रिचर्ड पी. फाइनमेन 

जब मैं एक बच्चा था तो मेरी अपनी एक प्रयोगशाला थी प्रयोगशाला मतलब ऐसा कुछ नहीं के मैं कोई नाप-जोख करूँ। बल्कि मे तो खेलता था कभी मोटर बना लेता था कभी एक ऐसा उपकरण बनाता जिसमे जब फोटोसेल के आगे जो भी रखे तो वह बजने लगे, सेलेनियम से खेलता था; कुछ मिला कर मैं पूरे समय कुछ न कुछ उठा-पटक करता रहता था। मैंने वोल्टेज़ को नियंत्रित करने के लिए अवरोधकों की तरह बल्ब और स्विच की सीरीज का इस्तेमाल किया था। इसके लिए मैंने थोड़ी सी गणनाएं भी की थी। पर वह  भी सिर्फ अपना व्यवहारिक कम सुलटाने के लिए। मैंने उससे कभी भी असली प्रयोगशाला जैसा कोई प्रयोग नहीं किया।
मेरे पास एक सूक्ष्मदर्शी भी था और उसमें से चीज़ों को निहारने में मुझे बहुत मज़ा आता था। इसमें धैर्य लगता था; सूक्ष्मदर्शी के लेंस के नीचे कुछ रखकर मैं उसे अनन्त काल तक देखता ही रहता था। मैंने कई रोचक चीजें देखीं; जैसा सब देखते हैं - एक डायटम का स्लाइड के एक छोर से दूसरे छोर तक जाना, और ऐसा ही बहुत कुछ।

पैरामीशियम मेरी प्रयोगशाला में
एक दिन मैं एक पैरामीशियम को देख रहा था और मुझे कुछ ऐसा दिखा जिसके बारे में मेरे स्कूल की किताबों में कोई जिक्र नहीं था - बल्कि, कॉलेज की किताबों में भी नहीं। ये किताबें हमेशा हर चीज को इतना साधारण बना देती हैं कि दुनिया बिल्कुल वैसी हो जाए जैसी वे चाहते हैं। जब वे जीवों के व्यवहार के बारे में बात करते हैं, तो हमेशा इस तरह से शुरू हो जाते हैं - "पैरामीशियम एक अत्यन्त साधारण जीव है; उसका व्यवहार बिल्कुल सरल होता है। उसका चप्पल के आकार का शरीर जब पानी में चलता है तो वह मुड़ जाता है, पर जैसे ही वह किसी चीज़ से टकराता है तो एकदम पीछे हटकर वह थोड़ा-सा घूम जाता है, और फिर नए सिरे से चल पड़ता है।''
यह असल में ठीक नहीं है। पहली बात, जैसा कि सब जानते हैं , पैरामीशियम समय-समय पर, एक-दूसरे से मेल करते हैं - वे मिलते हैं। और अपने केन्द्रक आपस में बदलते हैं। उन्हें कैसे पता चलता है कि कब ऐसा करने का समय आ गया? (खैर छोड़ो, यह मेरा अवलोकन नहीं है।)

मैंने पैरामीशियम को पानी में किसी चीज़ से टकराते, पीछे हटते और फिर घूमकर दूसरी दिशा में चल पड़ते देखा। यह बिल्कुल भी ऐसा नहीं लगता जैसे कि सब कुछ यंत्र-चलित हो, किसी कम्प्यूटर प्रोग्राम की तरह। वे अलग-अलग दूरी तक जाते हैं, पीछे हटते हुए अलग-अलग दूरी तय करते हैं, हर बार अलग-अलग कोण से घूमते हैं। वे हमेशा दाएं भी नहीं मुड़ते, बहुत ही अनियमित होते हैं। सब कुछ बहुत अटकल पच्चू यानी रैण्डम दिखता है, क्योंकि आपको पता नहीं कि वे किस चीज़ से टकरा गए; उन्हें किस रसायन की गंध आ गई या क्या हुआ।
एक चीज जो मैं देखना चाहता था कि जिस पानी में पैरामीशियम रहता है, वह जब सूख जाए तब क्या होता है। किताबों में यह दावा किया गया था कि पैरामीशियम सूखकर एक कड़क बीज की तरह बन सकता है। मेरे सूक्ष्मदर्शी की स्लाइड पर एक बूंद पानी था और उस पानी की बूंद में एक पैरामीशियम और कुछ ‘घास' थी।

