सवाल:
लोग कहते हैं कि धरती घूमती है, लेकिन हमें महसूस क्यों नहीं होता कि वह घूमती है?

जबाव: जिस तरह लोग कहते हैं कि अपनी धुरी के इर्द-गिर्द पृथ्वी घूमती है उसी तरह लोग यह भी कहते हैं कि पृथ्वी सूर्य का चक्कर लगा रही है, और हर सेकेण्ड में अंतरिक्ष में करीब एक लाख फीट आगे बढ़ती है यानी करीब 31 किलोमीटर प्रति सेकेण्ड।

तुम्हें शायद मालूम होगा कि होशंगाबाद से इटारसी बीस किलोमीटर दूर है। बस से जाओ तो आधा घंटा लगता है। और बस में बैठे हुए तुम महसूस करते हो कि न कि पवारखेड़ा आया, अब  तवाबांध की नहर निकली और इटारसी आने वाला है। लेकिन यहां तो तूफानी गति की बार हो रही है -

31 किलोमीटर प्रति सेकेण्ड। लोग कहेंगे कि वाह! इतनी तेज़ उड़ रहे हैं और मालूम ही नहीं पड़ रहा, और जब मालूम ही नहीं पड़ रहा तो कैसे मानें?

वैसे देखें तो कुल मिलाकर जबाव इसी ‘मालूम कैसे पड़ता है’ यानी कि ‘गति का अहसास क्या है’ में छुपा हुआ है।

मेरी मूर्खता का किस्सा
मेरी मूर्खता का किस्सा सुनाता हूं। हुआ यह कि रेलगाड़ी में बैठकर होशंगाबाद से भोपाल में था ही। यूं ही एक आदमी से पूछ बैठा - भाईसाहब गाड़ी चल रही है। मैंने फिर पूछा आप बताओ तो ज़रा कि कैसे पता चल रहा है कि गाड़ी चल रही है। जवाब आया कि पेड़ पीछे रहे हैं, पहाड़ पीछे जा रहे हैं; ये देखो हमने गडरिया नाले पर बना पुल पार किया, वो देखों भैंस चराने वाला आदमी हमारे डिब्बे के पीछे छूट गया और तुम मुर्ख रहे हो कि गाड़ी चल रही है क्या?

मैंने कहा कि ये सब तो ठीक है लेकिन मान लो - अगर ये पेड़, ज़मीन, पुल होते ही नहीं या इनको भूल जाओ तो डिब्बे के अंदर बैठे कैसे पता चलेगा कि गाड़ी चल रही है। खैर, उसने मुझे सिरफिरा कहकर टाल दिया।

गेंद कहां गिरेगी
अगर हाथ में गेंद हो तो उसे हवा में उछालने और ज़मीन पर टिप्पा दिलाने का मज़ा तो खूब लिया होगा, है न! वैसे ये भी गौर किया होगा कि अगर हम गेंद ठीक ऊपर की तरफ उछालें और वहीं खड़े रहे तो गेंद उछालने के बाद हम उस बिन्दु से थोड़ा आगे या पीछे की ओर बढ़ जाएं तो क्या गेंद अब भी हमारे पास आएगी? नहीं आएगी। गेंद तो उस पहले वाले बिन्दु के पास ही गिरेगी।

लेकिन यहां क्यों नहीं हुआ ऐसा
जब गाड़ी स्टेशन पर खड़ी थी तो सीट पर बैठे हुए एक आदमी ने गेंद हवा में उछाली। गेंद वापस लौटकर उसके हाथ में गिरी। उसने कई बार इसे दोहराकर देखा।
लेकिन अब तो गाड़ी चल रही है - फिर से उसने सीट पर बैठे हुए गेंद को हवा में उछाला। इस स्थिति में भी गेंद उसके हाथ में ही आकर गिरती है।

अब सवाल उठता है कि ज़मीन पर हवा में गेंद उछालने के बाद जब हम उस बिन्दु से आगे या पीछे खिसके तब तो गेंद पहले वाले बिन्दु पर ही गिरी, हमारे हाथ में नहीं आई। परन्तु डिब्बे के अंदर जब गेंद हवा में उछाली और वह वापस लौटकर बढ़ी। तो गेंद को तो उस पहले वाले बिन्दु पर ही गिरना चाहिए था, हमारे हाथ में वापस नहीं आना चाहिए था। लेकिन ऐसा क्यों नहीं हुआ?

बात यह है कि डिब्बा जब गतिशील है तो उसके अंदर की हवा भी उसी गति से चल रही है। इसलिए जब गेंद हवा में उछाली तो वह भी उसकी गति करती हवा में है जो डिब्बे के साथ है; और आप जिस तरह डिब्बे में बैठे-बैठे कैसे बताओगे कि डिब्बा गति कर रहा है। प्रयोग का परिणाम तो रुकी हुई गाड़ी में भी वैसा ही था जैसा चलती हुई गाड़ी में था - यानी दोनों बार गेंद हाथ में ही गिरी।

चलती गाड़ी में भी सीट वहीं है जहां रुकी गाड़ी हुई गाड़ी में थी। चलते डिब्बे में लोग जिस तरह इधर-उधर आ-जा रहे हैं वैसा ही वे रुके हुए डिब्बे में भी कर रहे थे। अगर खिड़कियां बंद कर दी जाएं और गाड़ी हिलने से लगने वाले दचकों को थोड़ी देर के लिए रही गाड़ी में बैठे हुए यह कैसे बताओगे कि डिब्बा चल रहा है।

तकरीबन असंभव बात है! डिब्बा चल रहा है इसे बताने के लिए बाहर देखना ही पड़ेगा, खेत पीछे जा रहे हैं, पहाड़ पीछे जा रहे हैं - यानी डिब्बा चल रहा है।

