निशी खण्डेलवाल  [Hindi PDF, 236 kB]

अपना मुँह खोलिए, जबड़े की माँसपेशियों और शरीर के ऊपरी भाग को थोड़ा खींचिए, धीरे-से साँस लीजिए और फिर तेज़ी से साँस छोड़िए। आपने क्या किया? जी हाँ, आपने उबासी ली। अपने आस-पास के लोगों को भी आपने उबासी लेते देखा होगा और हो सकता है कि उन्हें उबासी लेते देख आपको भी उबासी आ गई हो। क्या इसका मतलब ये हुआ कि यह एक तरह की छूत की समस्या है? ऐसा माना जाता है कि शरीर की सारी हरकतें, खास तौर से अनैच्छिक हरकतें किसी-न-किसी उद्देश्य की पूर्ति करती हैं। इसलिए यह सवाल लाज़मी है कि उबासी किस उद्देश्य की पूर्ति करती है। या सीधे-सादे शब्दों में उबासी आती ही क्यों है? 

एक आम अनुभव
हमारे अनुभव ये बताते हैं कि नवजात शिशु भी उबासी लेता है। यहाँ तक कि अल्ट्रासाउण्ड निरीक्षण के दौरान 20 सप्ताह के शिशुओं की गर्भ में उबासियाँ रिकॉर्ड की गई हैं। इससे तो ऐसा लगता है कि उबासी का आना हमारे लिए काफी महत्वपूर्ण है और इस पर नियंत्रण कर पाना सम्भव नहीं। यह अनियंत्रित क्रिया सामान्यत: 6 सैकण्ड की होती है जिसके दौरान विभिन्न शारीरिक परिवर्तन होते हैं - हृदय गति का बढ़ना, दिमाग में होने वाले तंत्रिका परिवर्तन आदि।

केवल मनुष्यों में ही नहीं बल्कि अन्य जानवरों में भी उबासी आना देखा गया है। चार्ल्स डार्विन ने इस ओर इशारा किया था कि बबून (अफ्रीका में पाए जाने वाले कुछ बन्दर) अपने दुश्मन को डराने के लिए उबासी लेते हैं और ऐसा करते हुए वे दुश्मन को अपने बड़े-बड़ेे दाँतों से डराने की कोशिश करते हैं। ऐसा ही कुछ विचार उनका गिनी-पिग (चूहा-गिलहरी के परिवार का एक सदस्य) के बारे में था, कि वे उबासी के द्वारा अपना गुस्सा दिखाते हैं। इसी तरह बिल्लियाँ भी उबासी लेते हुए शरीर तानकर अपने सामान्य आकार से दुगनी हो जाती हैं और अपने दुश्मन को डराने की कोशिश करती हैं।

चूँकि उबासी सभी की रोज़मर्रा ज़िन्दगी के अनुभव से जुड़ा सवाल है इसलिए इसकी व्याख्या हर कोई अपने अनुसार देने लगता है। और क्यों नहीं, रात को सोने से पहले, सुबह उठने के बाद, किसी काम को लगातार करते रहने से, बहुत ज़्यादा थकान महसूस होने या आराम की स्थिति में जाने आदि-आदि परिस्थितियों में सभी के उबासी लेने के अनुभव हैं।

उबासी आने के इन आम अनुभवों के कारण इसमें वैज्ञानिकों की रुचि स्वाभाविक है जिसके प्रमुख कारण कुछ इस प्रकार हैं। पहला तो यह कि उबासी की क्रिया हमारे साथ-साथ लगभग सारे रीढ़धारी प्राणियों में देखी गई है। दूसरा कि उबासी आम अनुभव ही नहीं, यह कई विभिन्न परिस्थितियों में प्रकट होती है। और तीसरा महत्वपूर्ण कारण यह है कि लोग देखा-देखी उबासियाँ लेने लगते हैं।

