विनता विश्वनाथन   [Hindi PDF, 268 kB]

छत्तीसगढ़ में जगदलपुर से कुछ दूर, कांगेर घाटी राष्ट्रीय उद्यान में कांगेर नदी के तट पर, सतह से कुछ 35 मीटर नीचे कोटमसर गुफा है। घने जंगलों के नीचे यह भूमिगत गुफा एक कि.मी. से अधिक लम्बी है। गुफा में उतरने के लिए चट्टानों के बीच का रास्ता संकीर्ण है (चित्र-1) लेकिन कोटमसर गुफा अन्दर से विशाल है। कहीं-कहीं उसकी छत 10-15 मीटर ऊँची है और चौड़ाई इससे भी अधिक। इस गुफा में इतना अँधेरा है कि आप अपनी आँखें बन्द या खुली रखें, कोई फर्क नहीं पड़ता। यदि हाथ में पकड़ी टॉर्च को बन्द कर दें तो गुफा के अन्दर एक कदम भी आगे चलना मुश्किल हो जाता है। गुफा में छत से लटकती और ज़मीन पर से उभरती शंकु जैसी विशाल और सुन्दर पथरीली संरचनाएँ हैं (चित्र-2)। ये चूने पर से होकर टपकते हुए पानी में घुले लवण के जमने से बनती हैं।

गुफा में कई जगह पोखर हैं और बरसात के मौसम में यहाँ प्राय: बाढ़ आ जाती है। साल के बाकी महीनों में यहाँ रिसाव का पानी पोखरों में आता रहता है। गुफा के तापमान में अधिक उतार-चढ़ाव नहीं होता - हवा का तापमान सालभर 25दृक् से 32दृक् के बीच रहता है और पानी का लगभग 22दृक् से 30दृक् तक। गुफा में इतनी उमस है कि सर्दी के मौसम में भी पसीना छूटता है, और आप गुफा के मुँह से वाष्प निकलती देख सकते हैं। कोटमसर गुफा में ऑक्सीजन की मात्रा बाहर की तुलना में कम है। यह न सोचें कि गहरे अँधेरे, कम ऑक्सीजन और अन्य कठोर परिस्थितियों के कारण यहाँ कोई जीव नहीं रहता, यहाँ भी कई जीव-जन्तु रहते हैं। 

कोटमसर गुफा के जन्तु
गुफा की दीवारों पर चिपके छोटे चमगादड़, पोखर में बड़ी-बड़ी आँखों वाला मेंढक और पत्थरों के पीछे छिपे झिनझिनाते हुए झींगुर, सब गुफा के वासी हैं। यहाँ एक जीव, जो काफी प्रख्यात है। वह गुफा के पानी में रहने वाली मछली की एक प्रजाति है जो लगभग अन्धी है। इसका स्थानीय नाम है कानी मछरी। गुफा के पास कोटमसर गाँव के लोगों का कहना है कि उनको 1900 के करीब गुफा का पता चला जब घूमते-घामते कुछ लोग उसके मुँह तक पहुँचे। विज्ञान को इस मछली की जानकारी 1958 में प्राप्त हुई और इसका वैज्ञानिकनाम है Nemacheilus evezardi (चित्र-3)।

