कमल लोडाया, टी. वी. वेंकटेश्वरन

एक ग्रह जिसने वैज्ञानिकों को कई बरसों तक छकाया, और जब मिला भी तो गणनाओं के ज़रिए कागज़ पर मिला सबसे पहले। उसके बाद भी कितना मुश्किल था खगोल-शास्त्रियों को प्रेरित करना कि गणना से इंगित स्थान पर आकाश में झांककर तो देखो कि ये वहां है भी कि नहीं। दो शीर्ष वैज्ञानिकों की कहानी जिसके अंत-अंत में राष्ट्रवाद का पुट भी शामिल हो गया।
 
यह कहानी है कोई 150 साल पुरानी - एक आकाशीय पिंड की खोज के बारे में। मजेदार बात तो यह है कि यह खोज पहले धरती पर हुई, कागज़ों पर तर्क के सहारे। और आकाश में तो बस यह जानने के लिए। देखा गया कि क्या वो वहां है, जहां उसका होना बताया गया है।

सौर्य मंडल के ग्रह  
हमारी जो भी जानकारी है उसमें सभी सभ्यताओं का योगदान है। बेबिलोन, ग्रीक, भारतीय, चीनी सभी पुरानी सभ्यताओं का।
हमारी अपनी भारतीय सभ्यता में नवग्रह का जिक्र बार-बार आता है। लेकिन ये सभी नौ के नौ पिंड वे ग्रह नहीं हैं जिन्हें कि हम आज ग्रह मानते हैं। इन नौ ग्रहों में से दो हैं ‘सूर्य' और ‘चंद्रमा'। आज हम जानते हैं कि सूर्य एक तारा है और चंद्रमा एक उपग्रह। इसी तरह अन्य दो ग्रह हैं - राहु और केतु जो कि बिल्कुल ही काल्पनिक हैं। बाकी पांच बचते हैं बुध, शुक्र, मंगल, गुरु और शनि। ये पांचों सही मायनों में ग्रह हैं।
ये पांचों ग्रह खुले आकाश में नंगी आंखों से देखे जा सकते हैं। अन्य स्थिर तारों के सापेक्ष आकाश में इनकी स्थिति बदलती रहती है। शायद यही एक वजह है कि काफी पुराने समय से हम इनके बारे में जानते हैं।
आकाश में इन ग्रहों की गतियों को समझने के लिए अलग-अलग तरह के सिद्धांत दिए जाते रहे हैं। 16 वीं सदी में एक पोलिश खगोल-शास्त्री कोपरनिकस ने सूर्य को अपने सौर्य मंडल के केन्द्र में रखा और कहा कि ग्रह इसके चारों ओर घूमते हैं। तब जाकर यह समझ में आया कि अपनी धरती भी एक ग्रह है। तो अब हमारे पास छह ग्रह हो गए - बुध, शुक्र, पृथ्वी, मंगल, गुरु और शनि। ये सभी सूर्य के चारों ओर घूमते हैं। चंद्रमा एक उपग्रह था जो पृथ्वी के चारों ओर घूमता था।
जब इन पांचों ग्रहों को टेलिस्कोप से देखा गया तो पाया कि ये तारों की तरह नहीं बल्कि छोटी चकती (डिस्क) की तरह दिखते हैं। कभी-कभी तो इन चकतियों पर धुंधली-सी रूप-रेखाएं भी दिखती हैं। और फिर गैलीलियो ने दिखाया कि कुछेक ग्रहों जैसे कि गुरु के तो खुद के भी उपग्रह हैं जो उसके चारों ओर घूमते हैं। और अंत में आइजेक न्यूटन ने समझाया कि सूर्य के गुरुत्वाकर्षण की मदद से इन ग्रहों की आकाशीय गति को बखूबी समझा जा सकता है।

कहां था यूरेनस
यूरेनस और उसके तीन उपग्रहः यूं तो यूरेनस के उपग्रहों की संख्या काफी बड़ी है लेकिन यहां लीक वेधशाला द्वारा खींची गई तस्वीर में यूरेनस के तीन उपग्रह साफ-साफ दिखाई दे रहे हैं। चित्र में बड़ा-सा, चमकीला गोला यूरेनस है और तीर के निशान से तीनों उपग्रहों को दर्शाया गया है।

