ज्यूल्स वर्न

लंदन के एक क्लब में फिलिस फॉग और उनके एक दोस्त के बीच शर्त लग गई थी कि फिलिस फॉग यातायात के आधुनिक साधनों का इस्तेमाल करके, 80 दिन में दुनिया का एक चक्कर पूरा करेंगे।
फिलिस फॉग अपने एक साथी पासपार्टआउट के साथ यात्रा पर निकल पड़ते हैं। यात्रा के दौरान वे भारत से भी गुजरते हैं। बम्बई से इलाहाबाद तक का अधिकतर सफर उन्हें रेलगाड़ी से तय करना था।
पिछले अंक में आपने उनके रेल सफर का किस्सा पढ़ा जिसमें इलाहाबाद से पचास मील पहले रेलगाड़ी रुक गई थी क्योंकि आगे रेल की पांतें बिछाने का काम अभी भी बाकी था, चाहे उन्हें टिकट बेशक इलाहाबाद तक की दी गई थी! रेलगाड़ी बीच में ही रुक जाने पर फिलिस फॉग एक हाथी खरीदकर और एक महावत को साथ लेकर इलाहाबाद की ओर चल पड़ते हैं। फिर आगे क्या हुआ, इस बार पढ़िए।
अपनी मंजिल तक जल्दी पहुंचा जा सके इसलिए गाइड ने निर्माणाधीन रेल का रास्ता छोड़कर दूसरा रास्ता पकड़ा। विंध्याचल पहाड़ों की ऊंचाइयों से बचने के लिए रेल लाइन धूमफिरकर आगे बढ़ती थी जबकि फिलिस फॉग के लिए जरूरी था कि वो सबसे छोटा रास्ता अख्तियार करे। पारसी महावत उस इलाके के चप्पे-चप्पे से वाकिफ था और उसका कहना था कि जंगल का रास्ता पकड़ने पर तकरीबन बीस मील की बचत हो जाएगी। इसलिए औरों के एतराज़ का सवाल ही नहीं था। चूंकि महावत काफी तेज़ी से हाथी को दौड़ा रहा था इसलिए हौदे में गर्दन तक धंसे हुए फिलिस फॉग और सर फ्रांसिस क्रोमेटरी को जमकर धचके लग रहे थे। परन्तु सदियों से चली आ रही ब्रिटिश परंपरा की बदौलत उन्होंने चूं तक नहीं की।

हाथी की पीठ पर बैठे पासपार्टआउट को और भी ज्यादा झटके लग रहे थे और वह अपने मालिक की नसीहत याद करते हुए लगातार इसी कोशिश में था कि कहीं उसकी जीभ दांतों के बीच न आ जाए; क्योंकि ऐसा होने पर ज़रूर उसकी जीभ के दो टुकड़े हो जाते। हाथी की गर्दन पर उचकता हुआ पासपार्टआउट ऐसा लग रहा था मानो कि सर्कस का कोई जोकर उछल-कूद कर रही हो। इस सब के बावजूद वह लगातार मज़ाक कर रहा था और हंस रहा था। बीच-बीच में वो अपने थैले में से गुड़ के टुकड़े निकालता और हाथी अपनी चाल में बिना कोई बदलाव लाए सूंड से उस टुकड़े को लपक लेता।
दो घंटे के बाद गाइड ने हाथी को दो घंटे सुस्ताने दिया। हाथी ने पहले तो पास के तालाब से अपनी प्यास बुझाई और फिर जंगल के पेड़ों और झाड़ियों को खाने में जुट गया। इस पड़ाव से सर फ्रांसिस क्रोमेटेरी बहुत खुश हुए चूंकि वे बेहद थक चुके थे। दूसरी ओर मिस्टर फॉग तो एकदम तरोताजा लग रहे थे मानो वे अभी बिस्तर से उठे हों।
ब्रिगेडियर जनरल ने उनकी तरफ प्रशंसनीय नजरों से ताकते हुए कहा, यह इंसान जरूर लोहे का बना है।'' पासपार्टआउट ने तुरंत जोड़ा, “फौलाद को।” और जल्दी से खाना बनाने में जुट गया।

ठीक दोपहर को पारसी गाइड ने चलने का इशारा किया। जल्द ही वे ऐसे इलाके में पहुंच गए जिसमें घने जंगल के बजाए इमली और खजूर के पेड़ थे और फिर उसके भी बाद छोटी-छोटी झाड़ियों से भरी पथरीली जमीन। बुंदेलखंड के इस ऊपरी इलाके में यात्री कम ही जाते हैं। इस इलाके में हिंदू धर्म की कट्टर परंपराओं को मानने वाले लोग बसे हुए हैं। अंग्रेज़ इस इलाके में अपना राज कायम नहीं कर पाए हैं। विंध्याचल पहाड़ों के इन इलाकों में ऐसे राजाओं का शासन है जिन तक पहुंचना ही मुश्किल होगा।
कई जगह इस तेज़ चौपाए को देखकर उसकी ओर इशारे करते हुए खूंखार दिखने वाले लोग नजर आए। पारसी महावत की यही कोशिश थी कि उनसे कम-से-कम पाला पड़े तो ही अच्छा है क्योंकि वे किसी भी जोखिम में पड़ सकते हैं। रास्ते में उन्हें बहुत ही कम जानवर दिखाई दिए। कहीं-कहीं एक-दो बंदर जो मुंह बनाते-बिगाड़ते हुए भाग जाते थे। जब भी बंदर दिख जाते तो पासपार्टआउट को मजा आ जाता था।