एक ही प्रजाति की किस्में
N. evezardi छत्तीसगढ़, ओडीशा, तेलंगाना, महाराष्ट्र और नेपाल की नदियों व पहाड़ी नालों में पाई गई है। लेकिन कोटमसर की कानी मछरी इन बहते पानी वाली नदी-नालों की मछलियों से कुछ अलग है। कानी मछरी N. evezardi प्रजाति की एक किस्म है जो खास गुफाओं में पाई जाती है। इस किस्म को हाइपोजीयन फॉर्म कहते हैं (हाइपोजीयन अर्थात् गुफाओं में, भूमिगत रहने वाले)। बाहर की मछलियों के शरीर पर गहरे रंग के लम्बवत पट्टे होते हैं। इनकी तुलना में हाइपोजीयन मछलियाँ, जिनमें कुछ विविधता है, अलग दिखती हैं - इनके शरीर पर पट्टियाँ नहीं होती हैं। इसके अलावा कुछ हाइपोजीयन मछलियाँ बहुत ही हल्के रंग की होती हैं और उनके शरीर पर धब्बे दिखते हैं; इनकी आँखें बाहर की मछलियों की तुलना में छोटी हैं (regressed eyes)। और कुछ मछलियाँ तो रंगहीन (depig-mented) होती हैं और इनकी आँखें काफी छोटी होती हैं (चित्र-3)। व्यवहार में भी कानी मछरी नदी-नालों की मछलियों से कुछ अलग है। नालों में रहने वाली N. evezardi 5-7 से.मी. लम्बाई की हैं, तल पर रहती हैं और झुण्ड में रहती हैं। दिन भर पत्थरों के नीचे छिपती हैं और सांझ को ये सक्रिय हो जाती हैं। इनकी तुलना में भूमिगत, हाइपोजीयन N. evezardi 3-4 से.मी. लम्बाई की हैं और अकेले ही पाई गई हैं। ये गुफा के पोखरों में पत्थरों के बीच ही नहीं, तल की मिट्टी खोदकर भी उसमें छिपती हैं। समय-समय पर पानी की सतह पर आकर हवा के घूँट भरती हैं - शायद इसलिए कि गुफा के पानी में ऑक्सीजन की मात्रा कम है (देखिए बॉक्स)।

मछलियों में ऑक्सीजन हासिल करने के तरीके

ज़्यादातर मछलियाँ पानी में घुली हुई ऑक्सीजन को अपने गिल द्वारा हासिल करती हैं। लेकिन ऐसी भी मछलियाँ हैं जो हवा से ऑक्सीजन हासिल कर सकती हैं। इनमें शामिल हैं कई लंगफिश जिनके फेफड़े हैं। समय-समय पर पानी की सतह पर आकर ये मुँह में हवा भरती हैं ताकि वे कुछ समय के लिए पानी के अन्दर रह सकें। कुछ अन्य मछलियों में हवा और पानी, दोनों से ऑक्सीजन हासिल करने की क्षमता होती है। ये सामान्यत: गिल के ज़रिए पानी से ऑक्सीजन हासिल करती हैं, लेकिन जब पानी में ऑक्सीजन की मात्रा कम हो जाती है तब पानी की सतह पर आकर मुँह में हवा भरती हैं। इनमें भी कुछ लंगफिश हैं जिनमें गिल और फेफड़े, दोनों होते हैं और कई अन्य मछलियों में गिल और गिल के पास एक अंग होता है जो हवा से ऑक्सीजन सोख सकता है जिसे ऐक्सेसरी रेस्पीरेटरी ऑर्गन कहते हैं।

कानी मछरी की खोज रायपुर के पण्डित रविशंकर शुक्ल यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं द्वारा हुई। और आज भी इन मछलियों पर शोध जारी है। बाहर नदी-नालों में रहने वाली मछलियों का व्यवहार दिन-रात के चक्र से ताल-मेल रखता है। आम तौर पर ज़्यादातर जीव ऐसे हैं जो दिन या रात के किन्हीं नियमित समय पर सक्रिय हो जाते हैं। ये सूर्य की रोशनी के कम-ज़्यादा होने से जुड़ा है। तो एकदम अँधेरे में अपना जीवन बिताने वाली मछलियों को समय का कैसे पता चलता है - कब सक्रीय हों और कब आराम करें? इनके अन्दर की घड़ी कैसे सेट होती है? क्या इन मछलियों के व्यवहार का कोई पैटर्न है? पता लगा है कि ये मछलियाँ भी सांझ के समय सक्रिय होती हैं - ये कैसे होता है? इन सवालों पर और अन्य रोचक सवालों पर कुछ वैज्ञानिक काम कर रहे हैं।

