मार्टिन गार्डनर

लगता है कि अब सपनों के संसार से फ्रायड के विदा होने का समय आ गया है। रेम-नींद की खोज के बाद सपनों को लेकर जो गहन अनुसंधानों का सिलसिला चल पड़ा है उनमें फ्रायड के सपनों के सिद्धातों को लगभग नकारा जा रहा है। हालांकि ये शोध भी सपनों को लेकर कोई बहुत स्पष्ट खुलासा नहीं करते लेकिन यह तो तय है कि सपनों के कोई छुपे अर्थ नहीं होते। इसके साथ ही यह जानने की कोशिश भी है कि हम सपने क्यों देखते हैं। सपनों को लेकर तरह-तरह के मतों और अनुसंधानों पर विस्तृत चर्चा।

माना जा रहा है कि सपने से संबंधित फ्रायड ओर कार्ल जंग के सिद्धांत लगभग पूरी तरह से काल्पनिक अटकलबाजी थे। इनके पीछे कोई प्रयोगसिद्ध आधार न था। प्रयोगशाला में सपनों की तफनीश के काम को 1952 में मुख्य सफलता मिली। यही वह साल था जबकि शिकागो विश्वविद्यालय के मनोविज्ञान के एक स्नातक, इयूजिन आरिरिसकी ने संयोगवश आर.ई.एम. (Rapid Eye Movement) की खोज की। आर.ई.एम. (रेम) यानी सोते समय पुतलियों का तीव्र गति से चलना, जो कि गहन नींद के सपनों का हमसफर है।

आरिरिंसकी ने अपने सोते हुए 10 साल के बच्चे की आंख के पास इलेक्ट्रोड लगाए। और फिर हैत में पड़ गया। मशीन ने ग्राफ पेपर पर काफी घुमावदार चित्र अंकित करने शुरू कर दिए। आरिरिंसकी  और विश्वविद्यालय के निंद्रा अनुसंधान के निदेशक कलेतमैन ने अनुसंधान का काम जारी रखा। इन्होंने पाया कि नॉन-रेम (नींद का वह हिस्सा जिसमें पुललियों नहीं घूमतीं) के अस्पष्ट सपनों के मुकाबले रेम नींद में देखे सपने ज़्यादा जीवंत व स्पष्ट थे। सपनों की अबूझी दुनिया का यह एक महान खोज थी।

जल्द ही स्पष्ट हो गया कि रात भर में रेम नींद टुकड़ों-टुकड़ों में आती है। साधारणत- चार से छ: बार और हर बार और हर बार इसकी अवधि 10 मिनट से एक घण्टे के बीच होती है। ऐसे भी कई लोग हैं जिन्हें लगता है कि सपनों के संसार से उनका कोई वास्ता ही नहीं है। उनका सोचना था कि उन्हें सपने आते ही नहीं हैं और अगर आते भी हैं तो बहुत ही कम। ऐसे लोग भी हैरत में पड़ गए जब रेम नींद से जगाए जाने पर उन्हें सपने साफ-साफ याद रहे।

अध्ययन के दौरान कई नए तथ्य भी सामने आए कि ‘दुस्वप्न’ और नींद में चलना केवल नॉन-रेम नींद के दौरान ही होता है। इसी तरह यह विश्वास कि एक लम्बा स्वप्न केवल कुछ सेकेण्ड ही चल सकता है मिथक साबित हुआ।

इसी के साथ दुनिया भर की प्रयोगशालाओं में ‘रेम नींद’ पर गहन अनुसंधानों का सिलसिला चल निकला। अब तक जांचे-परखे लगभग सभी स्तनपाई जीवों में ‘रेम नींद’ के कालखंड पाए गए। इसमें चमगादड़, छछूंदर और व्हेल शामिल हैं। पर एक विचित्र अपवाद रहा है ऑस्ट्रेलिया का चींटी खाने वाला एक जीव (ant eater)।