उबासी क्यों आती है इसका पता लगाने और किसी निष्कर्ष पर पहुँचने के लिए बहुत-से अध्ययन किए गए हैं। ये अध्ययन उबासी आने के कारण ढूँढ़ने की और उनके आधार पर उबासी आने की व्याख्या अलग-अलग तरह से करते हैं। उबासियों के अध्ययनों में जैव-विकास की दृष्टि से ज़्यादा ध्यान नहीं दिया गया है1। अधिकांश अध्ययन इसके तात्कालिक कारणों पर ही केन्द्रित रहे हैं। इस लेख में हम कुछ अध्ययनों और उनके द्वारा सुझाई गई व्याख्याओं की चर्चा करेंगे।

परिकल्पनाएँ और परिणाम

बोरियत
सन् 1986 में महाविद्यालय के कुछ छात्रों पर किए गए प्रयोगों में पाया कि उस समय उबासी ज़्यादा आती है जब छात्रों को बोरियत महसूस होती है। इस अध्ययन में यह देखा गया कि छात्रों द्वारा 30 मिनट में कुछ रंगों के पैटर्न की पट्टियाँ देखने पर ली गई उबासियों की संख्या उतने ही समय में देखे गए रॉक विडियो के दौरान ली गई उबासियों की संख्या से कहीं ज़्यादा होती है। चूँकि रॉक विडियो को छात्र आनन्द से सुनते हैं अत: ये अवलोकन साफ तौर पर बोर होने की अवस्था में उबासी आने की ओर इशारा करते हैं। इसी तरह के कुछ अनुभव सामान्य तौर पर भी सुनने को मिलते हैं।

ऑक्सीजन की ज़रूरत
एक मान्यता थी कि उबासी तब ली जाती है जब शरीर को ज़्यादा ऑॅक्सीजन की ज़रूरत होती है। लेकिन मैरीलैण्ड विश्वविद्यालय के डॉ. रॉबर्ट प्रॉविन द्वारा किए गए अध्ययनों ने अन्तत: इस धारणा को खारिज कर दिया। अपने अध्ययन में डॉ. प्रॉविन ने ऑॅक्सीजन की ज़रूरत और उसका उबासियों की संख्या पर प्रभाव देखने के लिए कुछ लोगों को एक कमरे में बैठाया और वहाँ हवा के संघटन को बदलते गए। सबसे पहले उन्होंने कार्बन डाइऑॅक्साइड की मात्रा 3 से 5 प्रतिशत (आम तौर पर हवा में 0.03 प्रतिशत कार्बन डाइऑॅक्साइड होती है) करके लोगों में उबासी की दर को देखा। इसके बाद कार्बन डाइऑॅक्साइड की मात्रा को शून्य प्रतिशत कर उबासी की दर को मापा। उन्होंने पाया कि दोनों ही परिस्थितियों में उबासी की दर लगभग बराबर ही रहती है अत: यह परिकल्पना आगे न बढ़ सकी।

थकान
पुन: कुछ सामान्य अनुभवों की तरफ लौटें तो ऐसा माना जाता है कि थके होने पर उबासी ज़्यादा आती है। क्या ऐसा माना जाना सही है? इस व्याख्या की पुष्टि के लिए भी कुछ अध्ययन-अवलोकन किए गए और यह पाया गया कि व्यायाम से पहले, उसके दौरान और बाद में आई उबासियों की आवृति में कोई फर्क नहीं है।

