जे. बी. एस. हाल्डेन

शरीर की व्यवस्थाएं                                                                                                                                                                  भाग 5


हम जो भी खाद्य पदार्थ खाते हैं वे शरीर की वृद्धि, मरम्मत और शरीर के तापमान को बनाए रखने में और शरीर को  हमेशा ऊर्जा से भरपूर बनाए रखने में ही खर्च हो जाते हैं। किस  तरह का तंत्र है यह, किस तरह की जटिलताओं से गुज़रते हैं।  खाद्य पदार्थ कि हम तोंद पर हाथ फेरते हुए कह पाते हैं:  खाया-पिया-पचाया और हो गया।
हमें काम करने के लिए, अपने शरीर का तापमान बनाए रखने के लिए, वृद्धि और मरम्मत के लिए भोजन की ज़रूरत होती है। अमीबा जैसे कुछ एक कोशीय जीव तो तमाम किस्म की चीजें खा सकते हैं। यही हाल हमारी कुछ श्वेत रक्त कोशिकाओं का भी है जो हमारे शरीर में घुसने वाले विदेशी पदार्थों को बाहर करने तथा मृत ऊतकों का भक्षण करने का काम करती हैं।

खून के मार्फत भोजन
किन्तु हमारी अधिकांश कोशिकाएं विशेषीकृत हैं और इन्हें विशिष्ट किस्म का भोजन ही चाहिए। यह भोजन भी उन्हें खून में घुलित अवस्था में मिलना चाहिए। हमारे पाचन अंगों का काम यही है कि खून में ऐसे विभिन्न भोज्य पदार्थों को निश्चित स्तर पर बनाए रखें। इनमें से सबसे महत्वपूर्ण भोज्य पदार्थ शर्करा है। यही एकमात्र भोज्य पदार्थ है जिसे हम सही-सही नाप सकते हैं। खून में उपस्थित यह शर्करा ग्लूकोज़ है। यदि खून में इसकी मात्रा एक निश्चित मात्रा से कम हो जाए तो हमारे पेट में चूहे कूदने लगते हैं, आमाशय में संकुचन होता है और हम भूख महसूस करते हैं।

शर्करा हमारे लिए ऊर्जा का प्रमुख स्रोत है। वैसे वसा भी ऊर्जा का एक स्रोत है। इसके अलावा हमें कई अन्य पदार्थों की जरूरत होती है। इनकी संख्या 35 से ज्यादा और 100 से कम है। आंशिक रूप से इनका उपयोग भी ऊर्जा के स्रोत के रूप में होता है। किन्तु इनका मुख्य उपयोग तो नए जीवित पदार्थ बनाने में होता है। मसलन पुरानी चमड़ी के घिसते जाने की वजह से निरंतर नई चमड़ी बनती रहती है।
इन अनिवार्य पदार्थों में से कुछ तो हमारे शरीर में बनाए जा सकते हैं किन्तु कुछ ऐसे भी हैं जिन्हें हमारा शरीर तैयार नहीं कर सकता। कोई भी हरा पौधा ये सारे पदार्थ बना सकता है; अत: हम इन पदार्थों के लिए हरे पौधों पर या ऐसे जंतुओं के मांस पर आश्रित हैं जो हरे पौधों का भक्षण करते हैं।

ये भोज्य पदार्थ हमारे भोजन में प्रायः विशाल अणुओं के रूप में होते हैं। मसलन, रोटी और आलू में शर्करा के अणु जुड़-जुड़कर एक लंबी श्रृंखला बना लेते हैं - यह मण्ड़ है। हम अपने शरीर में शर्करा का संग्रहण ग्लायकोजन नामक एक पदार्थ के रूप में करते हैं। ग्लायकोजन काफी हद तक मण्ड के ही समान होता है किन्तु दोनों की रचनाओं में अंतर होते हैं। अतः ग्लायकोजन का निर्माण करने से पूर्व मण्ड को तोड़ना पड़ता है।
इसी प्रकार सब जंतु वे वनस्पति लगभग 20 अमीनो-अम्लों को अलग-अलग ढंग से जोड़कर तरह-तरह के प्रोटीन का निर्माण करते हैं। प्रत्येक प्रजाति में पाए जाने वाले प्रोटीन में अमीनो-अम्लों का क्रम भिन्न-भिन्न होता है। लिहाज़ा यदि हमारे खून में किसी अन्य स्रोत से प्राप्त प्रोटीन डाला जाए तो वह अनुपयोगी होने के अलावा कई मर्तबा विषैला भी होता है। इससे निपटने के लिए हमारे शरीर में व्यवस्था होती है। कई सारी संक्रामक बीमारियों के लक्षण उन विदेशी प्रोटीनों की वजह से होते हैं जो उस बीमारी के बेक्टीरिया उत्पन्न करते हैं। ऐसे कई लक्षण अण्डे की सफेदी जैसे कुछ प्रोटीन्स के इंजेक्शन बार-बार लगाकर भी उत्पन्न किए जा सकते हैं।