धीरे-धीरे 15-20 मिनटों में जैसे-जैसे पानी सूखने लगा, वह पैरामीशियम मुश्किल से और मुश्किल स्थिति में फंसता गया। उसकी आगे-पीछे, इधर-उधर की भाग-दौड़ बढ़ती चली गई, जब तक कि वह और हिल ही नहीं सकता था। वह घास की इन ‘तिनकों' में बिल्कुल जकड़ा जा चुका था।
फिर मैंने एक ऐसी बात देखी जो मैंने पहले न देखी, न सुनी थीः पैगमीशियम ने अपना आकार खो दिया। वह इच्छानुसार अपना आकार बदल पा रहा था, एक अमीबा की तरह। उसने एक तिनके के सहारे अपने आप को धकेलना शुरू किया, और अपने शरीर को दो हिस्सों में बांटने लगा। लगभग आधी दूरी तक शरीर को इस तरह दो भागों में बांटने के बाद उसने तय किया कि यह कोई बहुत अच्छा ‘आइडिया' नहीं था और वापस सामान्य स्थिति में आ गया।
तो इन जीवों के बारे में मेरी यह धारणा बनी कि किताबों में इनके माइक्रोस्कोप से देखने पर स्लीपर जैसे आकार वाला पैरामीशियम व्यवहार का वर्णन अति सरल बनाकर लिखा जाता है। असल में इनका व्यवहार उतना यंत्रवत या एक आयामी नहीं होता जैसा वे बताते हैं। उन्हें इन सरल जीवों के व्यवहार के बारे में सही-सही बताना चाहिए। जब तक हम यह नहीं समझें कि एक कोशीय जीवों के व्यवहार के कितने आयाम होते हैं, हम और जटिल जीवों के व्यवहार को पूरी तरह से कैसे समझ पाएंगे?
 
डार्लिंग नीडेल
मुझे कीड़े-मकोड़ों के निरीक्षण में भी बहुत मज़ा आता था। जब मैं करीब तेरह साल का था, मेरे पास एक कीटों की किताब हुआ करती थी। उसमें लिखा था कि कीट नुकसानदायक नहीं होते; वे डंक नहीं मारते हैं। हमारे मोहल्ले में यह बात मशहूर थी कि डार्लिंग नीडल (हम इन कीटों को इसी नाम से जानते थे) का डंक बहुत खतरनाक होता है। तो जब हम कभी बाहर, खुले में बेस बॉल या ऐसा ही कुछ खेल रहे होते और ऐसा कोई कीट आसपास मंडराने लगता, तो सब लोग हाथ-पैर लहराते हुए उससे बचने के लिए ‘डार्निग नीडल, डार्लिंग नीडल' चिल्लाते हुए भागते थे।
एक दिन मैं समुन्दर किनारे बैठा था। मैंने उन्हीं दिनों वह किताब पढ़ी थी जिसमें लिखा था कि ड्रेगनफ्लाई डंक नहीं मारते। तभी वहां एक डार्लिंग नीडल मंडराने लगा और सब लोग चीख-पुकार मचाकर भागने लगे पर मैं वहीं बैठा रहा। मैंने कहा, "फिक्र मत करो, डार्लिंग नीडल डंक नहीं मारते।''

वह कीड़ा मेरे पैर पर बैठा। हर कोई चीख रहा था और बहुत नाटक हो रहा था क्योंकि यह कीड़ा मेरे पैर पर बैठा था और मैं था विज्ञान का दीवाना कि कहे जा रहा था कि वह मुझे नहीं काटेगा।

शायद अब तक आपको पूरा भरोसा हो चुका होगा कि इस कहानी के अन्त में उस कीड़े ने मुझे काट लिया था - पर उसने नहीं काटा। किताब ने सही कहा था। यह अलग बात है कि इस दौरान मुझे पसीना छूट गया था।