सुस्ती-सक्रियता
उबासी आने की एक अन्य व्याख्या जागने और सक्रियता से जोड़कर दी जाती है। यह देखा जाता है कि अक्सर उबासी उँघाई/नींद आने की स्थिति में आती है। व्यावहारिक अध्ययन भी लगातार यह बताते हैं कि सबसे ज़्यादा उबासी सोने से पहले और सो कर उठने के समय आती है क्योंकि इस समय सक्रियता का स्तर बहुत कम होता है। जिस तरह से अन्य परिकल्पनाओं की जाँच के लिए कुछ प्रयोग किए गए, उसी तरह से इस परिकल्पना की जाँच वस्तुनिष्ठ तरीके से करने के लिए EEG (इलेक्ट्रो एनसेफैलोग्राफ) का इस्तेमाल कर मनुष्यों में उबासी आने के पहले और उसके बाद सतर्कता के स्तर में आए बदलाव को कुछ प्रयोगों द्वारा देखने की कोशिश की गई। EEG से यह पता चलता है कि दिमाग के किस भाग में विद्युतीय क्रियाएँ किस गति से चल रही हैं और उनका पैटर्न क्या है। दिमाग की विद्युतीय क्रिया से व्यक्ति की सक्रियता के स्तर का अन्दाज़ मिलता है। यह पाया गया कि उबासी आने के पूर्व सतर्कता का स्तर कम होता है और उसके पश्चात् अधिक। इसका यह मतलब हो सकता है कि उबासी सतर्कता के स्तर को बढ़ाने के लिए आती है। परन्तुु बाद में हुए कुछ प्रयोगों से यह पता चला कि सतर्कता का स्तर अक्सर उबासी के बाद नहीं, उससे पहले बढ़ जाता है और सतर्कता के अन्य सम्भावित कारण भी पाए गए। तो यह परिकल्पना भी बहुत सटीक साबित नहीं हुई।

कान की सुरक्षा
कुछ शोधकर्ताओं द्वारा यह सुझाया गया है कि उबासी की प्रक्रिया में मध्य-कर्ण के अन्दर एवं बाहर वायु के दबाव को बराबर रखने की क्षमता होती है। इससे वायु में विभिन्न तीव्रता की तरंगों से होने वाली तकलीफ से कान बच सकते हैं। इस परिकल्पना के अनुसार एक तरह से यह कहा जा सकता है कि उबासी कान को बचाने का एक तरीका है। हालाँकि इस परिकल्पना की पुष्टि हेतु अब तक किसी भी प्रकार के व्यवस्थित अध्ययन नहीं हुए हैं।

दिमाग का तापमान
वर्तमान में उबासी आने की सबसे चर्चित व्याख्या दिमाग के तापमान को नियंत्रित करने की परिकल्पना के रूप में दी जा रही है। वैसे तो यह बात 50 वर्ष पूर्व सुझाई गई थी परन्तुु इसके प्रायोगिक प्रमाण पिछले सात सालों से एण्ड् डिग्री गैलप के प्रयोगों से मिले हैं। उन्होंने इन प्रयोगों में मस्तिष्क पर ठण्डे पैक का प्रयोग करके अथवा तेज़ी से साँस लेने से किसी को देखकर आने वाली उबासियों की संख्या का कम होना दर्शाया (चूँकि यह माना जाता है कि मनुष्यों में किसी को उबासी लेता देखने पर भी उबासी आती है)। जबकि समान प्रायोगिक परिस्थिति में गर्म पैक इस्तेमाल करने पर उबासी की संख्या बढ़ने के परिणाम मिले हैं। दिमाग की ओर जब फेफड़ों से और शरीर के सिरों से अपेक्षाकृत कम तापमान वाला खून बहता है, तो दिमाग का तापमान भी कम हो जाता है। शोध से हमें पता है कि जब मनुष्य उबासी लेते हैं दिमाग की ओर खून कुछ ज़्यादा बहता है। इसलिए, गर्म पैक इस्तेमाल करने पर उबासी की संख्या बढ़ने के परिणाम ठीक ही लगते हैं।

मनुष्यों पर किए गए प्रयोगों के अलावा गैलप ने कुछ प्रयोग अन्य जानवरों पर भी किए हैं। चूहों और तोते पर उन्होंने कुछ इसी किस्म के शोध अध्ययन किए। इतने सारे पक्षियों में तोते को चुनने का एक कारण था कि ये ऑॅस्ट्रेलिया में खुले में रहते हैं जहाँ तापमान में काफी उतार-चढ़ाव होते हैं। प्रयोग में कुल बीस तोतों को लिया गया जिन्हें एक नियंत्रित ताप कक्ष में रखा। इस कक्ष के तापमान को 20 से 40 डिग्री सेल्सियस के बीच बदला जा सकता था। गैलप ने कक्ष के तापमान को बदलते हुए तोतों में उबासी की आवृति को मॉनिटर किया। उन्होंने पाया कि 22 डिग्री तापमान पर तोते औसतन एक निश्चित समय-अन्तराल में एक बार उबासी लेते थे, वहीं 34 डिग्री सेल्सियस पर वे उसी समय अन्तराल में औसतन दो बार उबासी लेते थे। मगर जब उन्हें 22 डिग्री से 34 डिग्री तक तेज़ी से बदलते तापमान की स्थिति में रखा गया तो उसी समय-अन्तराल में वे चार बार की दर से उबासियाँ लेने लगे। इससे गैलप एवं अन्य शोधकर्ताओं ने यह निष्कर्ष निकाला कि उबासी लेना शरीर के तापमान के नियंत्रण से जुड़ा है।