बड़े अणु से छोटे अणु 
पाचन क्रिया मूलतः अन्य प्रजातियों द्वारा बनाए गए मण्ड व प्रोटीन जैसे विशाल अणुओं को छोटे-छोटे अणुओं में तब्दील करने की क्रिया है जो हमारी आंतों की दीवार से खून में पहुंच सकें; और खून के द्वारा विभिन्न कोशिकाओं तक पहुंच सकें। कोशिकाएं इनका उपयोग करेंगी और इन्हें ऐसे पैटर्न में पुनः जोड़ेगी जो मनुष्यनुमा हो।
विशाल अणुओं को तोड़ने का यह काम कुछ विशेष प्रोटीन्स द्वारा किया जाता है। ये प्रोटीन शरीर की विभिन्न ग्रन्थियों में बनकर हमारे पाचन अंगों तक पहुंचाए जाते हैं। इन्हें पाचक रस या पाचक एन्ज़ाइम कहते हैं। एन्ज़ाइम कुछ विलक्षण गुणों के धनी होते हैं।

उदाहरण के लिए हमारा आमाशय एक एंजाइम पेप्सीन बनाता है। यह एन्ज़ाइम प्रति घंटे अपने वज़न से पचास गुना प्रोटीन पचा सकता है। और ऐसा कुछ घंटों तक करता रह सकता है। और गौरतलब बात यह है कि एक एन्ज़ाइम अपनी प्रतिलिपि बना सकता है। आमाशय की दीवारें पेप्सीन नहीं बनाती। यदि बनाएंगी तो वह पेप्सीन स्वयं उन कोशिकाओं को पचा डालेगा। आमाशय की कोशिकाएं पेप्सीनोजन नामक पदार्थ बनाती हैं। पेप्सीनोजन प्रोटीन का पाचन नहीं करता। किन्तु यदि पेप्सीनोजन में थोड़ा-सा पेप्सीन डाल दिया जाए तो उससे और पेप्सीन बन जाता है, जैसे एक खरगोश घास से, घास खाकर और खरगोश बना देता है।

पेप्सीन जीवित नहीं है किन्तु यह सजीवों के कुछ गुण दर्शाता है। इससे भी अधिक जटिल प्रोटीन सजीवों के और भी अधिक गुण दर्शाते हैं। सजीव और निर्जीव चीजों के बीच स्पष्ट विभाजक रेखा खींचना संभव नहीं है। पेप्सीन के कुछ गुण प्रयोगशाला में निर्मित पदार्थ भी दर्शाते हैं।
हमारा भोजन आमाशय में कुछ घण्टों तक रुकता है। यहां पेप्सीन व अन्य एंजाइम इसे एक गाढ़े सूप में तब्दील कर देते हैं। आमाशय से यह सुप धीरे-धीरे छोटी आंत में पहुंचता है। यह छोटी आंत लगभग 20 फुट की एक नली होती है। इसमें नए एंजाइम आते हैं और ये भोजन का पाचन पूरा कर देते हैं। इस क्रिया के द्वारा बने छोटे-छोटे अणु आंत की दीवारों में से खून में पहुंच जाते हैं। शेष बचा हुआ भोजन बड़ी आंत में जाता है। यहां पर अधिकांश पानी सोख लिया जाता है और अपाच्य अवशेष को सान्द्रित करके अंततः शरीर से बाहर कर दिया जाता है।

पाचन नाल की अपनी मांसपेशियां होती हैं। इनमें भोजन को मथने वाली, आगे बढ़ाने वाली, आमाशय व पेट के दोनों सिरों पर उपस्थित वाल्व आदि शामिल हैं। इन मांसपेशियों तथा विभिन्न ग्रंथियों का नियमन व नियंत्रण तंत्रिका तंत्र द्वारा किया जाता है। ये मांसपेशियां व ग्रंथियां हार्मोन के ज़रिए भी परस्पर संवाद करती हैं। हार्मोन रक्त प्रवाह में बहते हैं। ये सब तंत्रिका आवेग मस्तिष्क तक आते हैं किन्तु पाचन तंत्र के दो सिरों - मुंह, गले, आमाशय तथा गुदा के अलावा अन्य स्थानों से आने वाले आवेग कोई संवेदना उत्पन्न नहीं करते। हमें पता चलता है कि कब हमारा आमाशय संकुचन कर रहा है (यानी हमें भूख लगी है) और कब हमारा गुदा भर

पाचन तंत्र: पाचन क्रिया में एंज़ाइम अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। पाचन के दौरान एमाइलेज एंज़ाइम के द्वारा स्टार्च या स्लाइकोजन को तोड़कर माल्टोज या ग्लूकोज़ बनाया जाता है। खून में ग्लूकोज़ का स्तर ऊंचा होने पर अग्नाशय एक हार्मोन छोड़ता है जो उस अतिरिक्त ग्लूकोज़ को वापस ग्लाइकोजन में परिवर्तित कर देता है। और अगर खून में ग्लूकोज़ का स्तर कम हो जाता है तो अग्नाशय एक अलग तरह का हार्मोन छोड़ता है जो संग्रहित ग्लाइकोजन को फिर से ग्लूकोज़ में परिवर्तित कर देता है।