मेरे पास एक छोटा पॉकेट सूक्ष्मदर्शी भी हुआ करता था। वह असल में एक खिलौना सूक्ष्मदर्शी था जिसका लैंस वाला हिस्सा निकालकर मैं बिल्लौरी कांच की तरह हाथ में पकड़ लेता था। वैसे यह सूक्ष्मदर्शी 40 से 50 गुना तक बड़ा करके दिखाता था। अगर थोड़ा ध्यान से काम करें तो उसे अच्छी तरह से फोकस भी किया जा सकता था। तो इस तरह से मेरे हाथ एक ऐसा सूक्ष्मदर्शी आ गया था जिसे लेकर मैं कहीं भी घूम सकता था, सड़क पर भी और चीज़ों को गौर से निहार सकता था।

चींटियां और एफिड
जब मैं प्रिंसटन में कॉलेज की शुरुआती पढ़ाई कर रहा था, एक दिन एक बेल के इर्द-गिर्द रेंग रही कुछ चींटियों को देखने के लिए मैंने वह सूक्ष्मदर्शी निकाला। चींटियों का नजारा देखकर मैं इतना उत्तेजित हो गया कि मैं चिल्ला उठा। मैंने चींटी के साथ एक एफिड देखा था - एफिड जिसकी चींटियां देखभाल करती हैं। जिस पौधे पर वे रहते हैं, अगर वह मरने लगे तो चीटियां एफिड को दूसरे पौधे तक उठाकर ले जाती हैं। बदले में चींटियों को आधा पचाया हुआ एफिड का रस मिलता है जिसे ‘मधुरस' कहते हैं। यह सब मैं जानता था; मेरे पिताजी ने मुझे यह सब बताया था लेकिन मैंने यह सब कभी देखा नहीं था।

तो यहां एक जनाब एफिड थे और कुछ देर में एक चींटी भी वहां आ धमकी। उस चींटी ने अपने पैरों से एफिड को थपथपाया - चारों ओर से - थप, थप, थप, थप। यह तो बहुत ही मजेदार था। फिर एफिड के पीछे में रम निकल आया और चूंकि मुक्ष्मदर्शी में मे सब कुछ बड़ा बड़ा दिख रहा था तो वह रस की बूंद काफी बड़ी, खूबसूरत चमकती हुई गेंद की  - बल्कि उस तरल रस के पृष्ठ तनाव के कारण एक गुब्बारे की तरह दिख रही थी। सूक्ष्मदर्शी बहुत अच्छा नहीं था इसलिए उसमें से रोशनी गुजरने पर कुछ रंगों में बंट जाती थी। इससे वह बूंद हल्की-सी रंगीन दिखाई दे रही थी। बहुत ही ज़बरदस्त नज़ारा था।

चींटी ने उस रस की बूंद को अपने अगले दो पैरों से थामा, एफिड पर से उठाया और पकड़ लिया। उस सूक्ष्म स्तर पर दुनिया इतनी अलग होती है कि आप पानी को भी उठाकर पकड़ सकते हैं। शायद चींटियों की टांगों पर कुछ तैलीय पदार्थ होता होगा जिससे उनके पानी या तरल की बूंद को छूने या पकड़ने पर भी पृष्ठ-तनाव से बनी उनकी बाहरी झिल्ली टूटती नहीं है। फिर उस चींटी ने अपने मुंह से बूंद की बाहरी सतह की झिल्ली को तोड़ा और पृष्ठ-तनाव के कारण वह बूंद टूटकर सीधे ही उसके मुंह से होते हुए पेट में घुस गई। इस पूरी घटना को देखना बहुत ही मजेदार था।

कोन देस है जाना
प्रिंसटन में मेरे कमरे में एक खिड़की थी जिसके आगे एक यू-आकार का ताक बना हुआ था। एक दिन कुछ चींटियां उस पर निकल आईं और इधर-उधर मंडराने लगीं। मेरे मन में जिज्ञासा उठी कि इन्हें चीजों के बारे में पता कैसे चलता है? कैसे पता चलता है कि कहां जाना है?
क्या ये एक-दूसरे को बता सकती हैं कि खाना कहां है? जैसे मधुमक्खियां बताने में सक्षम होती हैं। क्या इन्हें ज्यामिति का कोई आभास है?
 