देखा-देखी सबको उबासी

कई जानवर उबासी लेते हैं - शेर-बिल्ली, कुत्ते-भेड़िए, बन्दर-वानर, साँप, मछली, चूहे, घोड़े, तोते, पेंग्विन, उल्लू आदि। और मनुष्यों की तरह सामाजिक समूहों में रहने वाले जानवरों में किसी को उबासी लेते हुए देखकर अन्य को उबासी आ जाती है। इनमें चिम्पैन्ज़ी, बॉनबो और तोते शामिल हैं। लेकिन क्या एक प्रजाति के सदस्य को उबासी लेते हुए देखकर दूसरी प्रजाति का जानवर उबासी लेने लगता है?
कुत्ते हमसे काफी हमदर्दी रखते हैं - हमारे इशारों, भावनाओं और मनोदशा को समझने में काफी माहिर हैं। कई पालतू कुत्ते मनुष्य के साथी होते हैं और यह कहना गलत न होगा कि ऐसे कुत्तों को अपने मालिकों से काफी हमदर्दी होती है। क्या इसका मतलब यह है कि कुत्ते अपने मालिकों को देखकर उबासी लेते हैं? शोध से यही पता चला है कि कुत्ते अपने मालिक जैसे मनुष्यों को उबासी लेते देख खुद उबासी लेने लगते हैं। तो उबासी एक प्रजाति से दूसरी प्रजाति में भी फैल सकती है।


फिर गैलप और उनके साथियों ने उबासी का सीधे दिमाग के तापमान पर असर देखा। इस प्रयोग में उन्होंने चूहों का इस्तेमाल किया। उन्होंने कुछ चूहों के दिमाग में तापमापी लगाए और उबासी के पहले, उसके दौरान और उबासी के बाद दिमाग के तापमान को मापा। उन्होंने पाया कि दिमाग का तापमान जब बढ़ता है तो चूहे उबासी लेते हैं। उन्होंने यह भी पाया कि उबासी और अंगड़ाई लेने के बाद इन चूहों के दिमाग का तापमान पहले से कम हो जाता है।

गैलप के अनुसार, दिमाग कम्प्यूटर की तरह तभी सबसे बढ़िया काम करता है जब ठण्डा होता है, और शारीरिक अनुकूलन कुछ इस तरह विकसित हुआ है कि दिमाग को अधिकतम ठण्डा रखा जा सके।
गैलप द्वारा मनुष्यों, चूहों और तोते पर किए गए अध्ययन ये दर्शाने में तो सफल हुए कि उबासी की भूमिका दिमाग को ठण्डा रखने में है मगर उनके प्रयोगों से इस बात की व्याख्या नहीं होती कि क्यों एक को देखकर दूसरे को उबासी आने लगती है। वैसे गौरतलब है कि यूनानी दार्शनिक हिप्पोक्रेटस का मानना था कि उबासी बुखार कम करने के लिए शरीर द्वारा अपनाया गया एक तरीका है।

