शशि सक्सेना और प्रमोदय उपाध्याय

चारों तरफ कितना शोर मचता है खग्रास सूर्य ग्रहण के पहले, लेकिन फिर अगले पूर्ण सूर्य ग्रहण तक एक चुप्पी छाई रहती है। सूर्य ग्रहण के दौरान कई  छोटे-बड़े प्रयोग किए जाते हैं लेकिन इनके बारे में पढ़ने के लिए शायद ही कुछ मिल पाता है। यहां पेश है दिल्ली के एक समूह द्वारा ग्रहण के दौरान हवा के तापमान और सूरज की रोशनी को लेकर किए गए अवलोकन और आंकड़े।

सूर्य ग्रहण और चन्द्र ग्रहण उन खगोलीय घटनाओं में से हैं जो आम लोगों और खगोल शास्त्रितयों, दोनों ही को एक जितना आकर्षित करती हैं। पिछले साल 24 अक्टूबर 1995 को हुआ सूर्य ग्रहण भी इसमें कोई अपवाद नहीं था। खास तौर पर, इस बार तो संचार माध्यमों, पत्र-पत्रिकाओं और सरकारी व गैर सरकारी संस्थानों के प्रचार की बदौलत सूर्य ग्रहण और उससे जुड़े शब्द कुछ समय के लिए तो ज़्यादातर लोगों की ज़िंदतियों का हिस्सा बन गए थे।

इस बार पूर्ण सूर्य ग्रहण, जिसे खग्रास ग्रहण भी कहते हैं, उत्तर भारत से गुज़रती हुई एक पतली-सी पट्टी से दिखाई दिया। इन इलाकों में रहने वालों के अलावा दूर-दराज़ से आए ढेरों लोगों ने इस पट्टी में आकर पूर्ण सूर्य ग्रहण का नज़ारा देखा। चंद लम्हों के दौरान आंशिक ग्रहण से पूर्ण ग्रहर और फिर सामान्य में लौटने की घटना देखने का अनुभव बेहद रोमांचक और अविस्मरणीय होता है। उसके बारे में कितना भी पढ़ लो, पर उस क्षणिक नज़ारे की खूबसूरती अपनी आंखों से देखने से ही समझ में आती है। भर सुबह का सियाह हो जाना, तापमान के अचानक गिरने से सिरहन का अहसास, किताबों में पढ़े मोतियों का झट से दिखकर ओझल हो जाना, बेहद खूबसूरत डायमंड रिंग, करोना ...... अब भी वो सब अविश्वसनीय-सा लगता है।

आइए एक बार फिर उस घटना की याद ताज़ा कर लें, लेकिन थोड़े वैज्ञानिक तरीके से!

खग्रास ग्रहण की पट्टी मध्यप्रदेश के ऊपरी हिस्से से भी गुज़रने वाली थी। ग्वालियर से लगभग 100 किलोमीटर की दूरी पर स्थित भिंड भी पूर्ण सूर्य ग्रहण की इस पट्टी में आ रहा था। बीस लोगों का हमारा लश्कर साजो-सामान समेत ग्रहण देखने और कुछ प्रयोग करने दिल्ली से वहां पहुंचा। ग्रहण के समय हमने भिंड में हवा के तापमान और सूर्य की रोशनी की तीव्रता में बदलाव नापे। इस लेख में यही देखेंगे कि यह सब कैसे किया हमने और क्या नतीजे सामने आए।

तालिका: 1

भिंड में 24 अक्टूबर 1995 को सूर्य ग्रहण की विविध स्थितियां और समय
हवा के तापमान में बदलाव
सबसे पहले देखें कि हमने हवा का तापमान कैसे नापा और इसके लिए हमें किन-किन बातों का विशेष ध्यान रखना पड़ा।