पाया गया कि सरीसृप (रेंगने वाले जीव) ‘रेम नींद’ से महरूम रहते हैं परन्तु लगता है पक्षियों में‘रेम नींद’ बहुत ही छोटे-छोटे टुकड़ों में आती है, वह भी तब जब उनका सिर पंखों के नीचे होता है। नींद के इन टुकड़ों की अवधि कुछ सेकेण्ड तक ही सीमित रहती है। कुत्ते और बिल्ली स्पष्ट रूप से ‘रेम नींद’ में सपनों का लुत्फ उठाते हैं। सपने देखती हुई बिल्ली की पलकों को उठाकर उनके आंख के गोलों को तेज़ी से आगे-पीछे होते हुए देखा भी जा सकता है।

यकीनन रेम सपनों का कोई-न-कोई फायदा तो होगा ही, वरना प्रकृति उसको ईजाद करने की ज़हमत क्योंकर गवारा करती। वैसे स्पष्ट रूप से उनका क्या काम है, यह तो अभी भी एक  पहेली बना हुआ है, यह तो अभी भी एक पहेली बना हुआ है। एक युक्तिसंगत दलील यह हो सकती है कि रात के समय जब भोजन खोजना कठिन हो जाता है, स्पनपाई जीव अपने शरीर और दिमाग को आराम फरमाने की मोहलत देते हैं। और फिर सूरज उगने तक यह सिलसिला जारी रहता है। कुछ स्तनपाई तो पूरी सर्दी ही सुषुप्तावस्था में गुज़ार देते हैं। पर इससे भी सपनों की उपयोगिता के बारे में खास कुछ जानकारी नहीं मिलती।

सपने और कम्प्यूटर
दिमाग एक जैविक कम्प्यूटर से अधिक कुछ भी नहीं, कम्प्यूटर क्रांति और कृत्रिम समझ (artificial intelligence) के अनुसंधानकत्र्ताओं के इस मत ने सपनों के बारे में भी कम्प्यूटर जनित परिकल्पनायों की अगुआई की है। 1964 में इस संबंध में एक लेख छपा था, ब्रिाटेन से निकलने वाली पत्रिका ‘न्यू साइंटिस्ट’ में - ‘ड्रीमिंग एन एनॉलॉजी’ फ्रॉम कम्प्यूटर। लेखक थे दो वैज्ञानिक, क्रिस्टोफर रिची इवान्स और एडगर आर्थर न्यूमेन।

इवान्स-न्यूमेन का मानना है कि कम्प्यूटर की तरह दिमाग भी अनुपयोगी जानकारी से बौरा जाता है। जैसे कम्प्यूटर की याददाश्त से गैरज़रूरी कचरे को हटाने के लिए नियमित सफाई की ज़रूरत होती है वैसे ही हमारा दिमाग भी समय-समय पर झाड़-पोंछ मांगता है। नींद एक प्रक्रिया है जिसके ज़रिए हमारा सोता दिमाग सुरक्षित रखने लायक जानकारी को लम्बे समय तक याद रखी जाने वाली स्मृति (long term memory) में डाल देता है। साथ ही ‘कम समय तक याद रखने वाली स्मृति’ से उन सब बातों को मिटा देता है जो तंत्रिकाओं के मार्ग में अडंगा डाल सकती हैं। अब ऐसी बातें याद रखने का मतलब भी क्या है कि कल तो जुराव पहनी भी उसका रंग क्या था; कल दोपहर खाने में क्या खाया था या किसी सामान्य बातचीत के दौरान आपने क्या-क्या कहा था?

ऐसे कचरे को हटाने के लिए जैसे ही विद्युत आवेश दिमाग के चारों ओर तीव्र गति से घूमता है, इसका स्पन्दन पड़ोसी तंत्रिका कोशिकाओं को उत्तेजित कर देता है। क्योंकि पड़ोस की कोई भी कोशिका किसी क्रम में उत्तेजित हो सकती है इसलिए बेतरतीब फैली हुई  यह जानकारी सपने में दिखाई देने लगती है। हमारा अचेतन दिमाग इन बिम्बों को किसी तरह के सुसंगत दृश्यों में ढालने की भरसक कोशिश करता है, पर चूंकि ये बेतरतीबी से फैले रहते हैं, हमारे सपने की कहानी अत्यन्त बेतुकी व अंट-शंट होती है। और इस तरह हर रात हम एक-दो घण्टों के लिए एक तरीके से बावले हो जाते हैं!