13 मार्च, 1781 - एक अंग्रेज़ संगीतज्ञ और शौकिया खगोल-शास्त्री विलियम हर्शेल अपने टेलिस्कोप से आकाश में झांक रहा था कि उसे छोटा-सा चकती सरीखा पिंड दिख गया। उसने सोचा कि यह कोई धूमकेतु है। लेकिन दरअसल वह था हमारे सौर्यमंडल का सातवां ग्रह। इस सातवें ग्रह'को नाम दिया गया यूरेनस।
लेकिन यूरेनस की कक्षा की गणना करना काफी जटिल था क्योंकि यह सूर्य के चारों ओर काफी धीमी गति से चक्कर लगाता है। लेकिन एक जर्मन खगोलशास्त्री ‘योहान बोड' ने ठान लिया कि वो यूरेनस से संबंधित सारे आंकड़े इकट्ठे करेगा।

संचार की दृष्टि से 1780 का दशक खासा मुश्किल था। लेकिन स्थितियां काफी तेज़ी से बदल रही थी। बीस सबसे पहले लंदन से ग्लासगो के सफर में दस दिन लगते थे लेकिन अब डाक भेजने के लिए घोड़ों का इस्तेमाल होने लगा था, जो डाक ले जा रहे डिब्बों को खींचने का काम करते थे। तो सन् 1800 तक आते-आते यह दस दिन का फासला सिकुड़कर तीन दिन में पूरा होने लगा।
बोड ने जो आंकड़े इकट्ठे किए उनकी सहायता से 1784 में यूरेनस की कक्षा तय की गई। यूरेनस की सूर्य से दूरी पृथ्वी से सूर्य की दूरी का उन्नीस गुना है; किलोमीटर में यह दूरी बैठेगी करीब 284 करोड़ किलोमीटर। और यूरेनस को सूर्य को एक पूरा चक्कर लगाने में 84 साल 7 दिन लगते हैं।

विलियम हर्शेल की दूरबीन: यूरेनस की खोज करने वाले विलियम हर्शेल (1738-- 1822) की विंडसर स्थित जागीर में बनाए गए बीस फीट लंबे टेलिस्कोप का एक दुर्लभ दृश्य। इस टेलिस्कोप से आकाश दर्शन करना काफी जोखिम भरा था क्योंकि इस टेलिस्कोप से चांद-तारे देखने के लिए बीस फीट की ऊंचाई पर नली के अगले सिरे के पास चढ़कर बैठना होता था। पूरी व्यवस्था इस तरह बनाई गई थी कि न सिर्फ इस नली को ऊपर-नीचे किया जा सकता था बल्कि उसे चारों ओर घुमाया भी जा सकता था।

सापेक्षिक स्थितियां: 1781 से 1840 की बीच यूरेनस और नेपच्यून की सापेक्षिक स्थितियों में आए बदलावों को यहां दिखाने की कोशिश की गई है। 1822 के पहले नेपच्यून अपनी कक्षा में यूरेनस से आगे चल रहा था और यूरेनस को खींच रहा था। जिसमे यूरेनम अपनी कक्षा में भटकन दिखा रहा था। 1822 में दोनों ग्रह युग्म बना रहे थे। इस समय यूरेनस ठीक अपनी कक्षा में रहता है। 1822 के बाद यूरेनस अपनी कक्षा में नेपच्यून से आगे चल रहा है। एक बार फिर नेपच्यून यूरेनस को खींचता है जिसकी वजह से यूरेनस फिर भटकने लगता है।