पूरी पृथ्वी एक डिब्बा है
अब कल्पना करो कि पूरी पृथ्वी एक डिब्बा है, रेल का डिब्बा; जो 31 किलोमीटर प्रति सेकेण्ड की रफ्तार से आगे बढ़ रहा है।
चाहे होशंगाबाद में गेंद उछालो या इटारसी में, गिरती तो वह हाथ में ही है। मकान भी वहीं हैं जहां बने थे। पेड़ भी वहीं है। हवा भी पृथ्वी के साथ उसी गति से चल रही है। तो फिर कैसे महसूस करें कि धरती तूफानी गति से आगे बढ़ रही है या घूम रही है।

डिब्बे की तरह असंभव है बिना बाहर देखे - यानी अंतरिक्ष में कुछ पीछे छूटता दिखाई दे तभी धरती-नुमा डिब्बे में बैठे हम महसूस कर सकते हैं कि धरती चल रही है। इसी तरह पृथ्वी की घूर्णन गति को महसूस करने के लिए लिए भी यह बात सही है।

तो क्या अगर कोई वस्तु अंतरिक्ष में होती तो हम उसके सापेक्ष कह पाते कि हम आगे बढ़ रहे हैं या पीछे जा रहे हैं?

चलो, ज़रा धरती के बाहर आकाश की तरफ देखते हैं। क्या दिखता है? दिन के समय पूर्व से उगकर परिश्चम में डूबता हुआ सूर्य और उसी तरह रात को आकाश में विचरते हुए तारे।

गति का भ्रम
तो अब क्या मानें - हमारी धरती घूम रही है या फिर ये सब चांद-सितारे और सूर्य। दरअसल यहां थोड़ी-सी भ्रम की स्थिति है।

शायद तुम्हें भी कभी यह अनुभव हुआ होगा कि तुम्हारी रेलगाड़ी के बगल में दूसरी रेलगाड़ी खड़ी हो और अचानक कोई भी एक गाड़ी धीरे से चलने लगे। कुछ-कुछ भ्रम होता है न कि हम चल रहे हैं या फिर दूसरी गाड़ी चल रही है!

आप प्लेटफॉर्म की तरफ देखकर यह सवाल सुलझा लेते हैं कि कौन-सी गाड़ी चलने लगी है। परन्तु धरती और आसमां के बीच टंगे इस सवाल को सुलझाना आसान नहीं था।

दरअसल आकाश की ओर देखते हुए इंसान का यह मान लेना स्वाभाविक ही था कि धरती स्थिर है और सूर्य-चांद-तारे इसके इर्द-गिर्द घूम रहे हैं। परन्तु बात यहां अटकी नहीं।

जैसे-जैसे लोगों ने इन आकाशीय पिंड़ों को गौर से देखना और अपने अवलोकनों को लिखकर रखना शुरू किया, उन्हें समझ में आया कि जैसी शुरू में मान्यता थी कि ये सब एक ही रफ्तार से पृथ्वी के इर्द-गिर्द एक गोले में घूमते हैं, वह सही नहीं है क्योंकि:

  1. रोज़ रात को एक ही समय पर तारों की स्थिति बदली हुई मिलती थी।
  2. सूर्य का पथ भी साल भर आकाश में एक-सा नहीं रहता था - कभी वह एकदम सिर के ऊपर से गुज़रता दिखाई देता और कभी आकाश में एकदम नीचा होता।

सूर्य और तारों की स्थितियों में तो फिर भी एक क्रम दिखाई देता था परन्तु आकाश में बिचर रहे ग्रहों का ध्यान से अवलोकन करने पर और भी विचित्र बातें दिखाई दीं - कभी वे तेज़ी से आगे को दौड़ते नज़र आते, तो कभी उनकी रफ्तार एकदम धीमी हो जाती और कभी तो ऐसे लगता मानों वे उल्टी दिशा में चलने लगे हों।

ऐसे सब अवलोकनों के कारण यह विचार तो बहुत पहले त्याग दिया गया कि सब पृथ्वी के इर्द-गिर्द गोल घेरे में एक ही रफ्तार घूम रहे हैं। पृथ्वी के इर्द-गिर्द उनकी गति को दर्शाने के विभिन्न मॉडल प्रस्तावित किए जाने लगे जो इन अवलोकनों को समझने का प्रयास। परन्तु जैसे-जैसे इन आकाशीय ज़्यादा सटीक होते गए, वैसे-वैसे पृथ्वी के इर्द-गिर्द उनकी गति को समझाने के मॉडल जटिलतम होते चले गए।

ऐसे समय में सोलहवीं सदी की शुरुआत में एक वैज्ञानिक निकोलस कोपरनिकस ने एक नया ही प्रस्ताव सबके सामने रखा कि मानो पृथ्वी स्थिर न होकर सूर्य के चारों तरफ चक्कर लगा रही है और साथ ही अपनी धुरी के इर्द-गिर्द भी घूम रही है; तो क्या होगा?

इस एक बदलाव से अचानक सब कुछ एकदम आसान मॉडल में फिट बैठने लगा। उन सब जटिल उपवृतों आदि के बजाए अब ग्रहों के उस समय उपलब्ध लगभग सब अवलोकनों को समझाया जा सकता था - अगर यह मान लिया जाए कि ये सब ग्रह भी सूर्य के इर्द-गिर्द चक्कर लगा रहे हैं।

आज शायद किसी के कहने पर यह मान लेना आसान है कि धरती घूम रही है। परन्तु आज से चार-पांच सौ साल पहले सशक्त तर्क होने के बावजूद लोगों को बहुत समय लगा इस बात को मनवाने में - डेढ़ सौ साल से भी ज़्यादा।