पासपार्टआउट को एक बात की खास चिंता सताए जा रही थी कि मिस्टर फॉग इलाहाबाद पहुंचकर इस हाथी का क्या करेंगे। क्या वे इसे भी अपने साथ ले जाएंगे ? वो तो नामुमकिन था। खरीदने की कीमत में अगर उसे साथ ले जाने का खर्च मिला दें तो दिवाला ही निकल जाएगा। इसे बेच देंगे या फिर ऐसे ही खुला छोड़ देंगे? उसे इस बात की भी चिंता थी कि इस वफादार जानवर के साथ अच्छा सलूक किया जाए। पासपार्टआउट यह भी सोच रहा था कि अगर कहीं मिस्टर फॉग उसे हाथी उपहार में दे दें तो वह क्या करेगा! इस संभावना से वह काफी चिंतित था।
विध्यांचल की मुख्य श्रृंखला को उन्होंने शाम के आठ बजे पार कर लिया। तत्पश्चात वे उत्तरी ढलान पर बने एक खंडहरनुमा बंगले में रुके। उस दिन उन्होंने पच्चीस मील का फासला तय कर लिया था और इलाहाबाद पहुंचने के लिए इतना ही और बचा हुआ था।
रात को काफी ठंडक थी इसलिए पारसी महावत ने सूखे पत्तों और टहनियों से आग जला ली जिससे सबको काफी राहत महसूस हुई। खोलबी से खरीदे गए सामान से रात का खाना तैयार हुआ और थके-मांदे यात्रियों ने भरपेट भोजन किया। खाने के बाद अभी बातचीत शुरू ही हुई थी कि सब लोग खर्राटे लेने लगे। गाइड ‘किओनी हाथी' के पास खड़ा पहरा दे रहा था। किओनी हाथी भी जल्दी ही एक पेड़ के मोटे तने के सहारे खड़ा-खड़ा सो गया।

रात बिना किसी खास घटना के गुजर गई। बीच-बीच में जरूर रात का सन्नाटा चीते और तेंदुए की गुर्राहट से भंग हो जाता; और कभी-कभी बंदरों की चिचियाहट से। परन्तु गुर्राने के अलावा इन मांसाहारी जानवरों ने बंगले के रहवासियों को और किसी तरह से तंग नहीं किया। सर फ्रांसिस क्रोमेटरी एक थके-मांदे सिपाही की तरह निढाल सोए हुए थे। पासपार्टआउट को बहुत अच्छी तरह से नींद नहीं आई - उसे यही सपने आते रहे कि वो अभी भी हाथी की पीठ पर उचक रहा है। परन्तु मिस्टर फॉग तो ऐसे शांतभाव से सो रहे थे मानो कि वे इंग्लैंड में ‘सेविल रॉ' स्थित अपने घर में आराम फरमा रहे हों।
सुबह छः बजे यात्रा फिर से शुरू हो गई। गाइड को भरोसा था कि शाम तक वे सब इलाहाबाद पहुंच जाएंगे; इसलिए मिस्टर फॉग के बचाए हुए पूरे अड़तालीस घंटे बरबाद नहीं होंगे।
विंध्याचल की आखिरी उतार पर किओनी हाथी ने फिर से रफ्तार पकड़ी और दोपहर तक वे गंगा की सहायक नदी कानी के किनारे बसे एक कस्बे कालिंजर आ पहुंचे। महावत ने कस्बे से कुछ दूरी बनाए रखते हुए इस रास्ते को पकड़ा।
दो बजे के करीब वे घने जंगल में घुसे जिसमें उन्हें काफी समय तक चलना था। महावत की कोशिश थी कि ज्यादा-से-ज्यादा रास्ता जंगल और पेड़ों की सुरक्षा में छिपकर तय हो।
अब तक तो बिना किसी दुर्घटना के वे लोग आगे बढ़ पाए थे और ऐसा लग रहा था कि वे अपनी मंजिल तक सफलता से पहुंच जाएंगे। तभी अचानक किसी चीज़ से आशंकित होकर हाथी रुक गया।
उस समय शाम के चार बजे थे। सर फ्रांसिस क्रोमेटरी ने पूछा, “क्या बात है?” “पता नहीं', पारसी महावत ने जवाब दिया। वो घने जंगल से आ रही आवाज़ को ध्यान से सुनने की कोशिश कर रहा था। कुछ ही देर में यह धीमी आवाज़ स्पष्ट सुनाई देने लगी, ऐसी ध्वनि मानो काफी सारे लोग एक साथ बोल रहे हों और साथ ही कांसे के वाद्ययंत्रों की आवाज़।

