हाल ही में एम.एस. स्वामीनाथन रिसर्च फाउंडेशन द्वारा ‘लचीले खाद्य, पोषण और आजीविका के लिए विज्ञान: समकालीन चुनौतियां’ विषय पर एक वर्चुअल कसंल्टेशन आयोजित किया गया था। इसमें कैलिफोर्निया युनिवर्सिटी के ब्रूस एल्बर्ट्स ने विज्ञान शिक्षा पर बहुत ही प्रासंगिक व्याख्यान दिया। व्याख्यान का विषय था विज्ञान संप्रेषण। यह विषय हमारे यहां निकट भविष्य में लागू की जाने वाली नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति के संदर्भ में विशेष रूप से प्रासंगिक है।
प्रो. एल्बर्ट्स विज्ञान संप्रेषण में भागीदारी के लिए पूरी दुनिया में जाने जाते हैं। वे साइंस पत्रिका के मुख्य संपादक रह चुके हैं। उनकी किताब मॉलीक्यूलर बॉयोलॉजी ऑफ सेल (कोशिका का आणविक जीव विज्ञान) जीव विज्ञान के किसी भी स्नातक छात्र के लिए ‘बाइबल’ है। मैं यहां उनके उपरोक्त व्याख्यान की कुछ मुख्य बातों का ज़िक्र करूंगा।
विज्ञान शिक्षा पर बात करने से पहले प्रो. एल्बर्ट्स भौतिक विज्ञानी पियरे होहेनबर्ग के कथन की याद दिलाते हैं, “किसी भी वैज्ञानिक का काम छोटे एस (‘s’) से शुरू होने वाला साइंस (विज्ञान) होता है, स्वतंत्र वैज्ञानिकों द्वारा कई बार परीक्षण किए जाने के बाद यह छोटा एस (‘s’) सामूहिक सार्वजनिक ज्ञान के रूप में बड़े एस (‘S’) में बदलता है जो विरोधाभास से मुक्त और सार्वभौमिक होता है।” (किसी वैज्ञानिक द्वारा किया गया दावा जब तक अन्य वैज्ञानिकों द्वारा उसी प्रक्रिया से पुन:प्राप्त नहीं किया जाता, तब तक वह सिर्फ दावा रहता है सत्य नहीं)। उदाहरण के लिए, नॉर्मन बोरलॉग ने खोज की थी कि मेक्सिकन बौने किस्म के गेहूं के पौधे उच्च पैदावार देते हैं; इसका एम.एस. स्वामीनाथन द्वारा स्वतंत्र रूप से परीक्षण किया गया और सत्य साबित किया गया। इस खोज ने आगे चलकर भारत में हरित क्रांति का मार्ग प्रशस्त किया; या यूं कहें कि इस प्रक्रिया में नॉर्मन बोरलॉग की खोज साइंस के ‘s’ से ‘S’ में बदल गई, और सामाजिक रूप से मूल्यवान के रूप में पहचानी और स्वीकार की गई। इसे एक ट्रांसलेशनल रिसर्च के रूप में भी जाना जाता है (बेशक, ‘s’ का तात्पर्य यहां STEM के सभी क्षेत्रों, यथा चिकित्सा, कृषि और सामाजिक विज्ञान से भी है)।
प्रो. एल्बर्ट्स विज्ञान शिक्षा पर अपनी बात की शुरुआत इस कथन से करते हैं कि हरेक बच्चा एक वैज्ञानिक है। कितनी सही बात है! चाहे शिशु हो या स्कूली छात्र हों, वे अपने आसपास के परिवेश, आसपास के लोगों, जानवरों, पेड़-पौधों, मिट्टी और धूल से वाकिफ होते हैं। बच्चे उत्सुक प्रेक्षक होते हैं। जानकारी इकट्ठी करना उनके स्वभाव में होता है। उनकी इस क्षमता को बढ़ावा देने और फलने-फूलने का मौका देने के लिए अमेरिका के कई स्कूलों में ‘व्हाइट सॉक्स’ नामक प्रयोग किया गया था।
व्हाइट सॉक्स प्रयोग