यह सब बहुत ही बचकाना है, आज सबको इन सवालों के जवाब पता हैं। पर उस समय मुझे जवाब मालूम नहीं थे इसलिए सबसे पहले मैंने खिड़की के आर-पार एक धागा बांधा और उससे एक और लम्बे धागे के जरिए एक गत्ते को बीच से मोड़कर टांग दिया। गत्ते पर मैंने थोड़ी शक्कर बिखेर दी। इस सब का उद्देश्य यह था कि शक्कर ऐसी जगह पर हो जो चींटियों से अलग-थलग हो। चींटियां इत्तफाक से शक्करे तक न पहुंच पाएं। मैं चाहता था कि इस प्रयोग में सब कुछ नियंत्रण में हो।

इसके बाद मैंने कागज के छोटे-छोटे टुकड़े किए और सब को बीच से मोड़ दिया। इन से मैं चींटियों को उठाकर एक जगह से दूसरी जगह ले जा सकता था। मैंने ये कागज़ के टुकड़े दो जगहों पर रखे - कुछ को मैंने खिड़की से लटक रहे शक्कर वाले गत्ते के पास रखा। और बाकी चींटियों के पास एक खास जगह पर। फिर सारी दोपहर मैं एक किताब पढ़ते हुए और चींटियों पर ध्यान रखते हुए बैठा रहा। जब तक कि एक चींटी मेरे द्वारा रखी कागज़ की ‘गाड़ी' पर न चढ़ गई। फिर मैं उसे शक्कर तक ले गया। इस तरह जब कुछ चींटियां शक्कर तक पहुंच गई तो उनमें से एक गलती से वहां रखी कागज़ की गाड़ी पर चढ़ गई। तब उसे मैं वापस पहले वाली जगह तक ले आया।

मैं यह देखना चाहता था कि बची हुई चींटियों को यह संदेश पाने में कितनी देर लगती है कि गाड़ी वाली जगह पर जाना चाहिए। पहले तो यह धीरे-धीरे शुरू हुआ, पर फिर जल्दी ही चींटियों की रफ्तार बढ़ती गई। अन्त में तो मैं चींटियों को इधर से उधर और उधर से इधर पहुंचाते-पहुंचाते पगलाने लगा था। पर ऐसे में, जब सब कुछ बढ़िया चल रहा था, मैं चींटियों को शक्कर से उठाकर एक तीसरी नई जगह पहुंचाने लगा। अब सवाल यह था कि क्या चींटियां सिर्फ वहीं तक जाना सीखती हैं जहां से वे हाल ही लौटीं? या वे वहां भी जा सकती हैं जहां वे इससे पहले गई थीं?
कुछ देर बाद सबसे पहली ‘गाड़ी' वाली जगह पर लगभग कोई भी चींटी नहीं जा रही थी। जबकि दूसरी जगह पर चींटियों की भीड़ लगी हुई थी - शक्कर ढूंढते हुए घूम रही थीं सब। तो मुझे इतना तो पता चल गया कि चींटियां बस वहीं तक जा पाती हैं जहां से वे हाल में ही आई हों।

एक और प्रयोग में मैंने खिड़की पर कुछ शक्कर बिखेरकर उसके आसपास सूक्ष्मदर्शी की कुछ स्लाइड फैला दी थीं। इससे शक्कर तक पहुंचने के लिए चींटियों को इन स्लाइडों पर से चलकर जाना होता था। फिर, एक पुरानी स्लाइड की जगह नई स्लाइड लगाकर, या स्लाइडों की जगह आपस में बदलकर, मैं यह साबित कर सकता था कि चींटियों में ज्यामिति की कोई धारणा नहीं होती है। वे यह पता नहीं लगा पाती हैं कि कोई चीज़ कहां स्थित है। अगर वे एक रास्ते से शक्कर तक जाती हैं और वापस किसी छोटे रास्ते से आती हैं तो उन्हें पता भी नहीं चलता कि वापसी का रास्ता छोटा था।