पासपार्टआउट बहुत ही ध्यान से सुनने की कोशिश कर रहा था और साथ ही घने जंगल में आंखें फाड़फाड़कर देख रहा था। इस बीच फिलिस फॉग ने एक शब्द भी नहीं कहा। वो बहुत धैर्य से इंतज़ार कर रहे थे।
पारसी महावत ने नीचे कूदकर हाथी को पेड़ से बांधा और घने जंगल में गुम हो गया। कुछ देर बाद वह लौटा और बोला, “ब्राह्मणों का एक काफिला इस तरफ चला आ रहा है। हमें पूरी कोशिश करनी चाहिए कि वे लोग हमें न देख पाएं।''
वहां से हाथी को खोलकर पारसी जंगल के धने हिस्से की ओर ले गया। उसने सबको चेता दिया कि वे नीचे नहीं उतरें और किसी भी क्षण वहां से भाग निकलने के लिए तैयार रहें। वैसे उसे इस बात का पूरा भरोसा था कि काफिला उन्हें देख नहीं पाएगा। वे जंगल के काफी घने हिस्से में छिपे हुए थे।
लोगों और वाद्ययंत्रों का शोर नज़दीक आता जा रहा था। ढोलक, नगाड़े और मंजीरे की आवाज़ के साथ लगातार हो रहे मंत्रोच्चार की ध्वनि।
पचास गज की दूरी पर जुलूस का आगे का हिस्सा नज़र आने लगा। सबसे आगे लंबे कढ़ाई किए चोंगे पहने पुजारी चल रहे थे। उनके आसपास चल रहे। स्त्री-पुरुष और बच्चे झांझ और नगाड़े की तीव्र ध्वनियों के साथ करुणगीत गा रहे थे।
उनके पीछे चौड़े चकों से बने रथ पर एक वीभत्स मूर्ति रखी हुई थी। रथ के पहियों के स्पोक आपस में लिपटे-गुथे हुए सांपों को चित्रित कर रहे थे। अत्यंत सुसज्जित चार घोड़े इस रथ को खींच रहे थे। रथ पर रखी हुई मूर्ति के चार हाथ थे। शरीर स्याह लाल था, डरावनी आंखें, उलझे हुए बाल, बाहर निकली हुई लंबी जीभ और पान-मेंहदी से रंगे हुए ओंठ। गले में खोपड़ियों की माला पहने हुई थी। और कमर में कटे हुए हाथों का पट्टी। यह मूर्ति एक सरकटे दैत्य के ऊपर खड़ी हुई थी।

सर फ्रांसिस ने मूर्ति को पहचानकर कहा, “यह तो काली की मूर्ति है। प्रेम और मृत्यु की देवी।”
संभवतः मृत्यु की, परन्तु प्रेम की तो कतई नहीं।'' पासपार्टआउट ने कहा।
पारसी ने उसे चुप हो जाने को कहा। रथ पर रखी मूर्ति के आस-पास फकीरों का एक समूह बहुत ही विचित्र करतब कर रहा था। उघड़े बदन पर लाली पुती हुई और कई सारे ज़ख्मों से खून की बूंदें टपकती हुईं। हिन्दू अनुष्ठानों के दौरान ऐसे मूर्ख धर्मान्ध तो दौड़े चले आ रहे रथ के सामने भी कूद जाएंगे।
उनके पीछे पूर्वीय वेशभूषा में सजेधजे ब्राह्मण, जो एक महिला को ला रहे थे। उस महिला से चला भी नहीं जा रहा था। एकदम अंग्रेज़ों जैसी गोरीचिट्टी, काफी कम उम्र की महिला थी वो। उसके सिर, गले, कंधों पर गहने ही गहने थे। कानों में, बाहों पर, हाथों में, पैरों में, ऊंगलियों पर - मालाओं, चूड़ियों, अंगुठियों और खूब सारे अन्य गहनों से लदी हुई थी वो। सिर पर सोने से बुना हुआ साफा बंधा हुआ था और मखमल के महीन कपड़ों में से उसकी बस हल्की-सी झलक मिल रही थी।
इस दृश्य के एकदम विपरीत उसके पीछे पालकी में एक शव उठाए जो लोग चल रहे थे उनकी कमर से नंगी तलवारें लटक रही थीं और हाथों में वे लंबी-लंबी बंदूक थामे हुए थे।
राजा की विशिष्ट वेशभूषा में सजा हुआ शव किसी बूढे व्यक्ति का था। जीवित रहते हुए जैसे कपड़े पहनता था वैसे ही कपड़े वो अभी भी पहने हुए था। मोतियों से जड़ी पगड़ी, रेशम और सोने से कढ़ाई किए वस्त्र, हीरों से जड़ा हुआ दुपट्टा, साथ में वे सब खूबसूरत हथियार भी थे जो किसी राजकुमार की धरोहर होते हैं।
और एकदम आखिर में थे वाद्ययंत्र बजाने वाले, जिनके साथ चल रहे कट्टरपंथियों की चिल्लाहट वाद्ययंत्रों के शोर को भी दबा देती थी।

