं।

चुनने की आज़ादी
समग्र-भाषा पर कार्य कर रहे शिक्षकों के समूह में हमने यह देखा है कि बच्चों को पढ़ने की शुरुआत में ही शिक्षक उन्हें चुनने की आज़ादी देते हैं। सीखने के बिन्दुओं को बच्चे किस विषय-वस्तु, कहानी-कविता की चयनित किताबों से पढ़ेंगे यह चुनने की आज़ादी कुछ शिक्षक अपने बच्चों को देते हैं। बच्चों से उनके चुनाव के बारे में जानने के लिए वे बच्चों के बारे में, सीखने की प्रक्रियाओंे के बारे में, भाषा एवं विषय के बारे में अपनी जानकारी के आधार पर योजना बनाते हैं। बच्चे शिक्षकों के इन आग्रहों को बड़े मज़े के साथ स्वीकार करते हैं और स्वयं चुनकर किताबों को पढ़ने की कोशिश करते हैं। इसमें मज़े की बात यह भी है कि शिक्षक स्वयं भी अपने ही आमंत्रण को स्वीकार कर खुद भी पढ़ने-लिखने की प्रक्रिया में बच्चों के साथ शामिल होते हैं और किताबें पढ़ते हैं या कहानियाँ लिखते हैं। इस प्रकार समग्र-भाषा पर काम करने वाले शिक्षक बेहतर विकल्प और निमंत्रण देकर बच्चों की रचनात्मकता को प्रोत्सहित करते हैं।

छात्रों की जिम्मेदारी
छात्र के स्वयं सीखने की ज़िम्मेदारी उसकी खुद की होती है। छात्रों के सशक्तिकरण के लिए समग्र-भाषा पर काम करने वाले शिक्षक पूरी किताब एवं विषयवस्तु को पढ़ने और लिखने के लिए न चुनकर, छात्रों को वास्तविक रूप से पढ़ने और लिखने के मौके एवं फीडबैक देकर उनकी मदद करते हैं। फीडबैक देते समय शिक्षक सही समय का इन्तज़ार करते हैं और यह कोशिश करते हैं कि यह फीडबैक उनके पढ़ने और लिखने की प्रक्रिया में बाधित न बने वरन् उनको आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित करे। छात्र पाठ्य-पुस्तक पूरा करने के पीछे न पड़कर, तय किए कार्यों को आपस में समूह की मदद से करने की कोशिश करते हैं। शिक्षक इस प्रक्रिया में यह ध्यान रखते हैं कि उन चीज़ों को न करें जो छात्र स्वयं कर सकते हैं।
इस समूह के शिक्षक छात्रों को काम देते समय यह भी ध्यान रखते हैं कि उन्हें यह काम असम्भव न लगे, परन्तु साथ ही यह ध्यान रखा जाता है कि काम करने में छात्रों को चुनौती अवश्य मिले। इस प्रक्रिया में छात्र पैटर्न, समानता, सम्बन्ध जोड़ने जैसी दिमागी कसरतों का उपयोग करते हुए कई बार उन दक्षताओं एवं उद्देश्यों को भी पार कर जाते हैं जिनकी अपेक्षा शिक्षक ने की थी।

