कमलेश चन्द्र जोशी

बाल गतिविधि

इस नाट्य-गतिविधि में बच्चे संवाद गढ़ना, सीन डिजाइन करना खुद सीखते हुए अपनी कल्पना को मूर्त रूप दे रहे हैं।

हमारे गतिविधि-केन्द्र में एक दिन कल्पना मुझसे शिकायती लहज़े ' में बोली – “आप नाटक तो करवाते नहीं, खेल करवाते रहते हो।'' कल्पना हमारे केन्द्र में रविवार को होने वाली नाट्य-गतिविधियों में शामिल होती है। इन नाट्य गतिविधियों में मेरे साथ रजनीश भी होता है। रविवार को यहां आने वाले बच्चों की औसत उम्र 8-11 वर्ष है। ये बच्चे हर रविवार को ढाई-तीन घंटे हमारे साथ गुजारते हैं। वे नाटक बनाना चाहते हैं, लेकिन शायद उन्हें नहीं मालूम कि नाटक की शुरुआत कुछ खेलों से होती है - इसलिए कल्पना मुझसे ऐसा कह रही थी।

शुरूआत एक परिचय खेल' से होती है। परिचय खेल के अन्तर्गत बच्चों को अपना नाम अभिनय करते हुए बताना होता है। कोई हंसकर बताता है, तो कोई गुस्सा होकर, चिल्लाकर या शर्माते हुए अपना नाम बताता है। इसके बा‘ताली के साथ चलना होता है। जब तक ताली बजती है बच्चों को चलना होता है और ताली की आवाज़ रुकते ही बच्चों को रुक जाना होता है। इस गतिविधि के बाद गिनती के साथ शारीरिक क्रियाएं हैं। जैसे - ‘एक' बोलने पर बच्चों को बैठना है; 'दो' बोलते ही बच्चों को खड़े होना है; 'तीन' पर उनको हंसना है; ‘चार' पर उनको रोना है; ‘पांच' बोलते ही बच्चों को एक जगह मूर्ति के रूप में खड़े होना है। इस तरह गिनती के साथ चलने वाली गतिविधियों में बहुत-सी क्रियाएं करनी होती हैं।

ताली के साथ चलने वाली गतिविधियों में रजनीश ताली बजाता है, कभी धीरे-धीरे तो कभी तेज़ तेज़। इस प्रक्रिया में बच्चों को ताली की लय के साथ चलना होता है, साथ ही इस बात का ख्याल भी रखना होता है कि ताली रुकते ही उन्हें स्थिर हो जाना है। इस गतिविधि की अगली कड़ी में रजनीश गिनतियों को भी जोड़ देता है। बच्चे ताली की लय के साथ चल रहे हैं .... लेकिन जैसे ही 'एक' बोला गया बच्चे उसी स्थान पर एकदम बैठ जाते हैं, 'दो' बोलते ही खड़े हो जाते हैं ..... इस तरह आगे गिनतियां और क्रियाएं जुड़ती रहती हैं। गिनती के अनुसार ही बच्चों को पहले दिए हुए निर्देश याद रखने पड़ते हैं क्योंकि उन निर्देशों का पालन करते हुए उन्हें उस तरह की शारीरिक क्रिया करनी पड़ती है।

अब सवाल यह उठता है कि ये गतिविधियां बच्चों के लिए नाटक बनाने में किस तरह सहायक साबित होंगी? यूं देखने में तो ये गतिविधिया खेल ही लगती हैं। लेकिन इनमें बच्चों में ध्यान देने वाली प्रवृत्ति का विकास हो रहा है । शुरुआत में दिए गए निर्देशों को याद रखते हुए उन्हें उम तरह की क्रिया करनी पड़ रही है। ये गतिविधियां बच्चों को एक चरित्र की कल्पना करने का मौका देती हैं। जैसे ‘पांच' बोलने पर उन्हें ‘मूर्ति' बनना होता है। मूर्ति बना बच्चा कृष्ण, हनुमान, मास्टरजी, सञ्जीवाला, चायवाला कुछ भी हो सकता है। शुरुआत में ये देखा गया है कि बच्चे मूर्ति के माने हनुमान, कृष्ण, राधा ही समझते हैं। लेकिन धीरे-धीरे उनका यह भ्रम टूटता है और वे अपने आसपास के चरित्रों का निर्माण करने लगते हैं। इस तरह स्वयं के द्वारा चरित्रों का निर्माण बच्चों के स्तर पर नाटक खोजने की प्रक्रिया में पहला कदम है।