यह जुलूस देख रहे सर फ्रांसिस क्रोमेटरी का चेहरा गमगीन हो गया और गाइड की तरफ मुड़ते हुए उन्होंने कहा, “सती।” पारसी महावत ने सिर हिलाया पर साथ ही उन्हें चुप रहने का इशारा किया। यह लंबा जुलूस धीरे-धीरे घने जंगल में ओझल हो गया। गाने-बजाने की आवाज बंद होने के बाद भी लोगों के चिल्लाने की आवाज़ आ रही थी और कुछ समय बाद एकदम निस्तब्धता छा गई। जैसे ही यह जुलूस ओझल हुआ फिलिस फॉग ने पूछा, “यह 'सती' क्या होता है?" उन्होंने सर फ्रांसिस को यह शब्द कहते हुए सुन लिया था।
सर फ्रांसिस ने जवाब दिया, “सती एक तरह की बलि है किन्तु ऐच्छिक बलि। अभी जिस महिला को आपने देखा उसे कल सुबह जला दिया जाएगा।”
लुच्चे-बदमाश", पासपार्टआउट से न रहा गया।
फॉग ने पूछा, “शव का क्या होगा?"
“यह उसके पति का शव है जो बुंदेलखंड के एक स्वतंत्र राज्य का राजा था।” गाइड ने जवाब दिया।
"क्या हिन्दुस्तान में अभी भी ऐसी बर्बर रस्में मनाई जाती हैं?" फिलिस फॉग ने शांत स्वर में पूछा, “क्या अंग्रेज़ इन्हें खत्म नहीं कर पाए हैं?"
सर फ्रांसिस ने बताया, “हिन्दुस्तान के अधिकतर हिस्सों में अब ऐसी बलि नहीं होती परन्तु दूर-दराज के इलाकों पर हमारा नियंत्रण नहीं है। खासतौर पर बुंदेलखंड में। विंध्याचल की उत्तरी ढलानों पर स्थित इस पूरे जिले में लगातार लूट-पाट और मार-काट होती रहती है।''
पासपार्टआउट ने कहा, “बेचारी महिला। जिंदा जलाया जाना!"

सर फ्रांसिस ने जवाब दिया, "हां जिंदा जल जाना। और तुम कल्पना भी नहीं कर सकते कि अगर वो जला नहीं दी जाती तो उसके रिश्तेदारों से उसे क्या-क्या सहना पड़ता। वे उसको सिर मुंड देते, खाने को थोड़े से चावल की भीख दी जाती, उसे अपवित्र कहकर दुत्कार दिया जाता और बीमार कुत्ते की तरह उसे किसी कोने में मरने के लिए छोड़ दिया जाता। इसलिए ऐसी जिंदगी जीने के बजाए वे बेचारी जलकर आत्महत्या कर लेने का रास्ता अपनाती हैं। किन्हीं धार्मिक अनुष्ठानों में विश्वास की वजह से नहीं।'
उन्होंने जारी रखा, "कई बार यह बलि सचमुच में स्वैच्छिक होती है और उसे सरकार को रोकने के लिए जोरज़बरदस्ती करनी पड़ती है। उदाहरण के लिए कुछ साल पहले मैं बंबई में रहता था तब एक जवान विधवा ने अपने पति के शव के साथ खुद जल जाने की अनुमति गवर्नर से मांगी। स्वाभाविक है कि गवर्नर ने इंकार कर दिया। तो विधवा ने वो शहर छोड़ दिया और एक स्वतंत्र राजा की शरण में जाकर अपनी बलि देने की प्रतिज्ञा को पूरा किया।”
जब सर फ्रांसिस यह वाकिया सुना रहे थे तो गाइड लगातार सिर हिला रहा था। जब फ्रांसिस ने अपना किस्सा पूरा किया तो गाइड ने कहा, "कल भोर की बेला में जो बलि दी जाएगी वो स्वैच्छिक नहीं है।"
"तुम्हें कैसे मालूम?"