चार साल बाद 1788 में पाया गया कि यूरेनस अपनी इस निर्धारित कक्षा में न चलकर इधर-उधर खिसक रहा है। फ्रांसीसी क्रांति की आपाधापी के बीच ‘ज्यों बेपटिस्ट दिलेम्बर ने 1790 में यूरेनस की कक्षा का पुनर्निर्धारण किया।
इधर नेपोलियन द्वारा छेड़ी गई लड़ाइयों की वजह से आम जनजीवन व्यवस्थाएं तितर-बितर हो गई। 1815 तक आते-आते जब संचार के साधन फिर से स्थापित हुए, तो यह साफ होने लगा कि यूरेनस की कक्षीय गति दिलेम्बर द्वारा निर्धारित पथ से भी मेल नहीं खाती है, यूरेनस एक बार फिर इधर-उधर भाग रहा था।
इस वजह से 1820 में एलेक्सिस बोवार्ड ने पुराने अवलोकनों को दर किनार कर नई गणना करने का निर्णय लिया। उसके मुताबिक ऐसा करना इसलिए ज़रूरी था क्योंकि पहले के अवलोकनों में जितनी बारी की से गणनाओं का दावा किया गया था - उससे दस गुना की त्रुटियां पाई गईं थीं।
कई खगोल-शास्त्री बोवार्ड की गणनाओं को लेकर कुछ शंकित थे। और उन्हें ज्यादा इंतजार भी नहीं करना पड़ा - अभी चार साल भी नहीं गुजरे थे कि यूरेनस ने एक बार फिर से अपने निर्धारित पथ से भटकना शुरू कर दिया। सभी चकित थे।

यूरेनस की इस भटकन को समझाने के लिए कुल मिलाकर पांच परिकल्पनाएं पेश की गई। डाक की मदद से जल्द ही ये परिकल्पनाएं पूरे यूरोप में फैल गई। लेकिन डाक इस बार घोड़ों ने नहीं पहुंचाई बल्कि एक नए माध्यम ने यह काम अंजाम दिया वो थी रेल। ये पांच परिकल्पनाएं थीं:
1. 17वीं सदी के एक प्रसिद्ध फ्रेंच वैज्ञानिक रेने देकार्त को मानना था कि अंतरिक्ष में एक आकाशीय द्रव्य भरा हुआ है। यह यूरेनस के पथ को प्रभावित कर सकता है। लेकिन सवाल था कि अगर ऐसा है तो यह बाकी ग्रहों के पथ को प्रभावित क्यों नहीं करता?
2. अपने यानी पृथ्वी के चंद्रमा के समान यूरेनस का भी एक बड़ा उपग्रह हो सकता है। इस परिकल्पना के साथ प्रमुख आपत्ति थी कि इतने बड़े आकार के चंद्रमा को, जो कि यूरेनस के पथ को प्रभावित करता है, टेलिस्कोप से दिखना चाहिए। लेकिन किसी ने नहीं देखा ऐसा कोई उपग्रह। विलियम हर्शेल ने खुद यूरेनस के दो उपग्रह खोजे थे। लेकिन इनका आकार इतना बड़ा नहीं था कि यूरेनस को उसके पथ से डिगा सके।
3. 1781 में यूरेनस की खोज से पहले शायद कोई धूमकेतू इससे टकराया हो और इस टक्कर ने यूरेनस का कक्षीय पथ बदल दिया। हो। लेकिन बोवार्ड ने 1820 में गणनाएं की थीं और यूरेनस इनको भी नहीं मान रहा था।
4. सारी-की-सारी गणनाएं न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण सिद्धांत पर आधारित थीं। तो क्या ऐसा तो नहीं है कि यह सिद्धांत अधिक दूरी पर स्थित आकाशीय पिंडों पर लागू नहीं होता या बदल जाता है। 1682 में एक धूमकेतु दिखा था और एडमंड हैली ने न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण नियम के आधार पर घोषणा की थी कि यह 76 साल बाद फिर से वापस आएगा। यह धूमकेतु यूरेनस से आगे निकल गया और घोषणा के अनुसार1758 में वापस लौट आया।
5. और अंतिम संभावना थी कि शायद कोई एक और आठवां ग्रह हो, यूरेनस के भी आगे जो इसके कक्षीय पथ को प्रभावित करता हो।

और हैली धूमकेतु एक बार फिर से वापस आया 1835 में, वैज्ञानिकों की घोषणा के अनुरूप। इस समय तक यूरेनस को लेकर खगोलशास्त्रियों ने पहली चार परिकल्पनाएं अस्वीकृत कर दी थी और पांचवी पर अपना ध्यान केंद्रित कर लिया था।
1839 में रोलैण्ड हिल ने डाक सामग्री पर टैक्स लगाने की सोची। इसके दो साल बाद चिपकाने वाले डाक टिकट का आविष्कार हुआ और साथ ही टैक्स वसूलने का मामला आसान हो गया। कुछेक सालों में इधर-उधर भेजी जाने वाली डाक में काफी वृद्धि हो गई। साथ ही वैज्ञानिक पत्रिकाएं भी प्रसिद्ध होने लगीं जिससे वैज्ञानिक खोजों की जानकारी भी फुर्ती मे सब के पास पहुंचने लगी।