गलतियों को स्वीकार करना
भाषा के अन्दर भाषाई स्वरूप की सम्पूर्णता जैसी कोई बात नहीं होती है। यदि शिक्षक और बच्चे किसी और के द्वारा भाषा के बनाए गए मानकों के लिए बाध्य नहीं हों तो वे भाषा के विकास की प्रक्रिया में भागीदार बन सकते हैं। हम जैसे ही भाषा में सम्पूर्णता (मानकीकरण) के ख्याल से अपने को दूर करते हैं, साक्षरता के ‘यह ही एकदम सही है’ के मॉडल से भी अपने को दूर कर लेते हैं। इससे वे सभी विचार जो भाषा में एक तरह की विशेषज्ञता (मानकीकरण) की माँग करते हैं, ‘प्राकृतिक परिवेश में भाषा का उपयोग करते हुए भाषा सीखने’ की सोच के साथ परिवर्तित होते हुए प्रतीत होते हैं। बच्चे भाषा का सही उपयोग करने के साथ-साथ भाषा का ‘गलत’ उपयोग करके (मानकीकृत भाषा से भिन्न) भाषा सीख सकते हैं। कई बार यह भी होता है कि भाषा का ‘गलत’ उपयोग करके (जैसा कि कई लोगों की मान्यता है कि भाषा का सही उपयोग तो मानकीकृत रूप में ही है) भाषा सीखना बेहतर होता है।
जब भाषा को सुनने, बोलने, पढ़ने और लिखने वाले भाषा के विकास की प्रक्रिया को आगे बढ़ाने की ज़िम्मेदारी (जोखिम) लेते हैं तो सन्दर्भों के विभिन्न अर्थ निकालना इसका एक प्रमुख हिस्सा होता है। इसमें शिक्षक बच्चों को मानकीकृत भाषा पर न ले जाकर अपने विभिन्न अर्थों को साझा करने के अवसर देते हैं।

समग्र-भाषा की कक्षा में कार्य करने वाले शिक्षकों से बातचीत करने पर यह बात समझ में आती है कि उनके लिए पढ़ने-लिखने की प्रक्रिया को करने के दौरान बच्चों के व्यक्तिगत अनुभव, तर्क और उनके लिखित रफ कार्य अत्यन्त महत्वपूर्ण होते हैं। इस समूह के सभी शिक्षक साथी यह मानते हैं कि भाषा सीखने-सिखाने की प्रक्रिया का एक स्वस्थ्य वातावरण तभी बनता है जब शिक्षक बच्चों को अपनी गलतियों से सीखने के मौके दें और इस प्रक्रिया में आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करें।

अर्थ पर जोर
हम लोगों ने यह देखा है कि इस समूह के शिक्षकों की यह मान्यता है कि बच्चे जब अर्थ बता रहे हों (लिखित या मौखिक किसी भी माध्यम में) तो सतही स्तर के सुधार के लिए रोकना उनके संज्ञानात्मक और भाषाई कौशलों के विकास में बाधा पहुँचाता है। शिक्षक साथियों के साथ बातचीत के दौरान उन्होंने कहा कि जब हम बच्चों का ध्यान भाषा की अर्थपूर्ण प्रक्रिया से दूर व्याकरण की शुद्धता की ओर ले जाते हैं तो सीखने की प्रक्रिया बेसुरी हो जाती है। इस कारण से (भाषा का उपयोग करने वाले) कई बच्चे भाषा सीखने की प्रक्रिया की प्राकृतिक गति, प्रवाह और प्रेरणा कभी हासिल ही नहीं कर पाते हैं। अर्थ सही हो इस पर काम कैसे करें, के प्रश्न के उत्तर में शिक्षकों ने कहा कि भाषा की विभिन्न रीतियों और मानक रूपों की ओर ध्यान आकर्षित करना हमारी कक्षा का एक हिस्सा होता है लेकिन यह शुरुआती रूप से सुनना, बोलना, पढ़ना, लिखना और इस दौरान अर्थ-निर्माण सीखने की प्रक्रिया के दौरान ही हो - यह भ्रम हम नहीं पालते हैं।

भाषाई कला का एकीकरण
इस पर कार्य करने वाले शिक्षकों की कक्षा में भाषाई हुनर सम्पूर्णता के साथ एकीकृत रूप में ठीक उसी तरह समाहित होते हैं जैसे कि वे कक्षा के बाहर पाए जाते हैं। समग्र-भाषा की कक्षा में सुनना, बोलना, पढ़ना, लिखना जैसी भाषाई कलाओं को बच्चे किसी एक दिए गए क्रम में नहीं सीखते वरन् एक-दूसरे के साथ जोड़कर ही सीखते हैं, साथ ही इन भाषाई कलाओं के अन्दर बच्चे विभिन्न रीतियों जैसे मानक व्याकरण, उच्चारण, हस्तलेखन और अभिव्यक्ति को भी प्राकृतिक वातावरण में एक-दूसरे के साथ जोड़ते हुए सीखते जाते हैं।