"बुंदेलखंड में सब इस किस्से से वाकिफ हैं।'' गाइड ने जवाब दिया।
सर फ्रांसिस ने कहा, “परन्तु यह बेचारी महिला तो किसी भी तरह प्रतिरोध करती नज़र नहीं आ रही।
"इसलिए क्योंकि उसे अफीम, भांग और गांजे के धुएं से बेसुध-सा कर दिया गया है।"
पर वे उसे ले कहां जा रहे हैं?''
यहां से दो किलोमीटर दूर स्थित पिल्लगी के मंदिर में। बलि के मुहूर्त का इंतज़ार करते हुए वह रात वहां गुजारेगी।"
“और बलि कब दी जाएगी?"
कल एकदम सुबह।”
ऐसा कहते हुए महावत ने घने जंगल में से हाथी को निकाला और उसकी गर्दन पर चढ़ गया। पर जैसे ही वो अपनी विशेष सीटी बजाकर हाथी को आगे बढ़ाने वाला था फिलिस फॉग ने उसे रोका और सर फ्रांसिस से कहा, “अगर हम इस महिला को बचा लें तो?"
“महिला को बचा लें, मिस्टर फॉग!' ब्रिगेडियर चिल्लाए।

"मेरे पास अभी भी बारह घंटे बचे हुए हैं। उनका इस्तेमाल मैं इस काम के लिए कर सकता हूं।''
"क्या बात है! आप सचमुच दिलदार हैं।" सर फ्रांसिस ने आश्चर्य के साथ कहा।
"कभी-कभी, जब मेरे पास समय होता है।' फिलिस फॉग ने शांति से जवाब दिया।
मुश्किलों से भरा हुआ काम था यह, शायद एकदम असंभव। मिस्टर फॉग अपनी जिंदगी दांव पर लगा रहे थे या कम-से-कम अपनी स्वतंत्रता - और इस वजह से उनकी योजनाओं पर पानी फिर सकता था। परन्तु फिर भी वे बिल्कुल नहीं हिचकिचाए, और अब उन्हें दृढ़संकल्प साथी के रूप में सर फ्रांसिस क्रोमेटरी मिल गया था। पासपार्टआउट तो अपने मालिक के लिए कुछ भी करने के लिए तैयार था ही, और उसे यह विचार उत्साहित कर रहा था।
उसे लगा कि इस बर्फिले मुखौटे के अंदर भी गर्मजोशी से भरा और दिलदार इंसान है, और अचानक उसे फिलिस फॉग पर खूब प्यार उमड़ आया।
अब सवाल यह था गाइड क्या तय करेगा? क्या वो हिन्दुओं का साथ देगा? अगर वे उसे अपनी ओर न कर पाएं तो भी उन्हें यह तो सुनिश्चित करना ही पड़ेगा कि वो किसी की भी तरफदारी न करे। सर फ्रांसिस ने उससे साफ-साफ पूछ लिया।
गाइड ने जवाब दिया, “मैं पारसी हूं और यह महिला भी पारसी है। मैं इस प्रयास में आपके साथ हूं।''
"बढ़िया।'' फिलिस फॉग ने कहा।
पर मैं इतना जरूर बता दें कि इस कोशिश में न सिर्फ हम लोगों की जान जा सकती है, पर अगर हम पकड़े गए तो भयानक यातनाएं सहनी पड़ सकती हैं। इसलिए जो भी तय करना है सोच विचार कर तय करो।" गाइड ने अपनी बात जारी रखी।

"वो तो तय हो चुका है।' मिस्टर फॉग ने जवाब दिया, “मुझे लगता है कि हमें आगे कुछ करने से पहले अंधेरे का इंतजार करना चाहिए।"
“मेरी भी यही सलाह है।” गाइड ने जवाब दिया। इसके बाद गाइड ने उन्हें उस महिला के बारे में कुछ जानकारी दी। वो बंबई के एक धनी व्यापारी की खूबसूरत बेटी थी। उसे वहां उम्दा किस्म की अंग्रेजी शिक्षा मिली थी। उसके तौर-तरीके देखकर अक्सर यह पता करना मुश्किल था कि वह यूरोपियन नहीं है। उसका नाम औदा था। अनाथ होने के कारण इच्छा के विरुद्ध उसकी शादी बुंदेलखंड के इस बूढ़े राजा के साथ कर दी गई थी। शादी के तीन महिने बाद वो विधवा हो गई और यह जानते हुए कि उसके भाग्य में क्या है वो घर से भाग गई। परन्तु उसे फिर से पकड़ लिया गया और राजा के रिश्तेदार चाहते हैं कि उसे खत्म कर दिया जाए क्योंकि यह उनके हित में है। इसलिए अब उसके लिए बचने का कोई रास्ता नहीं है।
किस्सा सुनकर मिस्टर फॉग और उनके साथियों का इरादा और भी पक्का हो गया। तय हुआ कि गाइड हाथी को पिल्लगी के मंदिर की ओर ले जाए, जितना ज्यादा-से-ज्यादा करीब जाना संभव हो।
आधे घंटे बाद वे मंदिर से तकरीबन पांच सौ गज की दूरी पर झाड़ियों के एक झुंड की आड़ में रुके। मंदिर धुंधलासा दिख रहा था परन्तु उन्मादित कट्टरपंथियों की चीख-पुकार स्पष्ट सुनाई दे रही थी।