एडेम्स और लेवेरियरए
1835 में एडेम्स 18 साल का था और अन्य लोगों के समान उसने भी हैली के धूमकेतू को देखा। वह खगोल विज्ञान से काफी प्रभावित था। 18.13 में उसने कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी में परीक्षा पास की और तय किया कि वह ‘यूरेनस की पहेली' पर काम करेगा।
एडेम्स ने खगोल शास्त्र के प्रोफेसर जेम्स चालिस को बताया कि वह इस पहेली पर कैसे काम करना चाहता है। उसको विश्वास था कि आठवां ग्रह ही यूरेनस की भटकन का कारण है। चालिस ने एडेम्स को उत्साह बढ़ाया। अक्टूबर तक आते-आते एडेम्स एक संभावित हल पर पहुंच गया।
परन्तु बीच में एक खलल आ गई। इस साल के अंत में फ्रेंच विज्ञानी ‘हर्व फाए' ने एक धूमकेतु खोजा। एडेम्स ने उस धूमकेतु की कक्षा की गणना की और इस बात को भी आंका कि धूमकेतु का पथ बृहस्पति को कितना प्रभावित करेगा।
पता चला कि उधर फ्रांस में एक जवान वैज्ञानिक ‘अरबेन ज्यों जोसेफ लेवेरियर' ने भी इस धूमकेतु पर गौर किया।

लेवेरियर काफी गंभीर और लगनशील विद्यार्थी था। पेरिस के इकोल पोलिटेक्नीक से स्नातक परीक्षा पास करने के बाद उसने खगोलशास्त्र में काम शुरू किया। धूमकेतुओं की कक्षा की गणना संबंधित उसके काम को काफी सराहा गया।
1844 में इटली के फ्रांसेसको डि' विको ने एक धूमकेतु खोज निकाला। चालिस ने एडेम्स से इस धूमकेतु की कक्षा की गणना करने को कहा। एडेम्स ने कक्षा की गणना की और अपने परिणाम लंदन के एक अखबार 'द टाइम्स' में छपने को भेज दिए। परन्तु लेवेरियर के नेतृत्व में फ्रेंच वैज्ञानिक पहले ही ये परिणाम पा चुके थे।
लेवेरियर के काम से पेरिस खगोल शाला का निदेशक काफी प्रभावित हुआ। उसको लगा कि लेवेरियर 'यूरेनस की पहेली' पर काम करने के लिए मुफीद (उपयुक्त) व्यक्ति है इसलिए 18.15 की गर्मियों में उसे यह काम सौंप दिया गया।
इधर कैम्ब्रिज में एडेम्स एक बार फिर से यूरेनस पर काम कर रहा था। सितंबर 1845 के मध्य तक उसने अपनी गणनाएं पूरी कर लीं। अगले साल ब्रिटिश खगोल विज्ञान एसोसिएशन की बैठक होने वाली थी और एडेम्स इसमें अपनी शोध प्रस्तुत कर सकता था लेकिन चालिस ने उससे कहा कि वह अपनी गणनाओं की एक प्रति एस्ट्रोनोमर रॉयल जॉर्ज एरी को भेजे। चालिस जॉर्ज एरी को व्यक्तिगत तौर पर जानता था।