आगे की नाट्य गतिविधियों में रजनीश बच्चों को एक गोले में बैठाता है। सब बच्चों को एक-एक नंबर ( एक, दो, तीन, चार .... आदि ) दिया जाता है तथा गोले के बीच में एक बच्चे को बैठाया जाता है।'रजनीश जिस नंबर वाले बच्चे को बुलाता है, उसे गोले के भीतर आकर, बीच में बैठे हुए बच्चे को कोई चरित्र या पात्र बनाना पड़ता है। जैसे- दुकानदार, मोची, मास्टरजी, झूलेवाला, चायवाला या कुछ और भी हो सकता है। और इस चायवाले या दूधवाले या मोची बने बीच वाले बच्चे के साथ 4-5 मिनट तक वैसी ही बातचीत करनी है जैसी कि आमतौर पर लोग उनके साथ करते हैं।

इस गतिविधि में बच्चे को अपने आप संवाद सोचने पड़ते हैं। अपने आमपास के लोगों की कई बातें याद करनी पड़ती हैं - सब्जी वाले के वहां लोग किस तरह की बात करते हैं? किस तरह के एक्शन से सब्ज़ी मांगते हैं? किस तरह मोल-भाव करके दाम कम कराते हैं?

इस गतिविधि के दौरान अंजू ने लक्ष्मी को पड़ोस की कपड़ा सिलने वाली बनाया। अंजू व लक्ष्मी का एक संवाद पेश है:

अंजू - "बहन जी, ये कपड़े सिल देना, बच्चों के हैं।''

लक्ष्मी - “कब तक चाहिए?"

अंजू - “इतवार तक दे देना, हमें शादी में जाना है।''

लक्ष्मी – “ठीक है।”

अंजू - “कितने पैसे हुए?"

लक्ष्मी - “पचास रुपए दे देना।''

अंजू - “बहन जी, ये तो ज्यादा हैं। चालीस लगते हैं। अच्छा, बचा हुआ कपड़ा वापस कर देना।''

लक्ष्मी - “कपड़ा बचता कहां है?"

अंजू - "एक रूमाल ही बना देती। अच्छा, मैं चलती हूं। घर में ढेर सारा काम पड़ा है। जल्दी सिल देना।"

उपरोक्त सवाद से हमें पता चलता है कि बच्चों को संवाद गढ़ते हुए अपने आसपास के अनुभवों से मन-ही-मन दोबारा गुजरना पड़ता है, अपने पास पड़ोस की बातों पर ध्यान देना पड़ता है। इस तरह बच्चों की संवाद बोलने की स्वतंत्र मौखिक अभिव्यक्ति की शुरुआत यहां से होती है। इस गतिविधि में दो लोगों की आपसी बातचीत होती है। आगे चलकर यह गतिविधि समूह के रूप में भी होती है।

आगे की गतिविधियों में रजनीश कहता है कि चलो कुछ बच्चे अपनी क्लास का सीन (दृश्य) बनाएं तथा कुछ बच्चे अपने घर का सीन (दृश्य) बनाएं। इस तरह रजनीश बच्चों की क्षमता देखते हुए समूह बना देता है। फिर बच्चे अपने-अपने समूह में बैठकर अपने-अपने सीन के बारे में सोचते हैं। कौन क्या बनेगा? क्या-क्या बातें होंगी? इन बच्चों के बनाए हुए ‘सीन' में देखें बच्चे किस-किस तरह के सीन चुनते हैं? क्या-क्या बातें करते हैं?