वहां पहुंचने पर उस महिला तक पहुंचने के तरीकों की चर्चा हुई। जिस मंदिर में महिला को कैद करके रखा गया था उससे गाइड परिचित था। क्या यह संभव होगा कि रात में जब पूरी भीड़ गहरी नींद में हो तो दरवाजे से अंदर घुस जाएं या फिर दीवार में छेद करना पड़ेगा? इसका जवाब तो समय और हालात को देखकर ही मिलेगा। लेकिन यह सभी को साफतौर पर मालूम था कि महिला को छुड़ाने की कोशिश उसी रात को करनी होगी। भोर हो जाने के बाद जब उस महिला को मृत्यु के मुंह में धकेलने के लिए ले जाया जाएगा उस समय ऐसी किसी कोशिश का कोई फायदा नहीं होगा।
मिस्टर फॉग और उनके साथी रात होने का इंतजार करते रहे। जैसे ही अंधेरा हुआ, छः बजे के करीब उन्होंने मंदिर का एक चक्कर लगाने का तय किया। फकीरों की चिल्लाहट लगभग थम-सी गई थी, रस्मों-रिवाज़ के मुताबिक हिन्दुस्तानी कुछ ही देर में भांग के नशे में धुत हो जाने वाले थे। ऐसे में शायद उनके बीच से निकलकर मंदिर तक पहुंचना संभव हो।

गाइड के पीछे-पीछे मिस्टर फॉग, सर फ्रांसिस और पासपार्टआउट ने बिना किसी तरह का शोर किए मंदिर का चक्कर लगाना शुरू किया। पेड़ों-झाड़ियों के पीछे छुपते हुए दस मिनट तक आगे बढ़ने के बाद वे एक नदी के किनारे पहुंचे। वहां से उन्हें मशालों की रोशनी में लकड़ी का एक ढेर दिखाई दिया। यह चंदन की लकड़ियों पर सुगंधित तेल छिड़ककर बनाई गई एक चिता थी। उस पर राजा का शव रखा गया था जिसे अगले दिन उस विधवा के साथ जलाया जाना था। मंदिर चिता से सौ गज की दूरी पर था और यहां से उसके गुम्बद धुंधले-से दिख रहे थे। गाइड के कहने पर वे अत्यंत सतर्कतापूर्वक आगे बढ़ने लगे। अब रात की नीरवता में केवल हवा के बहने की आवाज़ आ रही थी।
पेड़ों के झुरमुट के अंत तक पहुंचकर गाइड रुक गया। खुले में कुछेक मशालें जल रही थीं और ज़मीन पर नशे में बेसुध नींद में पुरुषों के समूह इधर-उधर सो रहे थे। ऐसा नज़ारा था मानों युद्ध के मैदान में लाशें बिखरी पड़ी हों। पुरुष, महिलाएं और बच्चे पास-पास लेटे हुए थे। कहीं-कहीं खर्राटों की आवाज़ सुनाई दे जाती थी।
इस मैदान के पीछे पेड़ों से घिरा हुआ पिल्लगी का मंदिर था। गाइड को यह देखकर अत्यन्त हताशा हुई कि मंदिर के दरवाजे पर सिपाही निगरानी रखे हुए थे और खुली तलवारें पकड़े हुए पहरा दे रहे थे। इसे देखकर तो ऐसा लगता था कि जरूर अंदर भी पुजारी निगरानी रख रहे होंगे।
यह भांपकर कि ज़ोर-जबर्दस्ती करके मंदिर में नहीं घुसा जा सकता, गाइड ने अपने साथियों से वापस चलने के लिए कहा। फिलिस फॉग और सर फ्रांसिस ने भी महसूस किया कि ऐसी कोई कोशिश फिजूल होगी।