लेकिन इस लेख में हम कानी मछरी के एक ऐसे गुण पर चर्चा करेंगे जिसके कारण वह प्रख्यात हुई है - उसकी बहुत ही छोटी आँखें। अब N. evezardi की कोटमसर गुफा में रहने वाली आबादी के सदस्य अपना जीवनकाल इसी गुफा में बिताते हैं। यहीं प्रजनन करते हैं और यहीं मर जाते हैं। मछलियों की इस आबादी का प्राकृतवास (habitat) यही है और ये इसी के प्रति अनुकूलित हैं। आँखों की बात करें तो हमेशा अँधेरे में रहने वाले जीव आम तौर पर दो किस्म के होते हैं -- बड़ी-बड़ी आँखों वाले जो कम-से-कम रोशनी भी अपनी आँखों में ले पाते हैं, और छोटी या बिना आँखों वाली मछलियाँ जो किसी अन्य तरीके से अपने पर्यावरण को समझ लेती हैं। कानी मछरी इस दूसरे किस्म की है। लेकिन इसकी आँखें छोटी कैसे और क्यों हुईं?

इन मछलियों के पूर्वज की आँखें थीं। आँखों का होना या न होना, इसे तय करने के कई गुण आनुवंशिक हैं। तो आँखों से सम्बन्धित आनुवंशिक सामग्री में बदलाव के होते ही आँखों में बदलाव हो सकते हैं। गुफा की सामान्य आँखों वाली N. evezardi की आबादी में यह कैसे हुआ कि छोटी आँखों वाली मछलियाँ पैदा होने लगीं? किसी अंग का अगर कुछ पीढ़ियों द्वारा उपयोग न हो तो किन कारणों से वह उनके सन्तानों से खो जाता है? यह समझ में आता है कि अँधेरी गुफा में आँखों का उपयोग नहीं, लेकिन मछलियों में वे ऐसे ही क्यों नहीं बनी रहीं?

छोटी आँखों का जैव-विकास
कानी मछरी पर ऐसा शोध हुआ नहीं है जिससे इन सवालों का जवाब मिल जाए। लेकिन भूमिगत गुफाओं के पानी में रहने वाली मछलियाँ अक्सर अन्धी होती हैं। N. evezardi की तरह उत्तर अमेरिका में मीठे पानी में पाई जाने वाली एक मछली है - मैक्सीकन टैट्रा, जिसका वैज्ञानिक नाम Astyanax mexicanus है। इसकी लगभग 30 हाइपोजीयन किस्में हैं जो गुफाओं के पानी में पाई जाती हैं। इन्हें मैक्सीकन केवफिश कहते हैं और इन सब की आँखें नहीं हैं। शोध-अध्ययनों से पता चला है कि इनकी पूर्वज मछलियों की आँखें थीं, नदियों में रहने वाली वर्तमान A. mexicanus की तरह। यानी कि अँधेरी गुफाओं में रहने वाली इन मछलियों ने अपनी आँखें खोई हैं।

मैक्सीकन केवफिश का 1936 में पता चला और उस समय से आज तक इन मछलियों पर काफी शोध हुआ है। 1930 और 1940 के दशकों में केवफिश और टैट्रा को प्रयोगशाला में साथ पालकर पता चला कि आपस में उनके बच्चे हो सकते हैं। 1970 के दशक में सतही और भूमिगत मछलियों की जेनेटिक जाँच से पता चला कि उनमें इतनी समानताएँ हैं कि वे अलग-अलग जीनस ही नहीं, अलग-अलग प्रजाति की भी नहीं मानी जा सकती हैं - एक ही प्रजाति की ये दो किस्म हैं। बाहर की नदियों से गुफाओं में A. mexicanusशायद पास बहने वाली नदियों में बाढ़ के पानी से पहुँचीं। गुफाओं में आने के बाद किन्हीं कारणों से ये सतही मछलियों से कम-से-कम 10 हज़ार सालों से (और 20 लाख सालों तक) अलग रही हैं। इस दौरान इनका विकास हुआ और गुफाओं में रहने वाली मछलियों में कई बदलाव हुए - आँखों का गायब हो जाना, रंग हल्का हो जाना, झुण्ड में न रहना (अकेले रहना) इत्यादि।

