दिशा नवानी

“कई शिक्षक बच्चों को नैतिक उपदेश देना अपना सबसे बड़ा कत्र्तव्य समझते हैं। बात-बात पर उन्हें टोकना, डराना-डमकाना या उनकी खिल्ली उड़ाना, उन्हें मानो उसमें मज़ा-सा आता है।”

दिल्ली के एक पब्लिक स्कूल से बच्चों के बीच बैठकर बटोरे अनुभवों का ब्यौरा।

पन्दह अप्रैल, 1996
समय 8:30 बजे प्रात:
कक्षा पांच का एक दृश्य

घंटी का बजना था कि बच्चों ने उछल-कूद शुरू कर दी। गणित की टीचर, जो कि पिछले आधे घंटे से ब्लैक बोर्ड पर सवाल कर रही थी, भी तुरन्त अपना बैग उठाकर कक्षा से बाहर चली गई।
“आय-हाय! हिन्दी की क्लास, अब मैडम एक घंटे तक हमें बोर करेंगी। आज तो उनके दो-दो पीरियड हैं। ”  सगलग ने मुंह बनाकर कहा।
“लगता है, हमें सुधारने का पूरा ठेका इन्होंने ही ले रखा है।”  अश्लेषा तुनककर बोली।

बच्चे गला फाड़-फाड़कर चिल्लाने लगे। छोटे से कमरे में चालीस बच्चों ने भाग-भाग कर कुछ मिनटों में पूरी ज़मीन जैसे आसमान पर उठा ली। कुछ बच्चे ‘रंगीला’ फिल्म के ‘आई-आई-ओ’ गाने पर मटक-मटककर नाचने लगे।
इतने में हिन्दी टीचर, सरला मैडम तेज़ रफ्तार से कक्षा में आई और चारों ओर नज़र दौड़ाने लगी।

“शांत हो जाइए, आप सभी! ये कोई सब्ज़ी-मण्डी नहीं है जो आप लोग इतना चिल्ला रहे हैं। आप लोगों को लज्जा नहीं आती।”
“मनु और सांचल! आप लोग इतना बेहूदा नाच क्यों कर रहे हैं। न ही गाने में कोई धुन है, न ही नाचने में कोई लचक। बस कूद-कूदकर हाथ-पैर इधर-उधर मारने को नाच नहीं कहते। जाइए, सभी अपनी-अपनी जगहों पर बैठ जाइए। नाचने का इतना शौक है तो कत्थक या भरतनाट्यम जैसा नृत्य सीखिए।” मैडम गुस्से में बोली।

मनु और सगल ने ऐसा मुंह बनाया मानो टीचर पागल हो गई हो फिर चुपचाप अपनी सीट पर बैठ गए। बाकी बच्चे अपनी हंसी रोकने की कोशिश करने लगे क्यों मैडम का तो कोई भरोसा ही नहीं था, न जाने किस बात पर किसी पर बरसना शुरू हो जाएं।

“अपनी-अपनी पुस्तक खोलिए। आज हम ‘मेरी अभिलाषा’ कविता पढ़ेगे। पहले आप लोग इस कविता को जल्दी से चुपचाप पढ़ लीजिए, फिर मैं इसकी व्याख्या करूंगी।” 

बच्चों ने कविता पर सरसरी निगाह दौड़ाई।
“पढ़ ली आप लोगों ने?” मैडम ने ज़ोर से पूछा।
ऊं-हूं! अब लाऊडस्पीकर शुरू हो गया। इसे बंद करना तो किसी के बस की बात नहीं है। रोहन अपने साथी से बोला।

“हां तो बच्चों! इसमें कवि कहना चाहता है कि मैं जो भी बनूं, एक अच्छा इंसान बनूं। मैं सूरज-सा चमकूं, चंदा-सा दमकूं। इसका मतलब है कि सूरज चांद की तरह मैं भी चमकूं। लेकिन कैसे? अच्छे कर्मों से, एक अच्छा इंसान बनकर, ताकि मेरी ख्याति भी दूर-दूर तक फैले।” 

“लेकिन भगवान ने तो चांद और सूरज को वैसा ही बनाया है। भला, इसमें उन्होंने कौन-से अच्छे कर्म किए हैं।” सांचल बुदबुदाया।

“आपको कक्षा चार वाली कहानी याद है? कैसे एक साधू को एक बिस्छू बार-बार डंक मार रहा था लेकिन साधू उसे फिर भी डूबने से बचा रहा था। बताइए, वो ऐसा क्यों कर रहा था?