कुछ देर इंतज़ार कर लेते हैं। अभी आठ ही बने हैं, हो सकता है कि कुछ देर बाद सिपाही सो जाएं।' ब्रिगेडियर ने कहा।
पारसी ने कहा, "हां, ऐसा संभव है।'' इसलिए फिलिस फॉग और उनके साथी एक पेड़ के नीचे बैठकर इंतज़ार करने लगे। पारसी फिर एक बार देखने गया लेकिन सिपाही अभी भी मुस्तैदी से पहरा दे रहे थे। इस तरह वे आधी रात तक इंतज़ार करते रहे परन्तु स्थिति वैसी ही बरकरार थी - सिपाही उसी तरह लगातार पहरे पर डटे हुए थे। उन्हें शायद भांग नहीं पिलाई गई थी। इसलिए जरूरी हो गया कि कोई नई योजना बनानी होगी - मंदिर में घुसने के लिए दीवार में छेद करना ही पड़ेगा।
परन्तु ऐसा कोई कदम उठाने से पहले यह पता करना जरूरी था कि क्या पुजारी भी सिपाहियों जैसी मुस्तैदी से निगरानी कर रहे हैं। वे लंबा चक्कर लगाकर मंदिर के पिछवाड़े तक पहुंचे और मंदिर की दीवार तक साढे बारह बजे पहुंचे। इस तरफ कोई पहरेदार नहीं था - पर कोई दरवाजा या खिड़की भी नहीं थी।
अंधेरी रात थी। कृष्ण पक्ष के आखिरी दिनों का चांद क्षितिज के आसपास ही मंडरा रहा था। उस पर आसमान में बादल छाए हुए थे और खूब ऊंचे-ऊंचे पेड़ों ने अंधेरे को और भी गहरा दिया था।
दीवार तक पहुंचना ही काफी नहीं था, उसमें से रास्ता बनाना जरूरी था - और इस काम के लिए उनके पास जेब में रखने वाले छोटे चाकुओं के अलावा और कुछ नहीं था। किस्मत से मंदिर की दीवार ईंट और लकड़ी की बनी हुई थी जिसे आसानी से भेदा जा सकता था। एक बार एक ईंट बाहर निकल आए तो बाकी आसानी से बाहर निकल आतीं।
वे बिना किसी प्रकार का शोर किए इस काम में मशगूल हो गए। पारसी और पासपार्टआउट दोनों ईंटों को निकालकर दो फुट का छेद बनाने में जुट गए। वे काफी तेजी से आगे बढ़ रहे थे कि अचानक अंदर से चीख की आवाज़ आई।

इस चीख के जवाब में बाहर से कई चीखें सुनाई दीं। क्या लोगों को छेद के बारे में पता चल गया है? क्या इसलिए सबको खबर दी जा रही है? यह सब सोचकर वे सब वापस पेड़ों की आड़ में छिप गए। कुछ ही देर में मंदिर के पिछवाड़े की तरफ सिपाही पहुंच गए - और इस तरह खड़े हो गए कि अब मंदिर की दीवार तक पहुंचना ही असंभव था।
अब इस समस्या का कोई समाधान नज़र नहीं आ रहा था - वे चारों बहुत उदास हो गए क्योंकि जब उस महिला तक पहुंचा ही नहीं जा सकता तो उसे बचाने की तो कोई आशा नहीं थी।
सर फ्रांसिस बहुत गुस्से में थे, पासपार्टआउट को तो कुछ समझ में नहीं आ रहा था और गाइड अपने आपको मुश्किल से चुप रख पा रहा था। केवल सदैव की तरह शांत फॉग बिना परेशान हुए इंतज़ार करते रहे।
“अब हम यही कर सकते हैं कि यहां से चले जाएं।'' ब्रिगेडियर ने धीमे से सुझाव दिया।
“हां, हमें चल देना चाहिए क्योंकि अब कुछ करना संभव नहीं है।'' गाइड ने भी कहा।
"थोड़ी देर इंतज़ार कर लेते हैं।” फॉग ने कहा, “क्योंकि मुझे कल दोपहर से पहले इलाहाबाद पहुंचने की ज़रूरत नहीं है।"
"परन्तु अब क्या आशा है। आपको?" सर फ्रांसिस ने पूछा, “चंद घंटों बाद भोर हो जाएगी और ..."
"अभी जो मौका हमारे हाथ से निकल गया है वो शायद अंतिम समय पर फिर हाथ आ जाए।' फॉग ने कहा।
ब्रिगेडियर सोच रहा था कि काश वो फिलिस फॉग का चेहरा पढ़ पाता। यह अंग्रेज़ इस वक्त आखिर क्या सोच रहा है? क्या इसने आखिरी समय में महिला को छुड़ाने का इरादा बनाया है - अंतिम क्षणों में जल्लादों के हाथों से उसे छुड़ाकर ले जाने का? यह तो एकदम मूर्खता होगी और ऐसा लगता नहीं कि यह आदमी इतना पागल होगा। फिर भी सर फ्रांसिस को लगा कि अब इस भयावह ड्रामे का अंत देख ही लेना चाहिए।