A. mexicanusकी कुछ आबादियाँ क्यों अन्धी हुईं (और यह बार-बार भूमिगत व गुफाओं की मछलियों में क्यों होता है), इसका अन्दाज़ा लगाया जा सकता है। अन्य शोध से हमें पता है कि आँखों के निर्माण और इस्तेमाल में काफी ऊर्जा की खपत होती है। अँधेरी गुफा में अगर ये काम की नहीं थीं, तो इनको खोना मछलियों के लिए फायदेमन्द था।

यह कैसे हुआ, इसका हाल ही में 2013 में हावर्ड मेडिकल स्कूल के निकलस रोह्नर और उनके साथियों ने पता लगाया है। मैक्सीकन टैट्रा व केवफिश के साझे पूर्वज से केवफिश के विकास को समझने में एक बहुत बड़ी चुनौती थी। वो यह थी कि जब सतही मछलियों की आबादियों में बहुत छोटी आँखों वाली या बिन आँखों वाली मछलियाँ नहीं थीं, तो वे गुफाओं की आबादियों में कैसे आ गईं? हम सब ने पढ़ा है कि जैव-विकास पहले से मौजूद विविधता पर ही काम कर सकता है। तो सवाल था कि हज़ारों-लाखों साल पहले A. mexicanusकी आबादियों में आँखों के विविध आकार कैसे आए।

रोह्नर और साथियों को अन्य शोध से पता था कि जब प्रयोगशाला में पले कुछ जीवों को किसी तनावपूर्ण वातावरण में लाते हैं तो उनमें छिपी विविधता प्रकट हो जाती है। यह असर कृत्रिम रूप से भी पैदा किया जा सकता है - अगर मछलियों को रैडिसिकॉल नामक दवा की मौजूदगी में पाला जाए। तो पहले प्रयोगशाला में टैट्रा और केवफिश के बच्चों को रैडिसिकॉल दिया गया। रोह्नर ने पाया कि इन मछलियों की अगली पीढ़ी में छोटी-बड़ी, दोनों आकार की आँखें दिखने लगीं। तो यह पता चल गया कि मछलियों में यह विविधता छिपी है। फिर उन्होंने यह देखना चाहा कि सतही मछलियों को नए वातावरण में लाया जाए (जो अक्सर तनावपूर्ण होते हैं), तो क्या ऐसा होता है। वे शायद उन घटनाओं की नकल करने की कोशिश कर रहे थे जब टैट्रा गुफाओं में पहुँची होंगी।

सतही मछलियों को गुफा जैसी परिस्थितियों में रखने से पहले शोधकर्ताओं ने पता किया कि बाहर के मीठे पानी और गुफा के पानी में क्या अन्तर है - तापमान, अम्लीयता, घुलित ऑक्सीजन आदि। सबसे बड़ा अन्तर पानी के खारेपन में पता चला - बाहर के पानी की तुलना में गुफा के पानी का खारापन काफी कम था। तो फिर प्रयोगशाला में इन वैज्ञानिकों ने गुफा जैसे पानी एवं वातावरण में बाहर की मछलियों के भ्रूण को पाला। इस नए वातावरण में पली मछलियों की आँखों के आकार में काफी विविधता दिखी। कुछ मछलियों की आँखें बहुत ही बड़ी थीं और कुछ की बहुत ही छोटी। जब छोटी मछलियों का अलग से प्रजनन किया तो देखा कि ये लक्षण - छोटी आँखें - उनकी सन्तान में भी पाए गए। तो एकदम अलग व नए वातावरण में आने के कारण आँखों में विविधता काफी अधिक दिखने लगी। यह तो हम नहीं कह सकते कि मैक्सीकन केवफिश के पूर्वजों को भी पानी के खारेपन में फर्क का सामना करना पड़ा होगा लेकिन हमें इतना तो पता है कि इन मछलियों में तनाव के कारण छिपी विविधता प्रकट हो सकती है।