“मैडम, क्योंकि वो एक अच्छा इंसान था।” आंचल अपनी आंखें मटकाते हुए बोली।
“ऊं! इस महारानी को तो जैसे सारे प्रश्नों का उत्तर पता है।” मनु चिढ़ाते हुए बोला।
“नहीं! क्योंकि साधू का कत्र्तव्य है बचाना है और बिच्छू का कत्र्तव्य है डंक मारना। इसलिए, दोनों ही अपना कत्र्तव्य निभा रहे थे।” मैडम समझाते हुए बोली।

“लेकिन आप लोगों से तो कुछ भी बोलो, आप लोग लड़ने-मरने को तैयार हो जाते हैं। यहां तक कि आजकल के बच्चों को टीचर की बातें भी बेकार लगती हैं। टीचर आती है, आधे घंटे तक बक-बक करती है, आप लोगों के कानों में तो जूं तक नहीं रेंगती।”

“अब इन्हीं को देखिए। हां, आंचल और मनु आप दोनों आपस में क्यों लड़ रहे हैं?”
“मैडम, ये मुझे बिच्छू बोल रही है।”
“तो उसके कहने से आप बिच्छू बन गए क्या? पिछली कक्षा में तुमने कबीर का दोहा तो पढ़ा ही होगा जिसमें  उन्होंने कोयल और कौए की तुलना की है। कौआ किसी से कुछ नहीं लेता, कोयल किसी को कुछ नहीं देती, फिर भी कौए की तुलना में कोयल ही श्रेष्ठ मानी गई है। क्यों?”
“हां! मतलब तो आपने सही बताया लेकिन खुद इस पर अमल नहीं कर पार्इं।

“लेकिन इसमें कौए की क्या लगती है, उसे तो भगवान ने वैसा ही बनाया है।” सांचल हिम्मत जुटाते हुए ज़ोर से बोला।
मैडम ने उसे सुनकर भी अनसुना कर दिया।
“अब, चुप रह पागल! सारा समय बकवास करता रहता है।” सगल उसका मज़ाक उड़ाते हुए बोला।
“हां, तो आप लोगों को अच्छा बनने के लिए क्या करना चाहिए।”
“मैम, हमें गरीबों की मदद करनी चाहिए। सब कुछ मिल-बांटकर खाना चाहिए।”  आंचल हाथ उठाते हुए बोली।
“मनु, तुम बोलो।”

“मैम, हमें किसी को धोखा नहीं देना चाहिए, झूठ नहीं बोलना चाहिए।”
सभी बच्चों ने उत्तर देने के लिए बेताबी से हाथ उठा लिए। कुछ सीट पर ही उचक-उचककर मैडम का ध्यान आकर्षित करने की कोशिश करने लगे।
“सभी बैठ जाइए। मैं बारी-बारी से सभी से पूछूंगी। आप बताओ अश्लेषा।”
“मैम, हमें मीठा बोलना चाहिए।”

“मीठा, और ये बोलेगी! आवाज़ तो इसकी फटे बांस जैसी है।” ध्रुव बुदबुदाया।
“क्या है ध्रुव? तुम क्या बोल रहे हो।”

“कुछ नहीं मैम। यही, कि हमें किसी के बारे में बुरा नहीं सोचना व बोलना चाहिए।”
“शबाश! अच्छा, अब आप लोग बताइए कि सुबह उठते ही आप लोग क्या करते हैं?
“ब्राश, टॉयलेट - खीं-खीं।”

“नहीं! सुबह उठते ही आप सबसे पहले धरती पर पांव रखते हैं। ये इतने विशाल ह्यदय वाली है कि आप इस पर इतनी धामा-चौकड़ी मचाते हैं लेकिन फिर भी यह आपको कुछ नहीं कहती। यह कितनी सहनशील है। आपको भी इससे सीख लेनी चाहिए।

“लेकिन इसमें धरती तो कुछ नहीं करती। उसे तो भगवान ने वैसे ही बनाया है।”  सांचल फिर हकलाते - हकलाते बोला।

“अरे, चुप कर पागल! तेरी समझ में तो कोई बात आती ही नहीं।”  सगल उसे डांटते हुए बोला।
“अच्छा अब आप लोग कुछ कठिन शब्दों के अर्थ लिख लीजिए। मैं उन्हें ब्लैक बोर्ड पर लिख रही हूं। दस मिनट बचे हैं, जल्दी से आप इन्हें अपनी-अपनी कॉपी पर उतार लीजिए।”
रोहन के पेन की स्याही खत्म हो गई और वह इधर-उधर ताकने लगा।
“मैम, देखो, रोहन क्या कर रहा है।”  ध्रुव ने मैम को आवाज़ लगाई।

फुर्ती से मैडम रोहन के पास आई और बोली, “ओहो! कक्षा में आप एक पेन भी न ला सके। युद्ध में आए हैं और हथियार लाना भूल गए। मां- बाप के लाडले बेटे होंगे। रात को बारह बजे तक टी.वी. देखा होगा और बैग् पैक करना भूल गए होंगे। जाओ, घर जाओ और हथियार लेकर आओ। इतने में ही घंटी बज गई।”

“भगवान, तेरा लाख-लाख शुक्र! ये बला तो कल तक के लिए टली। रोहन अपनी किताब बंद करते हुए बोला।
“मैं जा रही हूं लेकिन मुझे स्कूल खत्म होने से पहले किसी भी हालत में आपकी कॉपियां चाहिए।
ओफ्को। क्लास के बाद भी इन्हें चैन नहीं। आंचल, ज़रा थोड़ा-सा पानी तो दे। मनु आंचल से बोला।
“जी नहीं। मैं क्यों दूं अपना पानी। नीचे से जाकर पी ले। आंचल अपनी पानी की बोतल पकड़ते हुए बोली।
“वाह! कथनी और करनी में कितना फर्क है। क्लास में बड़ा भाषण दे रही थी - हमें गरीबों की मदद करनी चाहिए, इत्यादि-इत्यादि।” 