वो राजकीय खगोलशास्त्री   
सैद्धांतिक जांच-पड़ताल में एरी का कोई विश्वास नहीं था। साथ ही युवा वैज्ञानिकों की क्षमताओं को लेकर भी वह खासा सशंकित था। उसका मानना था कि वे किसी समस्या के व्यापक अध्ययन की बजाए बैठे-बैठे गणना करना ही ज्यादा पसंद करते हैं।
एरी का मत था कि अगर यूरेनस के पथ में विचलन के अवलोकन के सहारे उल्टा चला जाए और गणना की जाए तो इसमें सदियां निकल जाएंगी; क्योंकि यूरेनस सूर्य का एक चक्कर लगाने में 84 वर्ष लेता है। और हमें ऐसे कई चक्करों के अवलोकन लेने होंगे।
एडेम्स सन् 1845 की सितंबर को ग्रीनविच स्थित राजकीय खगोलशाला पहुंचा लेकिन एरी वहां मौजूद नहीं था। एरी ने एडेम्स को खत लिखकर अपनी अनुपस्थिति के लिए खेद व्यक्त किया। एडेम्स अक्टूबर में एक बार फिर से ग्रीनविच गया, लेकिन एरी घर पर नहीं था। एडेम्स उसी दिन एक बार और उसके घर गया। इस बार उसे बताया गया कि एरी अभी खाना खा रहे हैं। एडेम्स ने थोड़ा अपमानित महसूस किया और उसने अपनी गणनाओं के साथ एरी के लिए एक चिट्ठी छोड़ी और वापस कैम्ब्रिज लौट आया।

एरी ने एडेम्स की चिट्ठी को कोई खास तवज्जो नहीं दी। एरी के जवाब को पढ़ने के बाद एडेम्स को लगा कि एरी ने उसकी गणनाओं को पढ़ा भी है कि नहीं। उसको काफी निराशा हुई।
इसी दौरान फ्रांस में लेवेरियर यूरेनस से संबंधित सारी गणनाओं की जांच-पड़ताल कर चुका था। 10 नवंबर 1845 को उसने ‘फ्रेंच एकेडमी ऑफ साइंसेज' में अपना पर्चा प्रस्तुत किया। इसमें उसने कहा कि यूरेनस की भटकन के पीछे कोई ‘बाहरी कारण है।
एकेडमी ऑफ साइसेंज़ जिन लोगों को अपनी गतिविधियों से अवगत कराते रहते थे एस्ट्रोनोमर रॉयल भी उनमें से एक था। तो एरी को भी लेवेरियर का पर्चा मिला। यह दिसंबर 1845 की बात है। उसको लगा कि इस विषय की जांच-पड़ताल काफी गहराई से की गई है। एडेम्स की गणनाओं के मुकाबले एरी लेवेरियर के पर्चे से काफी प्रभावित हुआ। लेवेरियर ने 1846 में भी इस पहेली पर काम करना जारी रखा। काफी मुश्किल और जटिल गणनाएं करने के बाद वह इस स्थिति में आ गया था कि वह प्रस्तावित ग्रह की आकाशीय स्थिति (जगह) को घोषित कर सके।
सभी ने लेवेरियर के इस काम की काफी तारीफ की। लेकिन किसी भी फ्रेंच खगोलशास्त्री ने आकाश में इस ग्रह को खोजने की रत्ती भर भी कोशिश नहीं की।

लेवेरियर के इस दूसरे पर्चे ने एरी को और भी खुश कर दिया क्योंकि शायद इसके परिणाम एडेम्स के नतीजों से काफी मेल खाते थे।
एरी ने लेवेरियर को एक खत लिखा और पूछा कि गणना के दौरान उसने किसी चीज़ को अनदेखा तो नहीं किया या छोड़ा तो नहीं है। लेवेरियर ने काफी साफगोई दिखाई और वापस जवाब दिया कि उसने गणना करने में सभी पहलुओं को ध्यान रखा है। साथ ही लेवेरियर ने एरी को यह भी लिखा कि क्या वह उस स्थान का अवलोकन कर ग्रह को खोज सकता है जहां कि उसे ग्रह के होने की उम्मीद है। लेकिन अपने अन्य फ्रेंच बंधुओं के समान एरी ने भी आकाश खंगालने में कोई दिलचस्पी नहीं ली।
और 9 जुलाई 1846 को राजकीय खगोलज्ञ एरी ने चालिस को लिखा कि वह कैम्ब्रिज वेधशाला के टेलिस्कोप की मदद से आकाश में आठवें ग्रह को खोजे। लेकिन क्या एरी ने चालिस को आकाश में उस स्थान का अवलोकन करने को कहा जहां कि एडेम्स और लेवेरियर को उम्मीद थी कि आठवां ग्रह होगा? नहीं, उसने चालिस को कहा कि वह एरी की विधि से आकाश का अवलोकन करे और यह विधि काफी लंबी और जटिल थी।