फ्रयड’, सेक्स और जंग
फ्रायड का मानना था कि हमारे अचेतन में दबी इच्छाएं सपनों में भरी छद्मवेश में व्यक्त होती हैं। ज़्यादातर इच्छाएं यौन संबंधी होती हैं और उसका संबंध बचपन में घटी किसी घटना से होता है। फ्रायड का मानना था कि अगर ये इच्छाएं इस तरह से भेष बदलकर न आएं तो हमारी नैतिकता को ऐसा झटका लगेगा कि हम जाग उठेंगे।

कार्ल जंग इन बातों को महत्व न देते हुए मानते हैं कि फ्रायड दबी यौन इच्छाओं को कुछ ज़्यादा ही वज़न देते हैं। उनके मतानुसार सपने आदिरूप का प्रतिबिम्ब होते हैं, यानी हमारे विकासात्मक भूतकाल से विरासत में मिली यादों का प्रतिबिम्ब। मसलन उड़ने और गिरने के सपने हमारे पुरखों की उस समय की यादें हैं जब वे एक से दूसरे पेड़ पर कूदते हुए कभी-कभी ज़मीन पर गिर पड़ते थे। उनके मुताबिक पीछा किए जाने वाले डरावने सपने उस समय को प्रदर्शित करते हैं जब खूंखार जानवरों के डर से हमारे पूर्वज भाग खड़े होते थे।

जंग मानते हैं कि सपने अपने में बहुत कुछ छिपाए नहीं रखते, बल्कि वे तो मानवजाति के ‘सम्मिलित अचेतन’ में दबी पुरातन यादों को प्रदर्शित करते हैं।

लेकिन इवान्स और न्यूमेन के लिए न तो जंग और न ही फ्रायड के सिद्धांत कोई मतलब रखते हैं। उनका मानना है कि सपने लाज़िमी तौर पर अनाप-शनाप ही होते हैं। हालांकि आशाओं व आशंकाओं का इन पर गहरा असर होता है। इसके अलावा रात के समय की घटनाएं व परिस्थितियां जैसे आवाज़ें, गंध, तापमान, शारीरिक कष्ट आदि भी सपनों को काफी प्रभावित करते हैं। हमारा दिमाग बारिश की छपछप, घूम रहे पंखे या चलते छोड़ दिए गए टी.वी. की आवाज़ जैसी जानी-पहचानी आवाज़ों को तो फिल्टर कर देता है पर अचानक पैदा हुई आवाज़ें जैसे बच्चे का रोना, बिजली की कड़क या टेलीफोन की घनघनाहट या तो हमें जगा देती है या फिर हमारे सपने में शामिल हो जाती है। अगर प्यास लगी है तो हम गटागट पानी पीने का सपना देख सकते हैं, भूख लगी है तो हो सकता है सपने में हम मालपूए डकार रहे हों। अगर पेशाब करने की ज़रूरत महसूस हो तो हमें पेशाब करने का सपना आ सकता है। इतना ही नहीं अगर सोते हुए हमारे चेहरे पर पानी के छींटे डाल दिए जाएं तो हो सकता है सपने में हम फव्वारे के नीचे नहाने लगें।

जैसे किसी काम में उलझे हुए कम्प्यूटर से गैरज़रूरी जानकारी को हटाना मुश्किल होता है खासतौर पर उस समय जब वह किसी समस्या को सुलझाने में व्यस्त हो, उसी तरह जागृत अवस्था में दिमाग की झाड़-पोंछ की कोशिश हमें पगला सकती है। क्योंकि उस समय हम विभिन्न इंद्रियों से लगातार आ रही नई जानकारी की प्रोसेसिंग में अत्यंत मशगूल होते हैं। इवान्स और न्यूमेन मानते हैं कि ऐसा नहीं है कि सपने स्मृतियों के लिए ज़्यादा जगह बना देते हैं बल्कि वे तो बीच का रास्ता साफ कर सार्थक स्मृतियों के लिए ज़्यादा जगह बना देते हैं बल्कि वे तो बीच का रास्त साफ कर सार्थक स्मृतियों तक पहुंच को सुगम और ज़्यादा बना देते हैं।

