दिलिप चुघ   [Hindi PDF, 177 kB]


राजस्थान की राज्य सरकार, शिक्षा का अधिकार कानून, 2009 के तहत सतत् एवं व्यापक मूल्यांकन की अवधारणा को बड़े व्यापक पैमाने पर अमली जामा पहनाने की ओर अग्रसर है। इस सत्र (2014-2015) में राजस्थान के प्रत्येक ज़िले के दो ब्लॉक के सभी प्राथमिक और उच्च प्राथमिक विद्यालयों में सतत् एवं व्यापक मूल्यांकन को लागू किया जा रहा है। हमारे टोंक ज़िले में भी जून माह में चुने गए ब्लॉकों के शिक्षकों के प्रशिक्षण भी हो चुके हैं। सर्व शिक्षा अभियान (एसएसए) के आँकड़ों के अनुसार टोंक ज़िले के लगभग 88 प्रतिशत शिक्षक इन प्रशिक्षणों में भागीदारी भी कर चुके हैं। इन प्रशिक्षणों में एक अवलोकनकर्ता के तौर पर मैंने भी हिस्सा लिया है। ये प्रशिक्षण मुझे और मेरे कुछ अन्य साथियों को शिक्षकों के ठहराव और भागीदारी के सन्दर्भ में पिछले सालों की तुलना में बेहतर लगे। एक अलग-सी मूल्यांकन नीति और उसके प्रपत्रों को समझने में एक स्वाभाविक जिज्ञासुपन और रुचि दिखाई देना लाज़मी है और फिर बात अगर दस्तावेज़्ाीकरण की हो तो थोड़ी ज़्यादा सजगता आ जाना भी स्वाभाविक है।

राजकीय विद्यालयों में...
जून की भीषण गर्मी से प्रभावित प्रशिक्षणों के बाद जुलाई-अगस्त का माह राजकीय विद्यालयों में शिक्षकों और प्रधानाध्यापकों से मेल मिलाप का रहा। इस दौरान मेरी स्वाभाविक जिज्ञासा सतत् एवं व्यापक मूल्यांकन के अमलीकरण को समझने में थी, क्योंकि मैंने भी कभी एक वैकल्पिक विद्यालय के शिक्षक के तौर पर ऐसी ही प्रक्रियाओं से दो-दो हाथ किए थे। इन मुलाकातों ने मुझे कुछ-कुछ समझने के मौके ज़रूर दिए जिनका सीधा सम्बन्ध सतत् एवं व्यापक मूल्यांकन की अवधारणा से है। इस सन्दर्भ में इन विद्यालयों में घटी कुछ खास घटनाओं का ब्यौरा यहाँ प्रस्तुत है...

विद्यालय: एक
हम इस विद्यालय के संस्था-प्रधान के साथ ही विद्यालय पहुँचे। उस समय तक दो शिक्षिकाओं ने सभा कार्यक्रम को अंजाम दे दिया था। एक कक्ष में स्टाफ के साथ अनौपचारिक बातचीत के बाद गुरुजी के साथ गणित की कक्षा देखने का मौका मिला। गुरुजी ने बच्चों को जोड़ के सवाल हल करने को दिए थे। बच्चों के जवाब वे मुझे भी दिखाने लगे। बच्चों के साथ बातचीत हो ही रही थी कि एकाएक ही गुरुजी ने एक बच्चे की ओर इशारा कर मुझसे कहा, “यह लड़का सीख नहीं पा रहा है। बाकी तो सब जानते हैं...ये रोज़ आते हैं। इनसे पूछ लो कुछ भी।”
गुरुजी कक्षा चार के बच्चों को जोड़ पर काम करवा रहे थे। मैंने भी उनके साथ कक्षा तीन के बच्चों के साथ मौखिक जोड़-घटाव पर बच्चों के साथ काम किया तो एक बच्चे ने पीछे बैठे एक बच्चे के बारे में मुझे बताया कि, “या तो काई कोणी आवे।”
इसी विद्यालय में हिन्दी की एक शिक्षिका ने अनियमित आने वाले कुछ बच्चों की ओर इशारा करते हुए कहा, “ये दो-तीन बच्चे हैं जो सीख नहीं पा रहे। यह (एक बच्चे का नाम लेते हुए) तो रोज़ आता है फिर भी कुछ नहीं सीखा सर, क्या करें?”