चालिस को लगा कि एरी की सुझाई विधि से काम नहीं चलेगा। उसने अपनी खुद की विधि अपनाने का तय किया या यूं कहें कि एरी की भी और अपनी भी, जब जिससे काम चले। चंद्रमा की रोशनी, खराब मौसम और बादलों की वजह से, काम काफी धीमी गति से आगे बढ़ा। 12 अगस्त तक सिर्फ 39 तारों की जांच ही हो सकी।

यूं पलटी नेपच्यून की किस्मतः 1816 में बर्लिन ऑबज़रवेट्री के जे. जी. गाले और हेनरिक डी अरेस्ट के पास यही मानचित्र उपलब्ध था जिसमें मकर राशि के तारों की जानकारी दर्शाई गई थी। इन दोनों ने एक-एक तारे की आसमानी स्थिति और मानचित्र में दिए विवरण में मिलान किया। दाहिनी ओर के मानचित्र को ध्यान से देखिए, इसमें तीर बनाकर नेपच्यून को दिखाया गया है। इसी मानचित्र में एक धन का चिन्ह भी दिखाई दे रहा है। लेवेरियर ने यहां नेपच्यून के होने की संभावना व्यक्त की थी। कागज़ी पूर्वानुमान और आसमानी स्थिति में सिर्फ एक डिग्री का अंतर था।

31 अगस्त को लेवेरियर ने फ्रेंच एकेडमी में अपना तीसरा पर्चा पेश किया। इसमें उसने कहा कि उसे उम्मीद है कि आठवां ग्रह मकर नक्षत्र के डेल्टा नामक तारे के आसपास मिलेगा।
लेकिन लेवेरियर की इस गणना को उसके सहयोगियों ने कैसे लिया? कहीं भी कोई दिलचस्पी नहीं दिखी। यहां तक कि पेरिस वेधशाला के निदेशक ने किसी को भी आठवें ग्रह की खोज के काम पर नहीं लगाया।

नेपच्यून की खोज
लेवेरियर काफी देशभक्त किस्म का इंसान था लेकिन अब उसका धैर्य चूकने लगा। 18 सितंबर को उसने जर्मनी की बर्लिन वेधशाला में काम कर रहे योहान गाले को एक खत लिखा। यह खत गाले को 23 सितंबर को मिला। बर्लिन वेधशाला के निदेशक योहान एन्के ने इस मामले में कोई उत्साह नहीं दिखाया परंतु उससे उल्टा गाले लगनशील व्यक्ति था। उसको मदद मिली एक अन्य जर्मन विद्यार्थी हेनरिकडी' अरेस्ट की और आखिरकार उन्हें आठवें ग्रह की खोज के लिए आकाश छानने की स्वीकृति मिल ही गई।
और उसी रात यानी 23 सितंबर 1816 को गाने ने अपने 9 इंची टेलिस्कोप को आकाश में उस स्थान पर तान दिया जहां कि ग्रह के मिलने की संभावना थी। या यूं कहें कि उस समय इस आठवें ग्रह की किस्मत ने अचानक पलटा खाया।
मकर राशि के तारों की स्थिति का एक नक्शा बर्लिन वेधशाला को हाल ही में मिला था। काले आकाश में तारे को देखता, उसका विवरण बताता और डी अरेस्ट नक्शे में उस तारे का मिलान करता। अभी उन्होंने कुछ ही तारों का मिलान किया था कि गाले ने एक तारे का विवरण बताया जिसका कोई उल्लेख डी अरेस्ट को नक्शे में नहीं मिला।

नेपच्यून और उसके उपग्रहः नेपच्यून आकार में लगभग यूरेनस जितना ही है। लीक ऑबजरवेट्री द्वारा खींची गई इस तस्वीर में नेपच्यून के दो उपग्रह भी दिखाई दे रहे हैं। इनमें से एक उपग्रह ट्रिटॉन आकार में धरती के चांद के बराबर है। नेपच्यून सूरज का एक चक्कर। 65 साल में पूरा करता है। नेपच्यून को आसमान में पहली बार 1 816 में जिम जगह देखा गया था यदि उसे शुरुआती बिन्दु मान लें तो सन् 2011 में नेपच्यून फिर से उसी स्थान पर पहुंचेगा।