सूक्ष्मदर्शी की कांच की स्लाइडों की अदला-बदली करके यह भी स्पष्ट हो गया था कि चींटियां जहां से चलकर जाती हैं वहां एक किस्म का चिह्न या गंध या निशान भी छोड़ती जाती हैं। फिर मैंने कुछ आसान से प्रयोग यह पता लगाने के लिए किए कि चींटियों के इन मार्ग-चिह्न दिशा के हिसाब से नहीं होते। अगर मैं एक सीधे चली जा रही चींटी को कागज़ पर उठाकर गोल-गोल घुमाकर उसके रास्ते पर उलटा छोड़ देता तो उसे पता भी नहीं चलता था कि वह उलटी तरफ चल पड़ी है। जब तक वह किसी दूसरी चींटी से नहीं मिलती, वह उलटी तरफ ही चलती चली जाती थी। (बाद में, ब्राज़ील में रहते हुए मैंने कुछ पत्ते काटने वाली चींटियां देखीं और उन पर भी यही प्रयोग किए। इन चींटियों को कुछ कदम चलने पर ही यह पता चल जाता था कि वे भोजन की तरफ बढ़ रही हैं या उससे दूर। शायद इनके मार्ग-चिन्हों में कोई गंध का क्रम होता होगा। जैसे भोजन की तरफ जाने में क ख -, क ख -, .....या वापसी में क - ख -, क - ख -, ... या ऐसा ही कुछ और।) 

एक बार मैंने कोशिश की कि चींटियों को एक गोलाकार में चलाऊं, पर इसके लिए जरूरी ताम-झाम को व्यवस्थित करने का मुझे धैर्य नहीं रहा। मेरी अधीरता के अलावा यह न कर पाने का मुझे कोई कारण नहीं मिला।
चींटियों के साथ प्रयोग करने में एक दिक्कत यह आती थी कि उन पर अगर आप सांस छोड़ते रहें तो वे इधर-उधर भागने लगती हैं। ये शायद ऐसे किसी जानवर के प्रति उनकी स्वाभाविक प्रतिक्रिया होगी जो उन्हें खाता हो या डिस्टर्ब करता हो। मुझे यह तो नहीं पता चला कि मेरी सांसों की गर्माहट, नमी या गंध - किससे उन्हें तकलीफ होती थी। पर प्रयोग करते हुए चींटियों को कागज़ की गाड़ी पर उठाकर एक जगह से दूसरी जगह लाते, ले जाते हुए मुझे हमेशा दम साधकर, सिर एक तरफ घुमाकर काम करना पड़ता था, ताकि प्रयोग ठीक तरह से हो पाए।

एक सवाल मेरे मन में अक्सर कुलबुलाता था। मैं सोचता था कि चींटियों के चलने की लाइनें इतनी सीधी और सुन्दर-सी व्यवस्थित क्यों दिखती हैं? उनकी चाल से ऐसा क्यों लगता है जैसे उन्हें पता हो कि वे क्या कर रही हैं, कहां जा रही हैं: जैसे कि उनमें ज्यामिति की बड़ी अच्छी समझ हो। जबकि उनकी ज्यामिति की समझ को परखने के लिए जितने भी प्रयोग मैंने किए, उनमें से किसी ने भी काम नहीं किया। कई साल बाद, मैं जब ‘कैलटेक' में रहता था, एक दिन मेरे गुसलखाने के पास कुछ चींटियां घूमती दिखाई दीं। मैंने सोचा, यह बड़ा अच्छा मौका है।'' मैंने उस जगह से कुछ दूर थोड़ी शक्कर बिखेर दी। फिर मैं सारी दोपहर इस बात का इंतज़ार करता बैठा रहा कि किसी चींटी को शक्कर का सुराग मिल जाए। ऐसे में सिर्फ धीरज का मामला होता है।

जैसे ही पहली चींटी शक्कर तक पहुंची, मैंने एक रंगीन पेंसिल उठाई और चींटी जैसे-जैसे चलती गई, उसके पीछे-पीछे मैं लकीर खींचता गया। इससे मुझे पता चल सकता था कि इस चींटी का मार्ग चिह्न कहां है। (मैंने पहले ही कुछ प्रयोग करके यह पता लगा लिया था कि पेंसिल के निशान से चींटियों को कुछ फर्क नहीं पड़ता। वे धड़ल्ले से उसके ऊपर से। रेंग जाती हैं। इसलिए मुझे पता था कि मैं, किसी चीज़ को डिस्टर्ब नहीं कर रहा था।) वह चींटी शक्कर वाली जगह से वापस अपने बिल तक आने में थोड़ा इधर-उधर भटक गई थी। इसलिए मेरी बनाई हुई लकीर लाइन से चल रही चींटियों के मार्ग की तरह सीधी और व्यवस्थित नहीं थी। वह काफी घुमावदार व पेचदार थी।
फिर शक्कर तक पहुंचने वाली दूसरी चींटी वापस लौटने लगी तो मैंने उसके रास्ते का पीछा एक दूसरे रंग की पेंसिल से किया। इस चींटी ने अपने आने के रास्ते पर न चलकर पहली चींटी के लौटने के रास्ते को अपनाया। मैंने इसके आधार पर यह सोचा कि शायद जब किसी चींटी को भोजन मिल जाता है तो उसके बाद वह बहुत तीव्र मार्ग-चिह्न छोड़ती चलती है। जबकि जब वे ऐसे ही भोजन की तलाश में मंडराती फिरती हैं तो मार्ग-चिह्न तुलनात्मक रूप से कमजोर होते हैं।