विषय वस्तु के क्षेत्र
पढ़ने-पढ़ाने की प्रक्रिया में विषय वस्तु के क्षेत्र अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं। इस पद्धति के द्वारा कार्य करने वाले शिक्षकों की कक्षाओं में बच्चे विज्ञान, कला, संगीत, गणित, खेल, पर्यावरण अध्ययन, खाना पकाना, सिलाई आदि ज़िन्दगी के महत्वपूर्ण पक्षों के बारे में सुनने, बोलने, पढ़ने और लिखने की प्रक्रिया में शामिल रहते हैं। शिक्षक इस बात को समझते हैं कि यह प्रक्रिया भाषा सीखने के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण है। इस प्रक्रिया पर यकीन करने वाले सभी शिक्षक यह भी मानते हैं कि विषय-वस्तु से सम्बन्धित बुनियादी अवधारणाओं की विवेचना, ज्ञान के किसी निश्चित क्षेत्र के अन्तर्गत शामिल शब्द-विशेष की व्याख्या के पहले या साथ-साथ होती है। अपनी इस समझ के कारण शिक्षक साथी विषय वस्तु के विभिन्न क्षेत्रों के महत्व को समझते हुए मौखिक एवं लिखित भाषा सीखने-सिखाने के साथ-साथ इस बात को ध्यान में रखते हुए आगे बढ़ते हैं।

कक्षा का वातावरण
कक्षा अपने आप में सीखने को बढ़ावा देने की एक रणनीति है। इस समूह के शिक्षक कक्षा में बच्चों के सीखने की प्रक्रिया को सुगम तरीके से उत्पादकता को बढ़ाते हुए करने की कोशिश करते हैं। कक्षा के केवल वातावरण से नहीं वरन् उसके वास्तविक स्वरूप (दीवारों, बैठक व्यवस्था आदि) से भी बच्चों को यह इंगित करने की कोशिश की जाती है कि यह उनकी अपनी कक्षा है जिसकी देखभाल उन्हें ही करनी है। इस समूह के शिक्षक कक्षा के अन्दर कार्य करने के कुछ नियम भी मिलजुल कर बनाते हैं। इससे कक्षा में रहने वाले बच्चों एवं शिक्षकों को बेहतर तरीके से छोटे समूहों में या व्यक्तिगत रूप से कार्य कर पाने में आसानी होती है। शिक्षक यह भी ध्यान रखते हैं कि बच्चे इस प्रक्रिया में आवश्यकतानुसार अपने अभिभावकों से विद्यालय समय के दौरान मिल सकें।

अभिभावकों की भागीदारी
बच्चों के विचारों एवं भाषा की जड़ उनके घर या समुदाय में होती है। समग्र-भाषा में काम करने वाले शिक्षक इस बिन्दु को अपने कार्य का हिस्सा बनाते हैं। शिक्षक कार्य तो बच्चों के साथ ही करते हैं परन्तु इसके साथ-साथ वे अभिभावकों के साथ भी कार्य करते हैं। इस बात को समझना आवश्यक है कि समग्र-भाषा के शिक्षक इस बात को भी मानते हैं कि बच्चों की समस्याओं का मूल उनके घरों में ही नहीं है। इस कारण से वे भाषा न सीखने के दोषों को बच्चों के अभिभावकों पर नहीं मढ़ते हैं। इसकी जगह सकारात्मक रूप से कार्य करते हुए शिक्षक बच्चों के अभिभावकों को समग्र-भाषा पर कार्य करने हेतु आमंत्रित करते हैं। इस प्रक्रिया में शिक्षक अभिभावकों को बच्चों को कहानी सुनाने, बातें करने आदि गतिविधियों में जुड़ने के लिए कहते हैं।