गाइड उन्हें फिर से पेड़ों के झुरमुट वाली शुरुआती जगह की ओर ले गया। वहां से बेसुध सोए हुए लोगों का जमघट दिख रहा था।
इस बीच पेड़ के नीचे वाली शाखाओं पर बैठी पासपार्टआउट विचार मग्न था। उसे जब यह विचार आया तो पहले तो उसने सोचा कि यह तो पागलपन होगा, परन्तु अब वह बुदबुदा रहा था, "क्यों नहीं, अब यही तो एक तरीका बचा है।' इतना कहते-कहते वह सांप की तरह जमीन की ओर सरकने लगा।
कुछ घंटे गुजरने पर आसमान का रंग हल्का पड़ने से समझ में आने लगा कि अब भोर की बेला आने वाली है। बस अब समय हो गया था। भीड़ तंद्रा में से उठने लगी मानों मृत्यु से उठ खड़े हुए हों लोग।
गाने-चीखने और वाद्ययंत्रों की आवाज फिर से शुरू हो गई। अब वह घड़ी आ गई थी जब बेचारी महिला को जला दिया जाएगा। मंदिर के द्वार अचानक खुल गए और अंदर की तेज़ रोशनी दिखाई दी। मिस्टर फॉग और सर फ्रांसिस को अब वो महिला स्पष्ट दिखाई दे रही थी। दो पुजारी उसे बाहर ला रहे थे। उन्हें ऐसा भी लगा कि बेहोशी की तंद्रा में से निकलकर वह अपनी जान बचाने के लिए छूटकर भागने की कोशिश कर रही है। सर फ्रांसिस का दिल तेज़ी से धड़कने लगा और उन्होंने फॉग का हाथ पकड़ लिया। तब उन्हें समझ में आया कि फॉग के हाथ में छुरा है।
तभी भीड़ भी आगे बढ़ने लगी। वो महिला फिर से बेसुध-सी हो गई थी और मंत्रोच्चार करते हुए फकीरों के बीच में से गुजर रही थी।
फिलिस फॉग और उनके साथी भी भीड़ के आखिरी हिस्से में मिल गए। दो मिनिट में वे नदी के किनारे पहुंच गए और चिता से पचास गज की दूरी पर रुक गए। चिता पर रखे राजा के शव के साथ महिला को लिटा दिया गया था और वो बिल्कुल भी हिलडुल नहीं रही थी।

तब तेल में भीगी चिता को मशाल लगाते ही लपटें भड़क उठीं। फिलिस फॉग तो बस कुद ही जाना चाहते थे लेकिन सर फ्रांसिस और गाइड ने उन्हें ज़बर्दस्ती पकड़कर रोक लिया। परन्तु फॉग इतने जोश में थे कि उन्होंने दोनों को धकेल दिया। और तभी तेज़ी से दृश्य बदलने लगा।
डर के मारे चीखते हुए सब लोग ज़मीन पर नतमस्तक हो गए। बूढ़ा राजा मरा नहीं था क्योंकि महिला को अपने हाथों में उठाए वह भूत की तरह उठ खड़ा हुआ। धुएं के गुब्बार में चिता से उतरती हुई आकृति पिशाच जैसी दिख रही थी।
डर के मारे सब फकीर, सिपाही, और पुजारी नतमस्तक थे और इस आलौकिक घटना की तरफ आंख उठाकर देखने की भी हिम्मत नहीं कर रहे थे।
मज़बूत बांहें बेहोश महिला को उठाए हुए थीं, मानों कि उसका कुछ वज़न ही न हो।मिस्टर फॉग और सर फ्रांसिस अपनी जगह जड़ हो गए थे, पारसी ने अपना सिर झुका लिया था और पासपार्टआउट भी उतना ही हैरान रहा होगा।
वो आदमी चिता से उठकर मिस्टर फॉग और सर फ्रांसिस तक पहुंचा और उसने अचानक आदेश दिया, अब भाग चलना चाहिए।'
यह कोई और नहीं पासपार्टआउट था जो गहरे धुंए और सुबह के धुंधलके का सहारा लेकर चिता तक पहुंच गया था और इस जवान औरत को मौत के जबड़ों में से खींच लाया था। वह पासपार्टआउट ही था जो डरी हुई भीड़ में से बेधड़क निकलकर यहां तक आ पहुंचा था।
क्षण भर में चारों जंगल में गुम हो गए और अब हाथी उन्हें तेजी से ले जा रहा था। परन्तु चीख-पुकार के शोर-शराबे और फिलिस फॉग की टोपी में बंदूक की गोली के छेद से उन्हें समझ में आया कि लोगों को समझ में आ गया था कि क्या हुआ।
चिता पर राजा का शव धड़ल्ले से जल रहा था और पुजारियों ने अपने डर पर काबू पा लिया था। उन्हें समझ में आ गया कि कुछ लोग औरत को उनके चंगुल से छुड़ा ले गए हैं। इसलिए पुजारी और उनके पीछे सिपाही भी जंगल में घुस गए। भाग रहे काफिले पर गोलियां भी दागी गई परन्तु कुछ ही देर में वे गोलियों और तीरों के दायरे से बाहर पहुंच चुके थे।

(शेष अगली किश्त में)

किऔनी हाथी का क्या किया गया? हिंदुस्तान में फिलिस और किन-किन मुसीबतों में फंसे? अगली किश्त में तफ्सील से पढ़िए आगे का सफर।


ज्यूल्म वर्न (1828-1905) की मशहूर कहानी 'अराउंड द वर्ल्ड इन एटी डेज' से।
अनुवादः राजेश खिंदरी। संदर्भ पत्रिका से संबद्ध।
सभी चित्रः वी. एम. भोंडे।