विद्यालय: दो 
इस विद्यालय में हम सभी पहली बार गए थे। प्रात:कालीन सभा की प्रार्थना के बाद प्रधानाध्यापक से कार्यक्रम के बारे में बातचीत करने, उनके साथ कक्ष में पहुँचे। बातचीत शु डिग्री होती इससे पहले तीन शिक्षक भी कक्ष में आ गए। ठीक से परिचय हुआ तो वे स्वत: ही विद्यालय की कई समस्याएँ हमें बताने लगे जैसे, माता-पिता का जागरूक ना होना, बच्चों का गृहकार्य न करके लाना, प्रायवेट स्कूलों की वजह से नामांकन हर साल कम होना आदि, आदि। ये सभी समस्याएँ बताते हुए एक शिक्षक ने कहा, “फिर भी जो बच्चे नियमित आते हैं आप उनका स्तर देख लो। हमारे बच्चों का अन्य स्कूलों से अच्छा ही होगा।” एक अन्य शिक्षक ने सहमति जताते हुए कहा, “जो बच्चे नियमित आ रहे हैं उनका स्तर आपको अच्छा ही मिलेगा और जो नियमित आ ही नहीं रहे हैं वो कैसे सीखेंगे।” तीसरे शिक्षक ने कहा, “नहीं सर, स्तर तो अच्छा है पर मेरी कक्षा के कुछ बच्चे (चार बच्चों के नाम लिए) तो नियमित आते हैं फिर भी नहीं सीख पा रहे, क्या करूँ?” पहले वाले शिक्षक ने फिर से कहा, “अब सर, ये बच्चे तो मन्दबुद्धि हैं, उनका क्या करें। वो नहीं सीख पाएँगे।”

विद्यालय: तीन
मैं और मेरे एक साथी इस विद्यालय में लंच के बाद पहुँचे। विद्यालय में बच्चियाँ यहाँ-वहाँ घूम रहीं थीं। शिक्षिकाएँ कक्ष के बाहर बरामदे में कुर्सियाँ जमाए, वार्तालाप में मशगूल थीं। कक्ष में प्रधानाध्यापक जी के साथ कुछ बातचीत के बाद लगा बाहर बैठी शिक्षिकाओं के साथ सतत् एवं व्यापक मूल्यांकन जैसे ज्वलन्त मुद्दे पर कुछ बातचीत की जाए। शिक्षिकाओं के साथ औपचारिक परिचय के बाद की बातचीत में धीरे-धीरे स्कूल के और मुद्दे खुलने लगे। वही बातें, बच्चों का अनियमित आना, गृहकार्य नहीं करना आदि, आदि। इसी बातचीत में एक शिक्षिका ने कहा, “कुछ बच्चे तो सर सीख ही नहीं पा रहे। एक बच्ची है जो कुछ सीख ही नहीं पा रही।” इसी दौरान वह बच्ची शिक्षिका को स्कूल में घूमती हुई दिख जाती है। वो उसे तत्काल अपने पास बुलाकर हमें बताती है, “यही है सर वो बच्ची।” बच्ची झेंपते हुए अपनी बाजू छुड़ा अन्दर कमरे में भाग जाती है।

जो कुछ हमने कहा और सोचा
तीनों विद्यालयों के घटनाक्रम में कई सारी कॉमन बातें हम देख सकते हैं। लेकिन एक बात जिसे सुन मैं मन-ही-मन विचलित होता रहा था वो थी बच्चे/बच्ची पर मन्दबुद्धि या होशियार होने की लेबलिंग करना। हर बार हमने बेहद संजीदगी से कुछ उदाहरणों के साथ और कुछ वाकये सुनाकर शिक्षकों को उनके लेबलिंग वाले नज़रिए पर पुनर्चिन्तन के लिए विवश किया। हमने चर्चा के दौरान उन्हें बतलाया कि ऐसे बच्चे घर से स्कूल तक तो स्वयं आ जाते हैं। ये सारे बच्चे घर के काम जैसे आटा लगाना, दुकान से कुछ सामान लाना आदि सब अपने विवेक से कर लेते हैं। पेड़ पर चढ़ना, नदी में तैरना जैसे बहुत-से हुनर इन्हें आते हैं। ऐसे में सीखने की क्षमता तो इन बच्चों में भी है जिन्हें आप कमज़ोर या मन्दबुद्धि कह रहे हैं। हमारी बातों और इन उदाहरणों, वाकयों का क्या असर होगा यह तो समय बताएगा पर हमने पूरी कोशिश की।