खैर, यह दूसरी चींटी काफी जल्दी में थी और वह लगभग हूबहू पहली चींटी के लौटने के रास्ते पर ही चली। लेकिन जल्दी-जल्दी में वह कई बार पहली लाइन के कई पेंचों पर से सीधी निकल जाती। ऐसा करते हुए उससे पल भर के लिए मार्ग-चिह्न छूट जाता, पर अगले ही पल वह उसे फिर पा लेती और उसके मुताबिक चलती जाती। इतने से ही ये स्पष्ट हो गया था कि दूसरी चींटी का रास्ता पहली की तुलना में काफी सीधा था। इसके बाद हर अगली चींटी के साथ रास्ते की लकीर में लगातार इस तरह की ‘बेहतरी' होती गई। हर बार अगली चींटी कुछ जल्दी में और कुछ लापरवाही से उससे पहले वाली के रास्ते पर चलती थी और उसके रास्ते की लकीर कुछ और सीधी हो जाती थी।
मैंने आठ या दस चींटियों का रंगीन पेंसिलों से पीछा किया और अन्त में मेरी रंगीन लाइन काफी सीधी हो गई। यह कुछ-कुछ चित्रकारी करने जैसा था। पहले आप एक फालतू-सी लाइन बनाते हैं, फिर आप दो-चार बार उसी को दोहराते हैं और कुछ देर बाद एक सुन्दर व्यवस्थित लाइन बन जाती है।

सहयोगी चींटिया
मुझे याद है कि जब मैं छोटा था तो पिताजी बताते थे कि चींटियां कैसी गजब की होती हैं। कैसे वे एक-दूसरे का सहयोग करती हैं। मैं अक्सर तीन-चार चींटियों को मिलकर टॉफी का टूकड़ा अपने घर तक ले जाते हुए देखता था। सरसरी निगाह से देखो तो आपसी तालमेल है। लेकिन अगर तुम ध्यान से देखो तो पता चलता है कि ऐसा कुछ भी नहीं है। उन सबका व्यवहार ऐसा होता है जैसे कि उस टॉफी को किसी और ने पकड़ रखा है। कोई उसे एक तरफ खींचता है तो दूसरा दूसरी तरफ। जब बाकी चींटियां उस टुकड़े को खींच रही हों तो यह भी हो सकता है कि उनमें से एक उस के ऊपर ही चढ़ बैठे। मिठाई या टॉफी का टुकड़ा ठोकर खाता, लड़खड़ाता हुआ घिसटता जाता है, उसके आगे बढ़ने की कोई स्पष्ट दिशा भी नहीं रहती।

ब्राज़ील की पत्ते काटने वाली चींटियों में एक रोचक मूर्खता है। बाकी और कई बातों में ये चींटियां काफी होशियार हैं और मुझे इस बात का अचम्भा है कि उनकी यह सरलता (यो मूर्खता) विकास के क्रम में खत्म कैसे नहीं हो गई। इन चींटियों को किसी पत्ते का एक टुकड़ा पाने के लिए उसे गोलाई में काटना होता है। इसमें काफी मेहनत लगती है। जब कटाई का यह काम पूरा हो जाए तो 50 फीसदी सम्भावना इस बात की होती है कि चींटी पत्ते को गलत दिशा में खींचने लगे और पत्ता नीचे गिर जाए। आधे समय तो यही होता है कि चींटी ने पत्ते के जिस हिस्से को काटा है उसे छोड़, दूसरे हिस्से को खींचती रहती है - कभी सीधे तो कभी घुमाकर। पर जब वह उसके हाथ नहीं आता तो वह फिर पत्ते के किसी नए हिस्से को काटने में जुट जाती है। अगर किसी चींटी को उसी के द्वारा पहले कभी, या किसी और चींटी के द्वारा काटा हुआ पत्ता मिल जाए, तो शायद उसे पता भी नहीं चलता कि यह हिस्सा कटा हुआ है। वह उसे अपने घर ले जाने की कोशिश भी नहीं करती। तो. ध्यान से देखने पर यह काफी स्पष्ट हो जाता है कि यह कोई बहुत ही कुशल तरीके से पत्ते काटकर घर ले जाने का मामला नहीं है। बल्कि चींटियां किसी पत्ते तक जाती हैं, उसे करीने से गोलाई में काटती हैं और फिर आधे समय अनकटे हिस्से को खींचती-तानती जाती हैं। तव तक कटा हुआ हिस्सा कई बार नीचे गिर जाता है।