इस प्रयोग में 5 साल की उम्र के स्कूली बच्चे शामिल थे। प्रयोग में शामिल हरेक बच्चे से अपने जूते उतारने के लिए कहा गया और सिर्फ सफेद मौज़े (जो उनकी युनिफॉर्म का हिस्सा थे) पहनकर पूरे परिसर में घूमने को कहा गया। इसके बाद उन्हें उनके मौज़ों पर चिपके हुए कणों को इकट्ठा करने और उन्हें वर्गीकृत करने को कहा गया: इनमें से कौन-से बीज हैं, और कौन-से महज़ धूल-मिट्टी? इसके बाद शिक्षक ने हरेक छात्र से स्टैनफोर्ड युनिवर्सिटी द्वारा विकसित कम लागत वाले माइक्रोस्कोप का उपयोग कर इन कणों का विश्लेषण कर इस बात की पुष्टि करने के लिए कहा कि बीज और धूल के लिए जो उनके निष्कर्ष थे क्या वे सही हैं। (माइक्रोस्कोप के लिए देखें https://www.foldscope.com/)। कई छात्रों ने माइक्रोस्कोप विश्लेषण कर अपने अनुमान की पुष्टि की कि नियमित आकार वाले कण वाकई बीज हैं। वे माइक्रोस्कोप में अपने दोस्तों के नमूनों को देखकर इस बात की जांच भी कर सकते थे कि उनके दोस्तों के निष्कर्ष सही हैं या नहीं। ‘व्हाइट सॉक्स’ अध्ययन ऐसे ही सरल प्रयोगों का एक समूह था जिसमें तकनीक का उपयोग, अनुमान की जांच और आपस में समीक्षा शामिल थी।
भारत का डिपार्टमेंट ऑफ बायोटेक्नॉलॉजी (डीबीटी) प्रो. मनु प्रकाश की प्रकाश लैब से कम लागत वाले फोÏल्डग माइक्रोस्कोप खरीदकर कई छात्रों को देने की तैयारी कर रहा है। (देखें <ted.com/talk by Manu Prakash>)
भारत में अमल
यह अच्छी बात है कि पूरे भारत में कई भाषाओं में काम करने वाले कई एनजीओ हैं जो विज्ञान को आसान/लोकप्रिय बनाने का प्रयास कर रहे हैं, और राज्य और राष्ट्रीय विज्ञान अकादमियां और सरकारी एजेंसियां इन प्रयासों का समर्थन भी कर रही हैं। ये संस्थाएं व्हाइट सॉक्स प्रयोग में स्थानीय परिस्थितियों के हिसाब से परिवर्तन कर इसे आसानी से अपना सकती हैं। मीडिया भी छात्रों और नवाचारियों के स्थानीय प्रयासों को उजागर करने में अपनी भूमिका निभा सकता है। नई शिक्षा नीति के तहत, अब इस तरह के नवाचारी प्रयोग 5+3+3+4 के स्तर (आंगनबाड़ी से लेकर कक्षा 12 तक) से लेकर विश्वविद्यालयों के माध्यम से स्नातक और उच्च शिक्षा तक किए जाने चाहिए। और, जैसा कि 4 अगस्त के दी हिंदू के अंक में प्रकाशित लेख स्कूल्स विदाउट फ्रीडम में कृष्ण कुमार कहते हैं, इन योजनाओं को बनाने व क्रियांवयन का काम स्थानीय परिवेश से परिचित शिक्षकों द्वारा किया जाना चाहिए ना कि किसी सरकारी फतवे के द्वारा।
उपयोगी संसाधन
विश्वविद्यालयों के लिए नैन्सी कोबर की किताब Reaching students: what research says about effective instruction in undergraduate science and engineering (यानी छात्रों तक पहुंचना: स्नातक स्तर पर कारगर विज्ञान व इंजीनियरिंग शिक्षण को लेकर शोध क्या कहता है) काफी उपयोगी संसाधन है। इस किताब का पीडीएफ संस्करण www.nap.edu पर मुफ्त उपलब्ध है। और वर्ल्ड साइंस एकेडमीस द्वारा शुरू किया गया एक नया प्रोजेक्ट ‘स्थानीय प्रयासों से संचालित विज्ञान’ स्मिथसोनियन साइंस एजुकेशन सेंटर के माध्यम से उपलब्ध है। इसके लिए डॉ. कैरोल ओ’डॉनेल से संपर्क कर सकते हैं: O’This email address is being protected from spambots. You need JavaScript enabled to view it.
युवा अकादमियों की भूमिका
प्रो. एल्बर्ट्स युवा वैज्ञानिकों के लिए अकादमियों की आवश्यकता पर भी ज़ोर देते हैं, जो इस प्रयास में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती हैं। अब तक 40 देशों में इस तरह की विज्ञान युवा अकादमियां स्थापित की गई हैं, जिनमें से भारत की भारतीय राष्ट्रीय युवा विज्ञान अकादमी (INYAS) एक है। आम तौर पर युवा वैज्ञानिक ‘दकियानूसी बुज़ुर्गों’ के मुकाबले अधिक सुलभ और स्वीकार्य होते हैं। तो, INYAS यह है आपकी भूमिका!(स्रोत फीचर्स)