मैंने वापस आकर सोचा कि शिक्षकों द्वारा कक्षा में मेरी उपस्थिति के दौरान ही बच्चों की लेबलिंग करने के पीछे क्या मकसद रहा होगा। मुझे कुछ बातें सूझीं -
* शायद वे यह बताना चाह रहे थे कि हम बच्चों को कितने अच्छे से जानते हैं।
* कुछ बच्चे सीख नहीं पा रहे और उनके लिए हम बहुत चिन्तित हैं।
* मैं जानता/ती हूँ कि बच्चे के न सीख पाने का कारण उसकी स्वयं की बुद्धिमत्ता में ही कुछ कमी होना है।

इस तरह के कुछ और भी मन्तव्य हो सकते हैं पर पहले दो मन्तव्य मुझे सार्थक जान पड़ते हैं। ये तो शिक्षक की एक मूलभूत ज़रूरत है कि बच्चों के शैक्षणिक स्तर का उन्हें ठीक से अन्दाज़ा हो। ऐसा होने से वे प्रत्येक बच्चे के लिए अपनी शैक्षणिक योजनाएँ और प्रभावी बना सकते हैं। लेकिन उपरोक्तविद्यालयों के घटनाक्रम को देखें तो ऐसा प्रतीत होता है कि शिक्षकों का बच्चों के बारे में उनके व्यक्तिगत स्तर और क्षमताओं की जानकारी रखने के पीछे ये उद्देश्य गौण है। यहाँ तो शिक्षकों ने स्वयं अपने मन में और बच्चों के बीच भी यह स्थापित कर लिया है कि न सीख पाने का कारण बच्चे की स्वयं की बुद्धि क्षमता है या विद्यालय में नियमित उपस्थित न होना। यहाँ तक कि बच्चे भी आपस में इस तरह की लेबलिंग और ऐसे विभाजन करने लगे हैं। मुझे यह बहुत ही चिन्ताजनक स्थिति लगती है। शोधों के ज़रिए पहले ही यह ज्ञान निर्मित हो चुका है कि बच्चों के सीखने को शिक्षक की मान्यताएँ और नज़रिया काफी हद तक प्रभावित करते हैं। यह बहुत सामान्य-सी बात है कि यदि हम किसी व्यक्तिया बच्चे को किसी दूसरे व्यक्ति या समूह के समक्ष कमज़ोर या निम्न दर्ज़े का बताएँगे तो उस व्यक्तिकी अस्मिता को चोट पहुँचेगी और ऐसा चलते रहने पर वह कभी अपने आप को सीखने-सिखाने की प्रक्रियाओं से जोड़ नहीं पाएगा।
हालाँकि यहाँ पर मैंने केवल तीन स्कूलों में हुई बातचीत के उदाहरण दिए हैं लेकिन शिक्षकों द्वारा बच्चों के बारे में ऐसी टिप्पणियाँ प्रशिक्षणों और अनौपचारिक बातचीत में गाहे-बगाहे सुनाई दे ही जाती हैं।

ध्यान रहे, इस पूरे लेखन में अपनी बात रखने का मेरा उद्देश्य कदापि यह स्थापित करना नहीं है कि बच्चों के साथ ऐसे व्यवहार के पीछे केवल ये शिक्षक ही दोषी हैं। शिक्षक ऐसा क्यों करते हैं इसका अलग से एक समाजशास्त्रीय और मनोवैज्ञानिक विश्लेषण किया जा सकता है, और शायद इस पर एक अलग से अध्ययन और लेखन की ज़रूरत भी है। लेकिन इस लेख में मेरा मुद्दा एक गहरे अन्तर्विरोध की ओर संकेत करना है जो कि हमारे शिक्षक वर्ग के मन में जड़ें जमाए बैठीं इन मान्यताओं, विश्वासों और सतत् एवं व्यापक मूल्यांकन की अवधारणा के बीच है।

सी.सी.ई. का दस्तावेज़
राजस्थान प्रारम्भिक शिक्षा परिषद द्वारा सतत् एवं व्यापक मूल्यांकन की समझ के लिए जारी किए गए एक दस्तावेज़ के पृष्ठ-4 पर ग़्क्क़ 2005 से लिया गया यह उद्धरण इस बात को एकदम स्पष्ट रूप से व्यक्त करता है-
“बच्चों को नाम देना जैसे - धीमी गति से सीखने वाला/ होशियार/समस्यात्मक विद्यार्थी - ऐसे विभाजन अधिगम की सारी ज़िम्मेदारी विद्यार्थी पर डाल देते हैंै व शिक्षणशास्त्र की भूमिका पर से ध्यान हटा देते हैं।”

