एंटोन वॉन ल्यूवेनहॉक

एंटोन वॉन ल्यूवेनहॉक शायद सत्रहवीं शताब्दी के सूक्ष्मदर्शी बनाने और उनका कुशल इस्तेमाल 'करने वालों में सबसे विलक्षण था। काफी मेहनत लगाकर हाथ से घिसकर बनाए गए लैन्स के जरिए उसने अपने माइक्रोस्कोप विकसित किए। उसके लैन्स इतनी बारीकी और कुशलता से बनाए हुए थे कि वो उनसे लगभग 200 गुना आवर्धन (Magnification) हासिल कर पाया। उन लैन्सों की सहायता से उसने तरह-तरह के पदार्थों का अध्ययन किया - गड्ढे का पानी, दांत की खुरचन, खून की कोशिकाएं, पेशियों के तंतु और शुक्राणु। ल्यूवेनहॉक को जीवाणु विज्ञान (माइक्रोबायोलॉजी) का प्रणेता कहा जाता है क्योंकि वह पहला व्यक्ति था जिसने अपने शोध के लिखित रिकॉर्ड रखे।

1683 में उसने ऐसी रचनाओं का वर्णन किया जो बेक्टीरिया ही हो सकते थे। उसके बाद सौ साल तक उन्हें फिर से नहीं देखा जा सका। यहां दिए गए हिस्सों में ल्यूवेनहॉक ने इन छोटे प्राणियों के 1675 में लिए अवलोकनों का भू॒ दिखाई नहीं देते, पर फिर भी उनमें एक हाथी या एक भीमकाय देवदार के पेड़ जितना ही जीवन मौजूद है।
हालांकि ल्यूवेनहॉक को एक सिद्धांतकार के बजाए प्रमुखतः एक अवलोकनकर्ता ही माना जाता है। उस समय प्रचलित विश्वास था कि मृत पदार्थ से भी जीवन पैदा हो सकता है। - परन्तु ल्यूवेनहॉक ने इस मान्यता का विरोध किया; और वैज्ञानिक विचारधारा के विकास में यह ल्यूवेनहॉक का एक प्रमुख योगदान था। अब हम उनके अवलोकनों और नोट्स पर गौर फरमाएंगे जो 1677 में प्रकाशित किए गए थे।

कुछ अवलोक
1675 में मैंने बारिश के पानी में अत्यन्त सूक्ष्म जीवित प्राणियों की खोज की - ऐसा बारिश का पानी जो कुछ दिन तक, अंदर से नीले रंग से पॉलिश किए हुए मिट्टी के बर्तन में रखा गया था। इस वजह से मैंने उस पानी को बहुत ध्यान से देखा, विशेषतौर पर उन सूक्ष्म जीवों को --- जो मुझे एम, स्वामरडेम द्वारा उससे पहले देखे गए (दर्शाए गए) जीवों से दस हज़ार गुना छोटे लग रहे थे। एम. स्वामरडेम ने इन्हें पानी के पिस्सू या पानी की जूं कहा था, जिन्हें पानी में बिना किसी उपकरण के नंगी आंखों द्वारा देखा जा सकता है। 

पहली तरह का जीव जिसे मैंने कई बार देखा वो 5, 6, 7 या 8 गोलीनुमा रचनाओं का बना हुआ दिख रहा था। कोई ऐसा खोल या झिल्ली भी नहीं नज़र आ रही थी जो उन्हें आपस में बांधे रखती हो या उन्हें अपने में समेटे रख रही हो। जब ये कीटाणु या जीवित परमाणु चलते थे (हलन-चलन करते थे), तो वे दो छोटे सींगनुमा अंग आगे को बढ़ाते थे, जो लगातार हिलते रहते थे। इन दोनों सींगों के बीच की जगह चपटी-सी थी, जबकि शेष शरीर वक्राकार था, जो अंत की ओर थोड़ी नुकीला हो जाता था। इस छोर की ओर पूंछ थी जो शरीर से लगभग चार गुना लंबी थी, और मेरे माइक्रोस्कोप के हिसाब से मकड़ी के जाले के धागे जितनी मोटी थी। और इस पुंछ के अंत में एक गोला-सा था, लगभग उसी साइज़ का जिससे इस जीव का शरीर बना हुआ था। ये छोटे प्राणी अगर किसी तंतु या धागे पर जा पहुंचते, या किसी ऐसे अन्य कण पर, तो वे इसमें फंस जाते थे और अपने शरीर को एक वक्र में खींचकर उससे अपनी पूंछ छुड़ाने की कोशिश करते। अपने आप को फैलाने और सिकोड़ने की प्रक्रिया कुछ समय तक चलती रहती; और मैंने रेत के कण में ऐसे कई सैंकड़ों बेचारे जीवों को कुछ तंतुओं में आपस में फंसे देखा है।