हम सभी पारे के थर्मामीटर से परिचित हैं। ये थर्मामीटर पारे के इस गुणधर्म के आधार पर काम करता है कि पारा अधिकांश अन्य पदार्थो की तरह गर्म होने पर फैलता है और ठंडा होने पर सिकुड़ता है। जब हम थर्मामीटर को गर्म पानी में डालते हैं तो उसका पारा पानी से गर्मी (ऊर्जा) लेकर फैलता है और इसलिए ऊपर चढ़ता हुआ दिखता है। पारे का फैलना तब तक जारी रहता है जब तक पारे का तापमान पानी के तापमान के बराबर न हो जाए। ऐसी स्थिति पहुंचने पर थर्मामीटर पर बने पैमाने पर यही तापमान पढ़ लिया जाता है। यानी थर्मामीटर को खुद से ज़्यादा गर्म वस्तु का तापमान बताने के लिए अपना तापमान बढ़ाना पड़ता है जिसके लिए उसे ऊर्जा चाहिए, जो उसे उसी वस्तु से मिलती है जिसका तापमान लिया जा रहा है। ठीक इसका उल्टा होता है जब ठंडी चीज़   का तापमान नापते समय पारा अपना तापमान उस वस्तु को देकर खुद को सिकोड़ता है। इससे यह समझ में आता है कि जिस थर्मामीटर को अपना तापमान बढ़ाने या घटाने के लिए जितनी कम ऊर्जा चाहिए या देनी पड़ेगी वह उतना ही बेहतर थर्मामीटर होगा। इसी के एक और बात निकलती है कि थर्मामीटर कितनी तेज़ी से अपना तापमान बदल सकता है, यह दो बातों पर निर्भर करता है:

  1. नापने वाले उपकरण और जिस वस्तु का तापमान नाप रहे हैं, दोनों के तापमान में कितना अंतर है। जब ये अंतर ज़्यादा होता है तो थर्मामीटर तेज़ी से अपना तापमान बदल लेता है (यानी पारा जल्दी से फैलता या सिकुड़ता है)। लेकिन यह अंतर कम हो तो थर्मामीटर तापमान दिखाने में ज़्यादा समय लेगा। आपने खुद भी देखा होगा कि बुखार तेज़ हो तो थर्मामीटर का पारा झट से चढ़ जाता है, और यदि बुखार कम हो तो थर्मामीटर का पारा धीरे-धीरे ही चढ़ता है।
  2. दूसरा कारक है थर्मामीटर की प्रकृति - यानी कोई थर्मामीटर तापमान के किसी एक अंतर पर अपना तापमान एक डिग्री सेल्सियस बढ़ाने या घटाने के लिए एक मिनट लगाता है तो दूसरा पांच सेकंड में ही ऐसा कर सकता है। आमतौर पर इस्तेमाल होने वाले पारे के थर्मामीटर में दो या तीन डिग्री के तापमान के अंतर पर अपना तापमान बदलने में एक मिनट के आसपास समय लगता है। हमें मालूम था कि पूर्ण सूर्य ग्रहण सिर्फ एक मिनट ही रहने वाला है इसलिए अगर ऐसा थर्मामीटर इस्तेमाल करते तो पूर्ण सूर्य ग्रहण के समय के तापमान में बदलाव नापना संभव न होता क्योंकि अभी पारे का तापमान बदल भी न पाता कि पूर्ण सूर्य ग्रहण खत्म हो चुका होता।

इन दोनों बातों को ध्यान में रखकर हमने हवा का तापमान नापने के लिए एक इलेक्ट्रॉनिक सेंसर का इस्तेमाल किया, जिसे अपना तापमान बदलने के लिए बहुत कम ऊर्जा और समय चाहिए। ये सेंसर एक इंटीग्रेटड सर्किट (आई.सी.) है। जिसका नंबर ए.डी. - 590 है। इस सेंसर को एक सर्किट के साथ लगा कर कम्प्युटर से जोड़ दिया गया। इससे हर सेकंड के अंतराल पर तापमान रिकॉर्ड किया जा सका।

इन्हीं में से जुड़े आंकड़े तालिका-2 में दिए गए हैं।

इन आंकड़ों को देखने पर कुछ दिलचस्प बातें सामने आती हैं:

  1. जैसे-जैसे ग्रहण पूर्णता की ओर बढ़ता गया, तापमान गिरता गया और पूर्ण ग्रहण समाप्त होते ही फिर से बढ़ने लगा। तापमान में कुल गिरावट 7 डिग्री सेल्सियस की हुई।
  2. पूर्ण सूर्य ग्रहण से 5 मिनट पहले से पूर्ण ग्रहण होने तक (8#30#00 से 8: 35:19 तक) तापमान में एकदम से 3 डिग्री सेल्सियस की गिरावट आई और इसी तरह पूर्ण समाप्त हाने के बाद सिर्फ 5 मिनट में (8:36:18 से 8:40:00 तक) तापमान फिर से 3 डिग्री सेल्सियस बढ़ गया।
  3. गाफ-2 में हर बिन्दु बताता है कि किस समय उस हवा का तापमान कितना था जहां पर वह सेंसर रखा हुआ था। पर हम किसी एक समय पर (उदाहरण के लिए 8:28:28’:28” पर) तापमान पढ़ना चाहें तो पाएंगे कि बहुत से बिन्दु उस समय का तापमान दर्शा रहे हैं यानी तापमान 19 डिग्री से 21 डिग्री सेल्सियस तक कुछ भी पढ़ा जा सकता है। यह छितराव किसी गड़बड़ी की वजह से नहीं है। इसका कारण यह है कि हम हवा का तापमान नाप रहे हैं और हवा स्थिर नहीं है। इसलिए जिस जगह पर हमारा सेंसर लगा है वहां बड़ी तेज़ी से हवा का सेम्पल बदल रहा है इसी कारण तापमान भी। और हमारा संवेदनशील सेंसर इस बदलाव को झट से परख लेता है।

तालिका-2: ग्रहण के दौरान हवा के तापमान में दिखने वाले परिवर्तन

ग्राफ
ग्राफ 1 और 2 : एक इलेक्ट्रॉनिक सेंसर का इस्तेमाल करके हवा का तापमान नापा गया। इस सेंसर को एक सर्किट की मदद से कम्प्युटर से जोड़ा गया जिससे हर सेकेंड का तापमान दर्ज होने लगा

ग्राफ 3 और 4: रोशनी की तीव्रता नापने के लिए फोटो डायोड को कम्प्युटर के साथ जोड़ दिया गया। इससे हर सेकेंड पर रोशनी की तीव्रता का पता चल सकता था।

सूर्य की रोशनी में बदलाव:
ग्रहण के समय रोशनी की तीव्रता में बदलाव रिकॉर्ड के लिए हमने एक ‘फोटो डायोड’ चुना। इसे एक सर्किट में लगाया जिससे यह रोशनी में 1,00,000वें हिस्से तक के परिवर्तन को नाप सके। इसे कम्प्युटर के साथ जोड़कर हर सेकंड पर रोशनी की तीव्रता रिकॉर्ड की गई।

गणना करने और ग्राफ बनाने के लिए ग्रहण खत्म होने के बाद 10:10:00 बजे रोशनी की तीव्रता को ‘दस’ मान लिया गया। इसे आधार मानकर समय के विभिन् न बिन्दुओं पर आपेक्षिक तीव्रता की गणना की गई। ग्राफ-3 और ग्राफ-4 में समय के साथ रोशनी की तीव्रता का बदलाव दिखाया गया है। इन्हीं में से कुछ आंकड़े तालिका-3 में दिए गए हैं।

इन दोनों ग्राफ और नीचे दी गई तालिका से स्पष्ट है कि:

  1. आंशिक ग्रहण के समय प्रकाश में बदलाव बहुत कम हुआ।
  2. पूर्णता के मात्र 10 मिनट पहले प्रकाश की तीव्रता में महत्वपूर्ण बदलाव शुरू हुआ। आंशिक ग्रहण शुरू होने और पूर्णता से 10 मिनट पहले तक (लगभग 55 मिनट में) प्रकाश की तीव्रता 100वां हिस्सा रह गई। लेकिन पूर्णता के 10 मिनट पहले से पूर्णता तक (यानी 10 मिनट में) प्रकाश की तीव्रता उसका भी 1000वां हिस्सा रह गई। बिल्कुल ऐसे ही पूर्णता समाप्त होने के 10 मिनट बाद प्रकाश की तीव्रता 1000 गुना बढ़ गई।

तालिका:
तस्वीर: 
अंत में यह मज़ेदार तस्वीर। आइए देखें इसे किस तरह से लिया गया है। अगर कैमरे से एक के बाद दूसरी तस्वरी खींचनी हो तो रील आगे बढ़ानी पड़ती है। प्राय: कैमरों में ऐसी व्यवस्था होती है कि जब तक रील आगे न बढ़ा दी जाए अगली तस्वीर खींची ही नहीं जा सकती। लेकिन अधिकांश पुराने कैमरों में ऐसी व्यवस्था नहीं होती थी, जिससे अगर रील बढ़ाना भूल जाएं तो रील के पिछले फ्रेम पर ही दूसरी तस्वीर खिंच जाती थी और अगली-पिछली दोनों फोटो बरबाद हो जाती थीं।

दिलचस्प बात यह है कि ऊपर दिखाई गई तस्वीर ऐसे ही कैमरे से ली गई है जिससे रील को आगे बढ़ाए बिना एक ही फ्रेम पर बार-बार फोटो खींच पाना संभव था। यहां गड़बड़ नहीं हुई बल्कि कैमरे की इसी खूबी के कारण एक ही फ्रेम पर ग्रहण ही विभिन्न स्थितियों की फोटो खींची जा सकीं।

एक पर अनेक:
कैमरे को कुछ इस तरह से जमाया गया कि सूर्य की छवि पहले फिल्म के एक कोने पर बनी (बिन्दु ‘क’)। रोल को आगे बढ़ाए बिना थोड़ी-थोड़ी देर बाद फोटो खिंचते गए, अगली छवि थोड़ी आगे बनी  (बिन्दु ‘ख’)। इस तरह से एक ही फिल्म पर सूर्यग्रहण की विभिन्न स्थितियों के फोटो की एक श्रृंखला बन जाती है। रेखाचित्र के बार्इं ओर दिया गया फोटो सन् 1980 के पूर्ण सूर्य ग्रहण का है। यह फोटो भी इसी तरह से लिया गया है। सबसे ऊपर दिया गया फोटो भिण्ड में 24 अक्टूबर 1995 को एक साधारण कैमरे से लिया गया है।

इसके लिए सूर्य ग्रहण से पहले कैमरे के लैंस पर एक फिल्टर (कैमरे की इस्तेमाल की हुई रील) चढ़ा दिया गया। फिर कैमरे के लैंस को कुछ इस तरह फोकस किया कि सूर्य की छवि फिल्म के एक कोने में बने (चित्र में दिखाया गया ‘क’ बिन्दु)। अब कैमरे को हिलाए बिना और रील को आगे बढ़ाए बिना हर पांच मिनट बाद फोटो लेते गए। अगली छवि ‘ख’ बिन्दु पर बनी और हर अगली छवि थोड़ी-थोड़ी दूरी पर बनती गई। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि पृथ्वी लगातार घूम रही है और इसलिए सूर्य की तुलना में पृथ्वी की स्थिति लगातार बदल रही है। इस तस्वीर  से यह आभास मिलता है कि सूर्य की तुलना में इन दो घंटों के दौरान ये स्थिति कैसे बदल रही है। बीचों-बीच का हिस्सा जहां कुछ नहीं दिख रहा, पूर्ण सूर्य ग्रहण दर्शा रहा है।


शशि सक्सेना - दीनदयाल उपाध्याय कॉलेज में रसायन शास्त्र पढ़ाती हैं।
प्रमोद उपाध्याय - राष्ट्रीय प्रतिरक्षा संस्थान में शोध करते हैं।