अनावश्यक जानकारी को अगर कम्प्यूटर से लगातार हटाया न जाए तो उसकी गति और क्षमता कम हो जाती है। उसी तरह ‘रेम-सपनों’ से वंचित व्यक्ति का व्यवहार असामान्य हो जाता है और वह मानसिक पीड़ा का शिकार हो जाता है - जब तक कि उसे फिर से सपनों का संसार नसीब नहीं होता। फ्रायड के अनुसार सपने नींद को सहेजकर रखते हैं, पर यहां तो स्थिति इसके बिल्कुल उलट है। हम सपने देखने के लिए ही सोते हैं।

बच्चे और बड़ा सपनों का संसार
1980 के शुरुआती दौर में जीवविज्ञानी फ्रांसिस क्रिक। और गणितज्ञ ग्रेम मिचीसन ने सपनों को लेकर एक परिकल्पना सामने रखी। यह भी कुछ हद तक इवान्स और न्यूमैन के विचारों से मिलती-जुलती थी। उनका कहना था कि दिमाग की करोड़ों तंत्रिकाएं बेहद जटिल जाल जैसे आपस में गुथी रहती हैं। कहना न होगा कि शायद यह बह्रांड की सबसे पेचीदा रचना है।

उनका कहना था कि गैरज़रूरी स्मृतियों की बजाए, दिमाग का बाहरी सलदार हिस्सा (नियो-कोरटेक्स) आकस्मिक व अनावश्यक तंत्रकीय संयोजनों से अवरूद्ध हो जाता है। जब सामान्य स्मृतियों को यहां संजोया जाता है तो वह क्रिया इस तरह के अनावश्यक संयोजनों को बढ़ावा देती है। उनके मुताबिक रेम-नींद ऐसे आकस्मिक संयोजनों को कम करती है और इस तरह अनावश्यक स्मृतियों को मिटा भी देती है। ज़ाहिर है ऐसा बेतरतीब तरीका बेतुके निरर्थक दृश्यों को गढ़ता है।

इन्होंने पाया कि बड़ों की तुलना में छोटे बच्चे लगभग दुगनी ‘रेम-नींद’ लेते हैं। यहां तक कि बच्चेदानी में भी उनमें ‘रेम’ दिखाई देती है। अगर वे सचमुच सपने देखते हैं, तो ये तथ्य फ्रायड के सिद्धांत के विपरीत जाते दिखते हैं। क्रिक और मिचीसन मानते हैं कि बच्चे अपने दिमाग को अनचाहे तंत्रकीय संयोजनों से आज़ाद रखने की गरज़ से सपने देखते हैं। वरना ये संयोजन स्मृतियां बनाने की दक्षता में हस्तक्षेप कर सकते हैं। इस परिकल्पना में चींटी खाने वाले एंटईटर में ‘रेम-नींद’ की गैरहाज़री को यह कहकर समझाया गया है कि उसके दिमाग में बाहरी सलदार हिस्सा यानी नियो-कोरटेक्स बहुत बड़ा होता है इसलिए इन तंत्रिका संयोजनों से उसे कुछ खास फर्क नहीं पड़ता।

फ्रायड प्रेमी सपनों को याद करना और उसके विश्लेषण को लाभदायक मानते हैं जबकि क्रिक और मिचीसन के अनुसार “हम भूल जाने के लिए ही सपने देखते है”। सपनों को फिर से याद करने की कोशिश नुकसान पहुंचा सकती है। “सपनों को याद रखे रहने की चेष्टा को शायद बढ़ावा नहीं देना चाहिए, क्योंकि ऐसी कोशिश उन विचारों को भूलने नहीं देगी जिनको दिमाग भूलने की कोशिश कर रहा है।”

द ड्रीमिंग ब्रोन
पिछले कुछ वर्षों में सपनों को लेकर कई अनुमान और अटकलबाज़ियां चलती रही हैं। पर इस विषय में सबसे बेहतरीन और प्रभावी किताब रही है ‘द ड्रीमिंग ब्रोन’। लेखक हैं मनोविज्ञान के प्रोफेसर - जे.एलन. होबसन। उनके विचार भी फ्रायड के विचारों के खिलाफ जाते हैं।