विद्यालयों की घटनाओं को उपरोक्तबात के सन्दर्भ में देखा जाए तो इनके बीच साफ तौर पर एक अन्तर्विरोध नज़र आता है। इन घटनाओं से एकदम विपरीत ही संकेत मिल रहे हैं। शायद दस्तावेज़ में लिखी हुई बात की समझ पूरी तरह से अभी शिक्षक साथियों तक पहुँची नहीं है।
सतत् एवं व्यापक मूल्यांकन की अवधारणा का एक उद्देश्य भी यही है कि बच्चों के स्तर के आकलन का उपयोग शिक्षक अपनी योजना में रणनीतिक बदलाव करने और उसे प्रभावी बनाने के लिए करें, न कि आरम्भिक स्तर के बच्चों पर फेल-पास या किसी और तरह का ठप्पा लगाने के लिए।

स्थितियों को समझने पर विचार यह आता है कि जब तक हमारे शिक्षक बच्चों के सीखने-सिखाने से जुड़ी आधारभूत मान्यताओं को आत्मसात न कर लें तब तक सतत् एवं व्यापक मूल्यांकन जैसे बड़े बदलाव को अमल में लाना बहुत दूर की उम्मीद है। और अगर इसे लागू किया भी जाएगा तो शिक्षक समाज शायद इस अवधारणा के साथ न्याय नहीं कर पाएगा। अभी तक के विद्यालयों के अवलोकन तो इसी बात को पुख्ता करते नज़र आ रहे हैं। यही स्थिति रही तो कल्पना कीजिए हमारे यही शिक्षक कुछ माह पश्चात् सतत् एवं व्यापक मूल्यांकन के दस्तावेज़ों की पूर्ति कर रहे होंगे और किसी जानकार आगन्तुक के आने पर भरी कक्षा में बड़ी ही साफगोई और मासूमियत से कह रहे होंगे, “देखिए साब, ये तो वे 3 बच्चे हैं जो रोज़ आते हैं और सीखते हैं और इनकी तो ॠ-ग्रेड है और ये 4 बच्चे ऐसे हैं जिनका कुछ भी कर लो साब ये पहले भी नहीं सीखे और अब भी क-ग्रेड में हैं। चाहे तो आप इनका पोर्टफोलियो भी देख सकते हैं। तो अब करें क्या?”

इस पूरे परिदृश्य में अब क्या किया जाए, गोया कि सरकार को तो इसे लागू करना ही होगा। यह सवाल मन में आते ही मुझे लगता है कि रीडिंग कैम्पेन की भाँति व्यापक स्तर पर एक अभियान चलाकर इस तरह की मान्यताओं और नज़रिए पर शिक्षक समुदाय को सोचने हेतु प्रेरित किया जाए और दूसरी ओर सभी ज़िलों में सतत् एवं व्यापक मूल्यांकन की समझ रखने वाले स्रोत समूह का निर्माण हो और समूह ब्लॉक स्तर पर होने वाली सतत् एवं व्यापक मूल्यांकन की मासिक बैठकों में इस विषय पर शिक्षकों के साथ गहन चर्चा करे। तब ही सतत् एवं व्यापक मूल्यांकन को अमल में लाने का कुछ धरातल तैयार होगा।



दिलिप चुघ: हिन्दी साहित्य में स्नातकोत्तर और शिक्षा में स्नातकोत्तर जारी। पिछले 12 वर्ष शिक्षा में अलग-अलग संस्थाओं के साथ काम में बिताए। फिलहाल, अज़ीम प्रेमजी फाउण्डेशन, टोंक में कार्यरत। बच्चों की आरम्भिक शिक्षा से जुड़े मुद्दों पर अध्ययन, लेखन और विमर्श में रुचि।
सभी चित्र व सज्जा: कनक शशि: स्वतंत्र कलाकार के रूप में पिछले एक दशक से बच्चों की किताबों के लिए चित्रांकन कर रही हैं। एकलव्य, भोपाल के डिज़ाइन समूह के साथ कार्यरत।
इन स्कूलों में भ्रमण सत्र 2014-15 में किया गया था।