आकलन
समग्र-भाषा के शिक्षक यह यकीन करते हैं कि आकलन का प्राथमिक उद्देश्य बच्चों को स्वयं के सीखने के बारे में जानकारी देना होता है। इसको करने के बाद शिक्षकों, पाठ्यक्रम बनाने वालों, अभिभावकों और समुदाय को जानकारी देना भी आकलन का उद्देश्य है। जैसे ही हम इसके उलट प्राथमिक उद्देश्यों को समुदाय अथवा अभिभावक को सूचित करना बना देते हैं, बच्चे और अध्यापक छात्रों के प्रयासों को नम्बरों या ग्रेड (दोनों में से कोई एक) में बताने में खोकर रह जाते हैं। जैसे-जैसे नम्बर महत्वपूर्ण होता जाता है बच्चे खोते (अदृश्य हो) जाते हैं। इस समूह के शिक्षक बड़ी सतत्ता के साथ बच्चों की योग्यता और सीखने के सबूतों को स्वीकार करते हैं। इस प्रक्रिया में शिक्षक कई बार बच्चों का स्वयं अवलोकन करते हैं और उन्हें समूह में साथियों के साथ अवलोकन करने और स्व-आकलन करने के मौके भी देते हैं। इस प्रक्रिया को मानने वाले शिक्षक परम्परागत परीक्षण (टेस्टिंग) द्वारा बच्चों की उपलब्धियों की संकीर्ण विचारधारा को तोड़ते हुए प्रतीत होते हैं। साथ ही शिक्षकों को यह भी पता होता है कि इस तरह के प्रयासों से पाठ्य सहगामी क्षेत्रों में बहुत आगे नहीं जा सकते हैं।

इस समूह के शिक्षकों को यह यकीन होने लगा है कि आलोचकों के लिए समग्र-भाषा के आकलन से उपलब्ध जानकारियों को समझना और उसकी सराहना करना अत्यन्त कठिन काम है। फिर भी इस पर काम करने वाले शिक्षकों का अनुरोध व अनुशंसा इस बात के लिए कभी भी बन्द नहीं होती कि बच्चों के लिखित कार्यों का पोर्टफोलियो, बच्चों द्वारा बनाए/इकट्ठा किए चित्र, एनेकडोटल रिकॉर्डस् आदि को लिखित टिप्पणियों के साथ साझा कर नम्बर या ग्रेड की आकलन प्रणाली को बदला जा सकता है।

अन्त में
इस समूह के साथ लगातार चर्चा कर यह बात भी समझ में आती है कि इन शिक्षकों के ज़मीनी कार्यों के कारण सरकारी तंत्र में कोई इन पर सैद्धान्तिक होने का या अपने कार्यों में अनुभवों का उपयोग न करने का आरोप नहीं लगाता है। एक सामान्य समझ के तहत इस समूह के शिक्षकों ने पढ़ना-लिखना सिखाने की प्रक्रिया के अनिवार्य मंत्र को जान लिया है जिसके तहत पढ़ना-लिखना, सीखने-सिखाने के लिए बच्चों को पढ़ने और लिखने के अर्थ-पूर्ण मौके देना और उनके साथ संवाद करने की प्रक्रिया - इस समूह के सभी शिक्षक साथी अपनाते हैं।


सौरभ रॉय: अज़ीम प्रेमजी फाउण्डेशन, देहरादून में कार्यरत।
सभी चित्र: मैत्री डोरे: आर्किटेक्ट और चित्रकार हैं। सामाजिक और पर्यावरण सम्बन्धी चित्र बनाती हैं लेकिन बच्चों के लिए चित्र बनाना भी इन्हें पसन्द है। मुम्बई में रहती हैं।
सन्दर्भ सामग्री:
1. राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा (2005), राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसन्धान एवं प्रशिक्षण परिषद, नई दिल्ली।
2. राष्ट्रीय फोकस समूह का आधार पत्र ‘भारतीय भाषाओं का शिक्षण’ प्रथम संस्करण (2008), राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसन्धान और प्रशिक्षण परिषद, नई दिल्ली।
3. आकलन स्रोत पुस्तिका हिन्दी (2008), राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसन्धान एवं प्रशिक्षण परिषद, नई दिल्ली।
4. बच्चे की भाषा और अध्यापक (2003), कुमार कृष्ण, नेशनल बुक ट्रस्ट, नई दिल्ली।