मैंने एक अन्य तरह के, अंडाकार आकार के जीव की भी शोध की और मुझे ऐसा लगा मानो कि उनका सिर तीखे सिरे की तरफ हो। ये पहले वालों की अपेक्षा थोड़े से बड़े थे। इनके शरीर का नीचे का हिस्सा चपटा था और उस पर बहुत से पतले-पतले पैर थे, जो बहुत तेजी से हलने-चलन करते थे। शरीर का ऊपरी हिस्सा वक्राकार था और उसमें 8, 10 या 12 गोले थे, जहां भी वे गोले स्पष्टतौर पर दिख रहे थे। ये छोटे जीव कभी-कभी अपनी आकृति बदलकर एकदम गोला बना लेते थे, खासतौर पर जब वे किसी सूखी जगह पर आ जाते थे। उनका शरीर अत्यन्त लचीला था; क्योंकि जब भी उनका शरीर किसी भी छोटे-से-छोटे तंतु या धागे से टकराता, उनका शरीर मुड़ जाता, और फिर से धक्का-सा खाकर वापस आ जाता।

जैसे ही मैंने उन्हें सूखी जगह पर रखा, मैंने देखा कि अपने आप को गोले में बदलते वक्त, वे अपने शरीर को पिरामिड के रूप में उठा लेते जिसका ऊपरी बिन्दु बीच में होता। फिर इस तरह कुछ देर पड़े रहने के बाद वे फट जाते हैं, और ऐसी स्थिति में छोट-छोटे गोले अस्पष्ट से दिख रहे। थे, इसलिए मैं उस झिल्ली का पता नहीं लगा पाया, जिसमें यकीनन ये गोले कैद रहे होंगे। और फटने के वक्त, जब यह जिंदा था उसकी तुलना में, ज्यादा गोले दिखाई दिए।
मुझे एक तीसरे प्रकार का जीव भी दिखा जो जितना चौड़ा था उससे दुगना लंबा था, और मुझे पहले जीव से आठ गुना छोटा दिख रहा था; फिर भी मुझे लगा कि उसके छोटे-छोटे पैर हैं, जिनकी मदद से ये गोले में और सीधी रेखा में बहुत तेजी से चल रहे थे।

एक चौथा भी था जो इतना छोटा था कि मैं उसकी आकृति भी नहीं बूझ पाया। ये एक बड़ी जूं की आंख से हज़ार गुना छोटे थे। ये अब तक दिखे सब की तुलना में ज्यादा चपल थे। मैंने कई बार उन्हें एकदम स्थिर अवस्था में देखा है जैसे कि कोई बिन्दु हो, और फिर अत्यंत फुर्ती से अपने आपको घुमाने लगते हैं जैसे हम लट्टू को घूमता हुआ देखते हैं। (घूमते वक्त) उनकी परिधि एक छोटे रेत के कण से ज्यादा नहीं होती और फिर ये शरीर को सीधा आगे की तरफ बढ़ा लेते हैं, और फिर धीरे-धीरे झुकी हुई सी मुद्रा में लेट जाते हैं। मैंने और भी कई तरह के प्राणी देखे; वे पहले बाले की तरह, आमतौर पर इतने नाजुक होते
माइक्रोस्कोप और सूक्ष्मजीवः चित्रः एक ल्यूवेनहॉक द्वारा बनाया गए एक माइक्रोस्कोप का रेखाचित्र है। इसमें 'अ' माइक्रोस्कोप की फ्रेम है। 'ब' माइक्रोस्कोप का लैस है। 'स' स्लाइड फंसाने के लिए क्लैंप है। 'द' फोकसिंग के लिए स्क्रू है। 'इ' माइक्रोस्कोप का हत्था है जिससे माइक्रोस्कोप को पकड़ा जाता है। यहां माइक्रोस्कोप का सामने वाला हिस्सा दिखाया गया है। माइक्रोस्कोप का इस्तेमाल करने के लिए पिछला हिस्सा आंखों के पास रखकर लैंस से देखा जाता था।
चित्रः दो में ल्यूवेनहॉक द्वारा देखे गए सूक्ष्म जीवों के रेखाचित्र हैं जिन्हें उसने अपने शोधपत्र में बनाया था।
 