अंजू, माया, कल्पना, रोशन मिलकर एक परिवार बनाते हैं। यहां अंजू मां बनी है, कल्पना पिता। रोशन और माया उनके बच्चे बने हैं। इस सीन में वे लोग खुद संवाद जोड़ते हैं कि अंजू दीपावली में बच्चों के कपड़े बनवाने के लिए कल्पना से पैसे मांगेगी। तब कल्पना कहेगी पिछले महीने भी तो दिए थे। इस पर अंजू कहेगी वो तो खर्च हो गए। फिर कल्पना, अपने बच्चों से परेशान रहेगी कि ये पढ़ते नहीं हैं। इस तरह पति-पत्नी में तना तनी चलती रहेगी।

उधर दूसरे समूह में लक्ष्मी, सावित्री, राजकुमारी, रजनी परिवार बने हैं। इनका अपने पड़ोसियों से कूड़ा फेंकने की बात पर झगड़ा हो जाता है। इस झगड़े के बाद दोनों परिवार (अंजू व लक्ष्मी का) अपने बच्चों को एक-दूसरे के साथ खेलने से मना कर देते हैं। लेकिन आगे के सीन में स्कूल की टीचर उन बच्चों को आपस में मिला देती है।

ऐसे ही क्लास का सीन तैयार होता है - वहां दिखाया जाता है कि टीचर कैसे पढ़ाते हैं, बच्चे कैसे शैतानी करते हैं?

एक सीन में सुनीता, ज़ीनत, बेबी बस्ती की औरतें बनती हैं। उनके सीन में नल से पानी भरते हुए बस्ती में प्रधान की बातें, पुलिस कैसे झुग्गियां बनवाती है तथा कैसे पुलिस को खुश किया जाता है... आदि बातें होती हैं।

इस तरह सभी सीनों को जोड़कर और उन्हें सुधारकर एक कहानी का रूप दिया जाता है, जो अपने-आप बनाई हुई कहानी है। फिर बच्चे अपने अपने सीन को डिज़ाइन करते हैं। सीन डिज़ाइन करते हुए उन्हें यह भी ध्यान रखना है कि वे सीन को डिज़ाइन करने में जिन चीजों का इस्तेमाल कर रहे हैं, (जैसे - गिलास, किताब, साबुन, पेन, कप, आदि) वे सभी चीजें बाहर बैठे हुए दर्शकों को दिखाई देनी चाहिए। इसके अलावा उन्हें इस तरह उठना-बैठना है कि उनकी पीठ दर्शकों के सामने न आए। संवाद ऊंची आवाज़ में बोलना है। इसका अभ्यास चलता रहता है।

इन सब चीज़ों को ध्यान में रखते हुए बच्चे खुद ही सोच रहे हैं कि किताब को कहां रखें, साबुन कहां पर होना चाहिए, क्लास के सीन में बच्चे कैसे बैठेंगे, उनका मुंह किधर होगा, घर में टीवी देखते हुए कैसे बैठेंगे, टीवी कहां रखेंगे? ये सभी बातें उनके सामने आती हैं। इन सभी बातों का हल वे स्वयं निकालते हैं। कुल मिलाकर बच्चे स्वयं ही सीन डिज़ाइन करना सीख रहे हैं, अपनी कल्पना को मूर्त रूप दे रहे हैं।

अंत में इन सभी बातों को मिलाकर कहानी को काट-छांटकर तथा इसके निरन्तर अभ्यास से नाटक तैयार होता है, जो बच्चों की अपनी मौलिक कृति है। यह उनके आसपास की दुनिया का प्रतिबिम्ब है, जिसे वे अपने अभिनय से चित्रित करते हैं।


कमलेश चन्द्र जोशी बच्चों के साथ विविध गतिविधियां करते और करवाते हैं। फिलहाल लखनऊ की नालंदा संस्था में सक्रिय।