“ठीक है। लेकिन तुझको पानी देने से मेरे परीक्षा में ज़यादा नंबर तो आएंगे नहीं। तो मैं तुझे अपना पानी क्यों दूं।” 
इतने में मनु और सगल की आपस में हाथा-पाई होनी लगी।
“मनु के बच्चे! मैंने तुझे नकली।” सगल रोता हुआ मनु पर चिल्लाया।
“तो इसमें मेरी क्या गलती। सारी दुनिया ऐसा ही करती है। जब तुझे असली और नकली टिकट में अंतर ही नहीं पता तो इसमें मेरी क्या गलती।”  मनु सगल से अपनी कमीज़ छुड़ाता हुआ बोला।

“अरे बेवकूफो, इससे पहले कि अंग्रेज़ी की मैडम भी हमें आकर डांटे, चुप हो जाने में ही हमारी भलाई है।”  रोहन उन दोनों को छुड़ाता हुआ बोला।
“ बच्चों, बी क्वाइट! क्या यही तमीज़ आपके मां-बाप ने आपकी सिखाई है। टीचर कक्षा में प्रवेश करते ही बरस पड़ी। “हे भगवान! फिर एक और लेक्चर. . .”

इस लेख के माध्यम से मैंने दिल्ली के एक पब्लिक स्कूल की कक्षा पांच के साथ अपने अनुभव को दर्शाने की कोशिश की है। मैं पिछले एक महीने से उस स्कूल में अपने शोध कार्य के सिलसिले में जा रही हूं। बच्चों नु कुछ दिनों की हिचक के बाद मुझे अपना साथी मान लिया। उन्हें लगा कि मैं हल्ला मचाने या उछल-कूद से उन्हें रोकती नहीं हूं या टीचर की आलोचना करने पर डांटती नहीं हूं तो मुझे अपने में से ही एक मानने लगे।

मुझे लगा कि कई शिक्षक बच्चों को नैतिक उपदेश देना सबसे बड़ कत्र्तव्य समझते हैं। बात-बात पर उन्हें टोकना, डराना-धमकाना या उनकी खिल्ली उड़ाना, उन्हें मानो उसमें मज़ा-सा आता है। ऐसी स्थितियों में शिक्षकों व बच्चों के बीच का ‘पॉवर इक्वेशन’ बड़े स्पष्ट रूप से नज़र आता है। वही घिसे-पिटे उदाहरण देकर बच्चों को एक ‘आदर्श इंसान’ बनाने की अपनी कोशिश से वे बाज़ नहीं आते। बच्चे उन उदाहरणों या तुलनाओं को किस प्रकार देखते व समझते हैं, उससे उन्हें कोई मतलब नहीं। यदि सदियों से कोयल अपनी मीठी वाणी के कारण कौए से अच्छी मानी गई है तो हमें भी कोयल की तरह ही होना चाहिए। बच्चे का प्रश्न कि “इसमें कौए की क्या गलती, उसे तो वे भगवान ने वैसा ही बनाया है” या तो शिक्षकों की समझ से बाहर है; या फिर वे बच्चों की आंखों से देखने का प्रयास ही नहीं करना चाहते। बिच्छू का साधू को बार-बार डंक मारना व साधू का उसे बचाना, बच्चों को क्या, हमें भी आज के दौर में कुछ अटपटा-सा लगता है। बच्चों ने भी ऐसी स्थिति से निपटने के लिए कुछ तरीके अपना लिए हैं। शिक्षकों के सामने या तो चुप बैठे रहो या फिर जो उन्हें पसंद है वही उत्तर दो। शिक्षक को खुश करना व परीक्षा में नंबर लाना ही जब इतना ज़रूरी है तो क्यों न अपने विचारों व उत्तरों को उसी दिशा में मोड़ा जाए। वे टीचर के दिए गए उपदेशों को एक कान से सुनकर दूसरे से निकालकर, अन्य परिस्थतियों मनमानी  करते हैं। बाकि बच्चे जो अपने विचार शिक्षक के सामने रखने की हिम्मत करते हैं वे या तो शिक्षक की डांट खाते हैं, या नज़रअंदाज़ किए जाते हैं व साथ ही अपने साथियों की खिल्ली के पात्र भी बनते हैं।

शिक्षकों का बात-बात पर बच्चों को डांटना-फटकारना व नैतिक उपदेश देना किस हद तक सफल होता है यह तो हम सब जानते ही हैं लेकिन क्या हम कभी इस बेमानी परंपरा को तोड़ने का प्रयास करते हैं?


दिशा नवानी - दिल्ली के जवाहरलाला नेहरू विश्वविद्यालय के समाजशास्त्र विभाग में शोधकर्ता