इसके आगे की कहानी का हम अन्दाज़ा ही लगा सकते हैं क्योंकि इसके बाद जो गुफाओं में मछलियों की आँखों में परिवर्तन हुए होंगे, उन परिवर्तनों को होने में अनेक पीढ़ियाँ, हज़ारों-लाखों साल लगे। चूँकि आँखें ऐसे अंग हैं जिनको बनाए रखने में शरीर की काफी ऊर्जा खर्च होती है, छोटी आँखों वाली मछलियाँ आँखों के प्रति कम ऊर्जा खर्च करती होंगी और उस ऊर्जा का इस्तेमाल कहीं और कर पाती होंगी। शायद ज़्यादा तेज़ तैर पाती होंगी, जिसकी वजह से प्रजनन-साथी आसानी से मिल जाते होंगे, या शायद ज़्यादा शुक्राणु पैदा कर पाती होंगी इत्यादी। अगर ऐसे किसी कारण से ये छोटी आँखों वाली मछलियाँ अगली पीढ़ी में ज़्यादा सन्तान पैदा करतीं, तो अगली पीढ़ी में ज़्यादा छोटी आँखों वाली मछलियाँ अधिक अनुपात में होतीं। और इनमें से अगर सबसे छोटी आँखों वाली मछलियों का इसी कारण अगली पीढ़ी में ज़्यादा योगदान होता, तो गुफा की मछली की आबादी की आँखें और छोटी होतीं। ऐसा होते-होते कई पीढ़ीयों बाद, हो सकता है कि मछली की आबादी में सिर्फ वो मछलियाँ रह गईं जिनकी आँखें कमज़ोर या बिलकुल नहीं थीं; हम कह सकते हैं कि यहाँ की मछलियाँ अन्धी हो गईं।

यह ज़रूरी नहीं है और अक्सर अनेक कारणों से यह मुमकिन भी नहीं है कि A. mexicanus व N. evezardi जैसी हर मछली पर समान शोध हो। लेकिन इन दोनों मछलियों की समानताएँ देखते हुए इस समय हम बस इतना कह सकते हैं कि शायद कानी मछरी की छोटी आँखों के पीछे की कहानी भी मैक्सीकन केवफिश के जैसी हो सकती है।

गुफाओं में रहने वाले जन्तुओं के अन्धेपन और छोटी आँखों पर चर्चा चार्ल्स डार्विन के समय से चल रही है। डार्विन ने खुद अपनी किताब द ओरिजिन ऑफ स्पीशीज़ में इनके बारे में लिखा है। उन्होंने अपने और अन्य लोगों के अवलोकन की ओर ध्यान खींचते हुए कहा कि अँधेरी गुफाओं में रहने वाले कई जन्तु अक्सर अन्धे या छोटी आँखों वाले होते हैं। इनमें कीट, केकड़ा, चूहा और मछली शामिल हैं। कई बार इन जानवरों से मिलते-जुलते जीव गुफाओं के बाहर मिल जाते हैं जो सिर्फ इस एक मायने में इनसे अलग हैं - आँखें। तो उनको लगा कि बाहर के जन्तुओं ने गुफाओं में बसने के बाद अपनी आँखें खोई हैं, और यह उनके उपयोग न करने के कारण ही हुआ है और प्राकृतिक चयन के कारण ही हुआ होगा। आनुवंशिकता कैसे काम करती है, एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में गुण कैसे पहुँचते हैं, इस प्रक्रिया की जानकारी के न होते, डार्विन और अन्य वैज्ञानिक इसके आगे नहीं बढ़ पाए।

A. mexicanus पर शोध के कारण ही हमें पता चला है कि गुफाओं के जन्तुओं में अन्धेपन या छोटी आँखों का जैव-विकास कैसे हुआ होगा। कानी मछरी के अलावा भी कई रोचक जीव हैं जिनके लिए भूमिगत गुफाएँ प्राकृत-वास हैं। उनके बारे में चर्चा शायद फिर कभी करेंगे।


विनता विश्वनाथन: ‘संदर्भ’ पत्रिका से सम्बद्ध हैं।