थे कि पानी को छूते ही फट जाते।
26 मई को तेज बारिश हुई। बारिश कम होने पर मैंने घर की छत से बहकर आया बारिश का थोड़ा-सा पानी साफ गिलास में इकट्ठा कर लिया। ऐसा करने से पहले गिलास को दो-तीर बार धो लिया था। और इसमें मैंने कुछ बहुत ही छोटे जीवित प्राणी देखे और उन्हें देखकर मैंने सोचा कि शायद वे छत की नालियों में पहले से पड़े पानी में पैदा हुए होंगे।

कुछ दिन बाद, साफ पानी में, मुझे ऐसे ही और जीव दिखाई दिए; और कुछ जो कि इनसे थोड़े से बड़े थे। मेरा ख्याल है कि ऐसे हज़ारों छोटे जीव मिलकर भी रेत के एक कण की बराबरी नहीं कर सकते। और अगर उनकी तुलना पनीर (चीज़) के कीड़े से करें जिसे कि नंगी आंखों से देखा जा सकता है तो उनका अनुपात ऐसा होगा जैसे कि एक मधुमक्खी और घोड़े में होता है क्योंकि एक ऐसे छोटे जीव की परिधि पनीर (चीज़) के कीड़े के एक रोएं की मोटाई के बराबर भी नहीं होती।

थोड़े से ऐसे बारिश के पानी में, जिसे कुछ दिन तक हवा में खुला रखा गया था, मुझे एक बूंद पानी में हजारों जीव दिखे, जो कि अब तक दिखने वाले जीवों में सबसे छोटे थे।
और कुछ समय बाद मैंने अब तक दिखे जीवों के अलावा, ऐसे जीव भी देखे जो आठ गुना बड़े थे व आकार में गोलाकार थे; बहुत छोटे वाले जीव तो पानी में धीरे-धीरे तैर रहे थे, परन्तु ये बड़े वाले फुर्ती से इधर-उधर जा रहे थे जैसे कि हवा में मच्छर उड़ते हैं, और ऐसा करते हुए अचानक गिर पड़ रहे थे।
मेइज़ नदी के पानी में मैंने अलग-अलग तरह और रंगों के बहुत छोटे जीव देखे। ये जीव इतने छोटे थे कि मैं मुश्किल से उनकी आकृति देख पाया; परन्तु बारिश में पाए गए जीवों की तुलना में इनकी संख्या काफी कम थी। शरद ऋतु में अत्यन्त ठंडे कुंए के पानी में, मुझे बहुत से छोटे जीवित प्राणी मिले जो एकदम पारदर्शी थे और ये, मैंने अब तक जो सबसे छोटे जीव देखे थे, उनसे थोड़े से ही बड़े थे।

समुद्र के पानी में मैंने सबसे पहले एक छोटा काला-सा जीव देखा जो दो गोलों का बना हुआ लग रहा था। इस जीव की चाल विचित्र थी- जैसे कि सफेद कागज पर पिस्सू छलांग लगा रहा हो, इसलिए इसे पानी का पिस्सू कहा जा सकता है। परन्तु यह डॉ. स्वामरडेम ने जिस जीव को पानी का पिस्सू कहा था उसकी आंख से भी छोटा था। मैंने उस पानी में रंगहीन पारदर्शी छोटे जीव भी पाए जो पिछले वालों जितने ही बड़े थे परन्तु अंडाकार थे और उनकी चाल सर्पाली थी। मेरा ध्यान तीसरी तरह के जीवों की तरफ भी गया जो बहुत धीरे चल रहे थे। जिनका रंग चूहे जैसा था और अंडाकार सिरे की तरफ पारदर्शी थे; और जिनके सिरे से पहले, शरीर के ऊपर के भाग की तरफ एक तीक्ष्ण कांटे जैसा निकला हुआ था। ये वाले जीव थोड़े से बड़े थे। चौथी तरह के जीव इन अंडाकार जीवों से भी थोड़े लंबे थे। परन्तु प्रत्येक जीव की संख्या थोड़ी-सी ही थी।
इसी पानी को कुछ दिन बाद दोबारा देखने पर, मुझे एक जीव दिखा था वहां 100 दिखाई दिए; परन्तु इनकी आकृति अलग थी, और कम के बजाए ये ज्यादा पारदर्शी थे। इनकी आकृति अंडाकार थी, सिर्फ अंतर इतना ही था कि अंडाकार के सिरे ज्यादा नुकीले थे। हालांकि वे रेत के एक कण से हजारों गुना छोटे थे, फिर भी उन्हें जैसे ही पानी में से निकालकर किसी सूखी जगह पर रखा जाता वे फटकर टुकड़ों में बंट जाते, और तीन-चार छोटे-छोटे गोलों में बिखर जाते; और कुछ पनीला पदार्थ दिखाई देता - इनके अलावा और कोई अंग दिखाई नहीं देते थे।