पाचन में एंजाइम का योगदान

एंजाइम प्रोटीन की काफी बड़ी श्रृंखलाएं हैं जो शरीर के भीतर होने वाली रासायनिक क्रियाओं में उत्प्रेरक का काम करते हैं। अधिकतर एंजाइम सिर्फ एक बार क्रिया करके ही खत्म हो जाते हैं इसलिए जरूरी होता है कि शरीर के अंग इन्हें लगातार बनाते रहें। एंजाइम को काम करने के लिए अक्सर एक तयशुदा pH मान जरूरी है। मानव शरीर में एंजाइम किस तरह पाचन में योगदान देते हैं। देखिए कुछ उदाहरण :

गया है। हम तदनुसार उचित कार्यवाही करते हैं। किन्तु आंतों के शेष भागों से आने वाले संदेश तभी संवेदना के स्तर पर पहुंच पाते हैं जब कुछ गड़बड़ हो जाए और हमें दर्द महसूस हो।

लीवर (जिगर) कुछ एंज़ाइमों का निर्माण करता है किन्तु इसका मुख्य काम संग्रह व नियमन का है। आंतों से चलकर खून पहले जिगर में से होकर गुज़रता है और उसके बाद हृदय में पहुंचता है। ज़ाहिर है कि पाचन क्रिया के चलते इस खून में सामान्य की अपेक्षा कहीं ज़्यादा भोज्य पदार्थ (पोषक तत्व) होते हैं। इसे खून में ऐसे भी कई पदार्थ होते हैं जो खून में इकट्ठे होते रहें तो ज़हरीले होंगे। जिगर अतिरिक्त शर्करा और अन्य पोषक तत्वों को खून में से अलग करके अपनी कोशिकाओं में संग्रहित कर लेता है। जब खून में इन पदार्थों की मात्रा मानक से कम हो जाती है तो जिगर द्वारा इन्हें वापस खून में छोड़ा जाता है। इसके अलावा जिगर में अमोनिया तथा पाचन के दौरान उत्पन्न कुछ अन्य ज़हरीले पदार्थों को हानि-रहित पदार्थों में बदला जाता है।

हम अपने पूरे भोजन का उपयोग नहीं करते। भोजन में उपस्थित कुछ रेशे अपचनीय होते हैं। इसके अलावा भोजन के कुछ पोषक तत्वों का उपयोग हमारी आंतों में पाए जाने वाले बेक्टीरिया करते हैं। ये बेक्टीरिया हमारे भोजन की कुछ बर्बादी करते हैं और कुछ दुर्गन्ध युक्त पदार्थ बनाते हैं। किन्तु ये बेक्टीरिया कुछ पोषक पदार्थों का निर्माण भी करते हैं जिनकी हमें ज़रूरत होती है - मसलन विटामिन 'के' जो खून के थक्का बनने में भूमिका अदा करता है। कई बार स्पष्ट रूप से हानिकारक जीव, जैसे कुछ बेक्टीरिया अथवा कृमि हमारी आहार नाल में घुस जाते हैं। मुझे यकीन है कि अगले कुछ वर्षों में शरीर क्रिया विज्ञान और बेक्टीरिया विज्ञान में इतनी तरक्की हो जाएगी कि हम अपनी चमड़ी की तरह अपने अंदरूनी हिस्सों को भी उतना ही स्वच्छ रख पाएंगे। इससे सेहत में काफी सुधार आएगा और कई दुर्गन्धों से निजात मिलेगी। किन्तु, सारे विज्ञापनों के बावजूद हम ‘अंदरूनी स्वच्छता' फिलहाल हासिल नहीं कर सकते और यदि करना भी चाहें तो कई विटामिनों की कमी से हम बीमार हो जाएंगे। हम अपनी आंतों के क्रियाकलापों पर नियंत्रण नहीं कर सकते; किन्तु हम एक संतुलित खुराक के जरिए इस बात पर तो नियंत्रण कर ही सकते हैं कि हम मुंह में क्या डालते हैं।


जे. बी. एस. हाल्जेनः (1892-1964) प्रसिद्ध अनुवांशिकी विज्ञानी। विकास (Evolution) के सिद्धांत को स्थापित करने में महत्वपूर्ण योगदान। विख्यात विज्ञान लेखक। उनके निबंधों का एक संकलन 'ऑन बीइंग राइट साइज' शीर्षक से प्रकाशित हुआ है। प्रस्तुत निबंध 'वॉट इज़ लाइफ' नामक संकलन से लिया गया है।
अनुवाद: सुशील जोशी: एकलव्य के होशंगाबाद विज्ञान शिक्षण कार्यक्रम और स्रोत फीचर सेवा से जुड़े हैं। विज्ञान लेखन एवं अनुवाद भी करते हैं।