चींटियों से मुरब्बा बचाना
जब मैं प्रिंसटन में रहता था तो एक दिन चींटियों ने वह अलमारी ढूंढ ली जिसमें मैं डबलरोटी, और मुरब्बे जैसी खाने की चीजें रखता था। यह अलमारी खिड़की से काफी दूर थी। उस कमरे के फर्श पर चींटियों की एक लम्बी कतार चली जा रही थी। उन्हीं दिनों मैं चींटियों पर कई प्रयोग कर रहा था। तो मैंने अपने आपसे पूछा, “बिना इनको मारे मैं इन चींटियों को अलमारी तक जाने से कैसे रोक सकता हूं, बिना किसी ज़हर या दवा के? मुझे इन चींटियों के साथ इंसानियत से पेश आना चाहिए।”

साथ-साथ काम करती चींटियां: एक इल्ली को खींचकर ले जाती हुई काफी सारी चींटियां अपने-अपने हिसाब से खींचने या ढकेलने का काम करती हैं। तीर के निशान चींटियों द्वारा लगाए जा रहे बल की दिशा को दर्शा रहे हैं। इससे यह भी दिखाई देता। है कि कुछ चींटियां अपने साथियों की कोशिशों को बेकार करने में ही मदद कर रही हैं।

तो जो कुछ मैंने किया वह कुछ यूं था। पहले तैयारी बतौर मैंने उस जगह से 6-8 इंच दूर कुछ शक्कर रख दी जहां से चींटियां छेद में से निकलकर कमरे में घुस रहीं थीं। यह काम इतनी सफाई से किया कि चींटियों को इसके बारे में भनक नहीं लगने दी। फिर मैंने एक बार फिर कागज़ मोड़कर चींटियों के लिए गाड़ियां बनाईं और ये गाड़ियां चींटियों के आने-जाने के रास्ते के पास-पास रख दीं। जैसे ही अलमारी से खाना लेकर लौट रही। कोई चींटी गाड़ी पर चढ़ती, मैं तुरन्त उसे उठाकर शक्कर पर पहुंचा देता। इसी तरह अलमारी की ओर जाने वाली कोई चींटी अगर कागज़ की गाड़ी पर चढ़ जाती तो मैं उसे भी शक्कर तक पहुंचा देता। ऐसा करते-करते इन चींटियों ने शक्कर से अपने घर के छेद तक का रास्ता ढूंढ लिया। तो इस नए रास्ते पर काफी तीव्र मार्गचिह्न बनने लगे। धीरे-धीरे पुराने अलमारी वाले रास्ते पर चींटियों की आवाजाही काफी कम हो गई। फिर मैं निश्चित हो गया। मुझे पता था कि अगले आधे घण्टे में पुराने रास्ते के मार्ग-चिह्न सूख जाने वाले थे। ऐसा ही हुआ, अगले एक घण्टे में चींटियां मेरी अलमारी से जा चुकी थीं। और मुझे फर्श भी नहीं धोना पड़ा; बस मैं चींटियों को इधर से उधर गाड़ियों में घुमाता रहा!


रिचर्ड पी. फाइनमेनः (1918-1988) प्रसिद्ध भौतिकशास्त्री।
अनुवादः टुलटुल विश्वासः एकलव्य द्वारा प्रकाशित की जाने वाली बाल विज्ञान पत्रिका 'चकमक' में कार्यरत हैं। यह लेख फाइनमेन की आत्मकथात्मक किताब ‘श्योरली यू आर जोकिंग मिस्टर फाइनमेन' से लिया गया है।