उपरोक्त दो दो सिद्धांतो से इत्तेफाक रखते हुए होबसन मानते हैं कि सपनों की कोई ‘दबी-छुपी विषय वस्तु’ नहीं होती। होबसन के लिए ये ‘पारदर्शी’ हैं। निरर्थक स्मृतियों को मिटाने या अनावश्यक तंत्रकीय संयोजनों को निरुत्साहित करने के बजाए, हमारा दिमाग सोते समय विद्युत ऊर्जा का इस्तेमाल केवल तंत्रिकाओं को बेतरतीब तरीके से उत्तेजित करने में करता है। ज़ाहिर तौर पर ऐसा करते समय उसकी कल्पनाएं हाल ही में घटी घटनाओं से प्रभावित होती हैं। मनोवैज्ञानिक उन्हें दिन के ‘अवशेष’ (Day residue) इसके अलावा ये छवियां पुरानी यादों, सोने वाली जगह की स्थिति, शरीर की अवस्था, तीव्र आशाओं व डर आदि से भी प्रभावित होती हैं।

चूंकि सपने अचेतन इच्छाओं को छिपाते नहीं हैं इसलिए न तो सपनों के अन्दर झांका जा सकता है और न ही सपनों का मतलब खोजा जा सकता है। सपने सिर्फ वही हैं जो दिखते हैं। रेल या बस छूटने का सपना हमारी ज़िन्दगी से हुई किसी ऐसी ही घटना की ओर इंगित करता है। सपनों में अपने किसी दोस्त या रिश्तेदार से मिलना उस व्यक्ति के लिए हमारा प्रेम दर्शाता है। सपनों में हमारी किसी से झड़प इसलिए होती है क्योंकि हम उसे नापसंद करते हैं या डरते हैं। अगर आप अक्सर कल्पना करते हैं कि खुली हवा में उड़ना कितना रोमांचक और सुखकर होगा तो आप अपनी यह इच्छा सपने में पूरी होती पाएंगे। शायद पानी में तैरना, कूदना, स्केटिंग, फिसलन आदि जैसी स्मृतियां इसे और मजबूती देती हैं।

फ्रायड के अनुसार सपने की सिगरेट शायद एक सिगरेट से ज़्यादा कुछ नहीं और हाबसन सपने की सिगरेट को हर हाल में सिगरेट ही मानते हैं। एक बार मुझे एक बहुत ही स्पष्ट सपना आया जिसमें मैंने अपने आप को एक अजीब से कमरे में बैठा पाया। मेरे पास ही ऐश ट्रे पर एक जलता सिगार रखा था। यह जानते हुए कि मैं सपना देख रहा हूं मैंने एक प्रयोग करने की सोची। मैं जानना चाहता था कि सपने की छवियों को बारीकी से देख पाने के साथ-साथ क्या मेरे सपनों में गंध भी शामिल है? उस समय मैं दीवार पर बना हुआ पेचीदा डिज़ाइन देख पा रहा था। सिगार को उठाकर मैं उसे नाक के करीब ले आया। नतीजन जलते तंबाकू की इतनी तेज़ गंध आई कि मेरी नींद उचट गई। मेरे सपनों का सिगार केवल एक सिगार ही था।

हॉबसन एक जीवन्त सपने को याद करते हैं जिसमें बोस्टन के फाईन आर्टस के अजायबघर में घूमते हुए उन्होंने मोज़ार्ट (प्रसिद्ध संगीतज्ञ) को पियानों बजाते देखा और सुना।

उन्होंने ध्यान दिया की मोज़ार्ट कुछ मोटे हो गए हैं। फ्रायड को मानने वाला इसका मतलब कुछ यूं निकाल सकता है कि सपने का मोज़ार्ट उसके पिता की प्रतिमूर्ति था और उनका मोटा होना हॉबसन की इस अचेतन को दर्शाता है कि वह अपने पिता को मारकर अपनी मां को केवल अपने तक रखना चाहता है। हॉबसन के मुताबिक मोज़ार्ट द्वारा बजाया जा रहा संगीत काफी जाना पहचाना था1 अक्सर गाड़ी चलाते समय वे मोज़ार्ट को सुनते थे और बोस्टन के इस अजायबघर में अक्सर उनका आना जाना होता था। और उनका अपना पेट बढ़ने लगा था। यानी सपना कोई छिपा हुआ मतलब लिए नहीं था। जैसा हॉबसन कहते हैं ‘मोज़ार्ट, मोज़ार्ट है’।