उबासी की संक्रामकता
कुछ परिकल्पनाएँ जैव-विकास में उबासी की महत्ता पर टिकी हैं जिनके अनुसार शुरुआती दौर में उबासी का प्रयोग एक सामाजिक संकेत के रूप में, चल रही गतिविधि को बदलकर दूसरी गतिविधि में जाने के लिए किया जाता था। यह परिकल्पना किसी को देखकर उबासी आने की घटना का विश्लेषण इस तरह करती है कि जैविक विकास के क्रम में उबासी लेना एक सार्थक सामूहिक क्रिया थी (शायद सामूहिक रूप से किसी क्रिया को शु डिग्री करने का सन्देश, या सामाजिक संवाद में दुश्मन को डराने वगैरह के लिए)। इसकी ज़रूरत कालान्तर में खत्म हो गई पर यह आदत बनी रही और इसी कारण किसी को उबासी लेता देखने पर दूसरे व्यक्ति को भी उबासी आ जाती है।

अब यह प्रश्न उठता है कि कुछ लोगों को किसी को उबासी लेते देख तुरन्त ही उबासी आ जाती है जबकि कुछ के साथ ऐसा कम होता है। ऐसा क्यों? इसके पीछे छिपे कारणों को जानने की मंशा से किए गए अध्ययन इस ओर इशारा करते हैं कि अधिक सहानुभूति स्तर वाले लोगों की तुलना में कम सहानुभूति स्तर वाले लोगों को उबासी लेते देखने पर उबासी जल्दी से नहीं आती। इन अध्ययनों में पहले यह पता किया जाता है कि व्यक्ति-विशेष में अन्य लोगों के प्रति हमदर्दी का स्तर क्या है। यह पता करने के लिए उनसे एक प्रश्नावली भरवाई जाती है और उनके उत्तरों के आधार पर हमदर्दी का स्तर तय किया जाता है। हालाँकि कुछ मनोवैज्ञानिक कुछ अन्य परीक्षणों की सहायता से हमदर्दी के स्तर जानने की कोशिश करते हैं परन्तु इन नतीजों पर दृढ़ता से कुछ कह पाना मुश्किल है।

आखिर उबासी क्यों आती है?
1986 में रॉबर्ट प्रॉविन द्वारा उबासी पर अध्ययन शु डिग्री किए गए, लगभग ढाई दशक के दौरान इस दिशा में और भी कई अध्ययन हुए। इनमें प्रमुख रूप से उबासी को ऑक्सीजन की कमी की आपूर्ती करने हेतु, कान के पर्दे को दबाव से बचाने की ज़रूरत के लिए, जैव-विकास की प्रक्रिया में बनी एक आदत की तरह या मस्तिष्क के तापमान को सामान्य बनाए रखने के लिए पड़ने वाली एक ज़रूरत के रूप में समझने-समझाने की कोशिश की गई लेकिन अब तक किए गए सभी अध्ययन सम्पूर्ण रूप से उबासी की प्रक्रिया की व्याख्या नहीं कर पाए हैं।
उबासी को समझने के लिए प्रस्तावित समस्त मॉडल एवं परिकल्पनाएँ विभिन्न घटनाओं के अवलोकनों पर आधारित हैं, जिसके चलते कुछ प्रत्यक्ष रूप से प्रकट न हो सकने वाले तथ्यों के छूट जाने की सम्भावना बढ़ जाती है। सम्भव है कि तंत्रिकीय एवं उपापचयी प्रक्रियाओं की जाँच-पड़ताल उबासी को समझने में नए आयामों को खोल सकें। इसलिए ऐसा लगता है कि उबासी की प्रक्रिया को सम्पूर्णता में समझने के लिए उसके व्यावहारिक, शारीरिक एवं सामाजिक पहलूओं को सम्मिलित करते हुए व्यवस्थित अध्ययन किए जाने की ज़रूरत है।


निशी खण्डेलवाल: पिछले पाँच वर्षों से दिगन्तर में असिस्टेंट फैलो के पद पर काम कर रही हैं। इसके अतिरिक्त सामाजिक क्षेत्र में विभिन्न मुद्दों पर काम का अनुभव रहा है।

एकलव्य द्वारा आयोजित विज्ञान कार्यशाला (जून 2014) के दौरान प्रतिभागियों के एक समूह ने ‘उबासी क्यों आती है?’ - इस सवाल पर खोजबीन व चर्चा की। इस लेख का प्रारम्भिक आधार समूह द्वारा किया गया कार्य है। निशी भी इस समूह में शामिल थीं।