उत्तेजित डी अरेस्ट भागकर गया और योहान एन्के को वेधशाला में खींच लाया। अगली रात उस ‘तारे' की गति साफ समझ में आ गई।
और 25 सितंबर को उत्साह से भरे हुए गाले ने लेवेरियर को लिखाः वो ग्रह जिसकी स्थिति तुमने दर्शायी उसका सचमुच अस्तित्व है।''

कौन था पहला शख्स
उसके बाद के घटनाक्रम की कल्पना की जा सकती है। चालिस को लगा कि अगर 12 अगस्त को उसने तारा क्रमांक 49 की जांच जारी रखी होती तो उसे नेपच्यून मिल जाता। चालिस ने एडेम्स के काम और अपनी खोजबीन के बारे में एक लंबा पर्चा लिखा।
फ्रांस के लोग, खासतौर से लेवेरियर, इस पर्चे से काफी खफा हुए। लेवेरियर ने एरी को लिखा कि अगर उसे एडेम्स की गणना के बारे में मालूम था तो उसने उस खत में इस गणना का जिक्र क्यों नहीं किया जिसमें उसने पूछा था कि तुमने किसी पहलू को अनदेखा तो नहीं किया।
उधर ब्रिटेन में लोग एरी और चालिस के इस गैर जिम्मेदारानापन से काफी नाराज थे। चालिस ने कबूल किया कि सितंबर 1845 में जब एडेम्स ने अपनी गणना पूरी कर ली थी, उसने आठवें ग्रह की बिल्कुल भी खोजबीन नहीं की क्योंकि उसे लगा कि किसी सैद्धांतिक गणना के आधार पर आकाशीय अवलोकन करने का ख्याल काफी बचकाना है।

इन सारे वाद विवादों के बीच नवंबर में एडेम्स को रॉयल एस्ट्रॉनोमिकल सोसायटी में अपने शोध को प्रस्तुत करने का मौका आखिरकार मिल ही गया। उसके विश्लेषण को सुनने के बाद सुनने वालों को विश्वास हो गया कि उसने इस आठवें ग्रह की पहेली पर काफी गंभीरता से काम किया है।
इसी बीच फ्रांस के सम्राट लुईस फिलिप ने लेवेरियर को फ्रांस का एक बड़ा सम्मान देने की घोषणा की। इधर रॉयल सोसाइटी ऑफ लंदन ने भी आठवें ग्रह की खोज के लिए लेवेरियर को कोपले मेडल से नवाजा। साथ ही ब्रिटेन में लोग पुरजोर मांग कर रहे थे कि ऐडम्स को भी सम्मानित करना चाहिए। मामला तब शांत हुआ जब ब्रिटिश एसोसिएशन ने जून 1847 में लेवेरियर को अपनी बैठक में बुलाया।
यहां एडेम्स पहली बार लेवेरियर मे मिला। इस बैठक में शामिल एक व्यक्ति ने बाद में इस मुलाकात के बारे में लिखा कि दोनों व्यक्ति एक-दूसरे के साथ काफी देर तक पैदल घूमते । रहे और एक-दूसरे की तारीफ करते रहे, उन दोनों में ईष्र्या की भावना बिल्कुल भी नहीं थी। बाद में नेपच्यून की खोज के साथ दोनों व्यक्तियों का नाम जुड़ गया।


कमल लोडायाः आइ. एम. एस. ई. में कम्प्यूटर साइंस के प्रोफेसर हैं। चैन्नई से अंग्रेजी बाल विज्ञान पत्रिका ‘जंतर-मंतर' प्रकाशित करते हैं।
टी. वी. वेंकटेश्वरन: मेंटर फॉर डिवेलपमेंट ऑफ इमेजिंग टेक्नॉलॉजी, तिरुवनंतपुरम में विज्ञान मंचार के वरिष्ठ व्याख्याता।
अनुवाद: दीपक वर्मा: संदर्भ पत्रिका में कार्यरत हैं। अभी वे सेंटर फॉर डिवेलपमेंट ऑफ इमेजिंग टेक्नॉलॉजी में अध्ययन कर रहे हैं।