हालांकि हम अपनी ज़िदगी का एक तिहाई हिस्सा अचेतन अवस्था में गुज़ार देते हैं, पर यह क्यों ज़रूरी है - अभी तक साफ नहीं है। यह तो हम जानते हैं कि नींद शरीर तरोताज़ा कर देती है। परन्तु इस धारणा को खारिज़ करना पड़ेगा कि नींद के दौरान हम अपनी तंत्रिकाओं को ‘आराम’ देते हैं, क्योंकि पाया गया है कि तंत्रिकाएं नींद में भी उतनी ही सक्रिय रहती है जितनी जागृत अवस्था में। उनका मानना है कि तंत्रिकाओं को आराम देने वाली परिकल्पना फिर से जीवित की जा सकती है अगर हम यह मान लें कि ‘रेम-नींद’ के दौरान थकी हुई तंत्रिकाएं कम उत्तेजित होती हैं।

चूंकि ज़्यादातर सपने मनोरंजक व सुखकर होते हैं, हाबसन यह भी अनुमान लगाते हैं कि हो सकता है कि विकास के दौरान सपने कुछ हद तक मनोरंजन के लिए विकसित हुए हों। अधिकतर सपने एक फंतासी कहानी को पढ़ने या ऐसा ही कोई नाटक या फिल्म देखने जैसे मज़ेदार होते हैं।

इन तीनों सिद्धांतों में सपनों की उल-जलूल प्रकृति की व्याख्या, तंत्रिकाओं की बेतरतीब उत्तेजना और अनाप-शनाप दृश्यों को जोड़कर दिमाग द्वारा एक संभव-सा दृश्य बना पाने के प्रयासों के आधार पर की गई है। यहां उन सपनों का ज्रिक नहीं किया जा रहा है, जिनमें यह जानते हुए भी कि हम सो रहे हैं, हम अपनी मर्ज़ी के मुताबिक सपनों को नियंत्रित कर सकते हैं।

अब जबकि फ्रायड के स्वप्न सिद्धांत एक बुरे सपने की तरह हवा हो रहे हैं, आखिर ‘स्वप्न सिद्धांत’ की स्थिति अब है क्या? हालांकि इस बारे में बहुत सारी खोजबीन चल रही है, और एक दूसरे की खिलाफत करती हुई कई परिकल्पनाएं सुझाई जा रही हैं, पर हम कैसे और क्यों सपने देखते हैं अभी तक एक गहन रहस्य बना हुआ है। ताज्जुब है कि आज लगाए जा रहे ये सब अनुमान प्लेटो और अरस्तु के चिन्तन से बहुत फर्क नहीं रखते।


मार्टिन गार्डनर - गणित व तर्क से जुड़ी पहेलियां लिखने के लिए विश्वविख्यात। अमेरिका से प्रकाशित पत्रिका ‘साइंटिफिक अमेरिकन’ में लगातार कई सालों तक गणित की पहेलियों को लेकर नियमित कॉलम लिखा। उन्होंने कई किताबें भी लिखी हैं। मार्टिन ‘सोसायटी फॉर पेरानॉरमल’ के सक्रिय सदस्य है।

1914 में जन्में मार्टिन गार्डनर ने दर्शन शास्त्र में पढ़ाई की। दूसरे विश्वयुद्ध के पहले कुछ सालों तक पत्रकार के रूप में काम किया। बाद में वे अमेरिका की जलसेना से भी जुड़े। 1957 के बाद से वे स्वतंत्र रूप से लिख रहे हैं।

*यह लेख अमरीका से प्रकाशित पत्रिका स्केप्टिकल इनक्वायरर से लिया गया है।

अनुवाद : शशि सवलोक
चित्र : उमेश गौर