एक तिहाई ओंस काली मिर्च पानी में डालकर, मैंने उसे तीन हफ्ते तक पानी में रहने दिया; इस दौरान मैंने उसमें दो बार बर्फ का पानी मिलाया था क्योंकि शुरुआती पानी का ज्यादातर हिस्सा उड़ गया था। मुझे यह देखकर काफी हैरानी हुई कि उसमें बहुत से, तरह-तरह के छोटे जीव थे। इनमें से कुछ जितने चौड़े थे उससे तीन-चार गुना लंबे थे; पर उनकी कुल मोटाई जू के रोएं जितनी भी नहीं थी। उनकी चाल काफी आकर्षक थी, अक्सर गिरते-पड़ते एक तरफ लुढ़क जाते। और जब उनके पास का पानी बह जाने दिया जाता, वे लट्टू की तरह घूमने लगते - पहले उनका शरीर अंडाकार शक्ल अख्तियार कर लेता और बाद में, जब घूमना बंद कर देता तो वापस पहले जितना लंबा हो जाता। इस पानी में जो दूसरा जीव देखने को मिला, वह एकदम अंडाकार था, और उसकी चाल भी पहले वाले की तरह आकर्षक और चपल थी; और इनकी संख्या कहीं ज्यादा थी। एक तीसरी तरह का जीव भी था जिसकी संख्या पहले दोनों से भी अधिक थी, और इसकी पूंछ वैसी ही थी जिसका अवलोकन मैंने पहले बारिश के पानी में किया था। चौथी तरह के जीव, जो इन तीनों के बीच घूम रहे थे अत्यंत छोटे थे, और मेरा अंदाज़ा था कि अगर वैसे 100 जीव एक दुसरे से सटाकर रख दिए जाएं तो उनकी लंबाई रेत के एक कण के बराबर भी नहीं होती; और इस अंदाज़ के मुताबिक ऐसे 10,00,000 जीव मिलकर भी एक रेत के कण जितना आकार नहीं ले सकते थे।

पांचवीं तरह का एक और जीव दिखाई दिया जो पिछले जितना ही मोटा परन्तु उससे दुगनी लंबाई लिए था।
ऐसे बर्फ के पानी (स्नो वॉटर) में जिसे एक कांच की बोतल में अच्छी तरह से ढक्कन लगाकर बंद करके तीन साल तक रखा गया था, मुझे कोई भी जीवित प्राणी नहीं दिखाई दिया। इसमें से कुछ पानी को चीनी मिट्टी के कप में डालकर उसमें आधा आँस काली मिर्च मिलाकर रखने पर, कुछ दिन बाद मुझे उसमें कुछ जीव दिखे --- अत्यंत छोटे वाले जिनकी लंबाई मुझे चौड़ाई से दुगनी लग रही थी, परन्तु वे अत्यंत धीरे चल रहे थे और अक्सर गोल-गोल (बक्र में) घूम रहे थे। मुझे बहुत सारे अंडाकार जीव भी दिखाई दिए जिनकी संख्या एक बूंद में 6000 या 8000 थी।


एंटोन वॉन ल्यूवेनहॉक (1632-1723): इच बायोलॉजिस्ट एवं माइक्रोस्कोपिस्ट। उसने बतौर रुचि कांच को घिसकर लैंस बनाने और उनसे माइक्रोस्कोप बनाने का काम शुरू किया था। ल्यूवेनहॉक ने जीवन भर में 400 से ज्यादा माइक्रोस्कोप बनाए जिनमें से कुछ अभी भी चालू हालत में है। उसके द्वारा बनाए गए सबसे शक्तिशाली सूक्ष्मदर्शी से लगभग 275 गुना आवर्धन प्राप्त किया जा सका है। ल्यूवेनहॉक ने माइक्रोस्कोप की मदद से प्रोटोजोआ को देखा था। साथ-साथ  उसने पोधों और कीटों की संरचनाओं का भी माइक्रोस्कोप से अध्ययन किया था।
मूल शोध-पत्र एंटोन वॉन ल्यूवेनहॉक द्वारा लिखित 'बारिश के पानी, कुएं, समुद्र, बर्फ (लो) के पानी और काली मिर्च वाले पानी में पाए गए प्राणियों के अवलोकन' फिलोसॉफिकल ट्रान्सेक्शन्स ऑफ रॉयल सोसायटी के खंड 12, पृष्ठ 374-377 में सन 1677 (लंडन) में प्रकाशित। संदर्भ पत्रिका में प्रकाशित यह लेख 'रियल्म ऑफ साइंस' में प्रकाशित लेख का अनुवाद है।
हिन्दी अनुवादः राजेश सिंदरी।