जाहिद खान

उत्तराखंड हाई कोर्ट ने हाल ही में अपने एक अनूठे फैसले में राज्य के दायरे में हवा, पानी और पृथ्वी पर रहने वाले सभी जीवों को विधिक व्यक्ति का दर्जा दिया है। विधिक व्यक्ति का दर्जा देने का मतलब है कि उन्हें मनुष्य जितने अधिकार, कर्तव्य और ज़िम्मेदारियों से नवाज़ना। अदालत का इस बारे में साफ कहना था कि जानवरों की भी एक अलग शख्सियत होती है। ज़िंदा इंसानों की तर्ज़ पर उनके पास भी अधिकार, कर्तव्य और उत्तरदायित्व होते हैं। इसके साथ ही अदालत ने राज्य के लोगों को इन तमाम जीवों का संरक्षक यानी पालनहार घोषित किया है।

उत्तराखंड हाई कोर्ट के सीनियर जज राजीव शर्मा और जज लोकपाल सिंह की पीठ ने अपने ही तरह का यह फैसला, बनबासा चंपावत निवासी नारायण दत्त भट्ट की जीव क्रूरता पर दायर एक जनहित याचिका पर सुनवाई के बाद दिया। अदालत के इस फैसले के बाद अब राज्य में जीव-जंतुओं को संवैधानिक व्यक्ति का दर्जा हासिल हो गया है। राज्य के नागरिकों की तरह उन्हें भी संवैधानिक अधिकार हासिल होंगे। उनके ऊपर किसी भी तरह का ज़ुल्म ढाना या उन्हें किसी भी तरह का नुकसान पहुंचाना, जीवित इंसानों को नुकसान पहुंचाने जैसा अपराध होगा। जानवरों की हिफाज़त और उन्हें इंसान की ज़्यादतियों से बचाने के लिए ऐसे ही किसी फैसले की दरकार भी थी। अदालत के इस फैसले से जहां इंसान जानवरों के प्रति अधिक संवेदनशील होंगे, वहीं जानवरों को किसी भी तरह के अत्याचारों या क्रूरता से बचाने की ज़िम्मेदारी भी इंसानों की ही होगी।

2014 में दायर इस याचिका में याचिकाकर्ता ने अदालत से भारत के बनबासा से नेपाल के महेंद्रनगर के बीच 14 कि.मी. की दूरी में चलने वाले घोड़ा, बग्घी, तांगा, भैंसा गाड़ियों में जुते जीवों का ज़िक्र करते हुए उनकी सेहत, समय पर जांच, टीकाकरण आदि की सुविधा मुहैया कराने की अपील की थी।

बहरहाल, अदालत में जब सुनवाई शुरू हुई तो उसने इन जानवरों के प्रति संवेदनशीलता दिखाते हुए, जीवों पर बरती जाने वाली क्रूरता को गलत माना और मनुष्य से अलग जीव प्रजाति के संरक्षण के लिए उन्हें विधिक व्यक्ति का दर्जा देने का फैसला किया और उनके खिलाफ क्रूरता रोकने के लिए भी कई निर्देश जारी किए। यह आदेश पक्षियों और जलीय जीवों के लिए भी अमल में आएगा। अदालत ने अपने निर्देशों में जानवरों की सुरक्षा के लिए जानवरों और बग्घियों पर फ्लोरोसेंट रिफ्लेक्टर्स लगाने, जानवरों द्वारा खींची जाने वाली खाली गाड़ियों के वजन का सर्टिफिकेट लेने, घोड़ों, बैलों और लावारिस जानवरों के लिए उपयुक्त आकार का शेड अनिवार्य तौर पर बनाने के भी निर्देश दिए हैं। पीठ ने अपने फैसले में अलग-अलग गाड़ियों में माल ढुलाई के लिए लगाए गए जीवों के लिए दूरी और फेरों के हिसाब से भार ढोने की सीमा भी तय कर दी है।

इससे पहले उत्तराखंड हाईकोर्ट ने ही अपने एक दीगर फैसले में ग्लेशियरों, हिमालय और गंगा नदी के जीवों को ‘लिविंग एन्टिटी’ यानी जिंदा इकाई माना था। अदालत ने गंगा और यमुना नदी को जीवित व्यक्ति मानते हुए, इनको साफ सुथरा बनाए जाने के साथ ही इनके संरक्षण पर ज़ोर दिया था। गंगा और यमुना दोनों नदियों को कानूनी अधिकार दिए थे। यह बात अलग है कि आगे चलकर शीर्ष अदालत ने यह आदेश निरस्त कर दिया। जानवरों के हक में आया यह आदेश कितने दिन तक कायम रहेगा, यह आने वाला वक्त ही बतलाएगा।

जानवरों की छोडें, हमारे यहां तो इंसान ही इंसानों के प्रति संवेदनशील नहीं है। समाज में एक इंसान, दूसरे इंसान के साथ भेदभाव या अत्याचार करता है। तमाम कानूनी प्रावधान होने के बावजूद कमज़ोरों का उत्पीड़न और शोषण होता रहता है। बंधुआ मज़दूरी गैर कानूनी है फिर भी हमारे देश के कई हिस्सों में आज भी जारी है। ऐसे हालात में जानवरों के प्रति लोग संवेदनशील होंगे और उन पर अत्याचार नहीं करेंगे, यह दूर की बात है।

संविधान के अनुच्छेद 51(1) के मुताबिक हर जीवित प्राणी के प्रति सहानुभूति रखना देश के हर नागरिक का मूल कर्तव्य है। यही नहीं पशुओं पर क्रूरता रोकने के लिए ‘पशु क्रूरता निवारण कानून, 1960’ भी है। इसके अंतर्गत पशुओं पर हो रहे अत्याचारों, क्रूरता, बर्बरता, निर्दयता करने वालों को सज़ा का प्रावधान है। कानून के तहत पशुओं पर अधिक बोझ लादना, ट्रकों में ठूंस-ठूंसकर भरना, एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाते समय उनको कष्ट पहुंचाना कानूनी अपराध है। ‘प्रिवेंशन ऑफ क्रूएलिटी ऑन एनिमल्स एक्ट (पीसीए), 1960’ के मुताबिक किसी पशु को आवारा छोड़ने पर तीन महीने की सज़ा हो सकती है। जानवर को पर्याप्त भोजन, पानी, शरण देने से इंकार करना और लंबे समय तक बांधे रखना भी दंडनीय अपराध है। इसके लिए ज़ुर्माना या तीन महीने की सज़ा या फिर दोनों हो सकते हैं। इसके अलावा पशुओं के कल्याण के लिए पशु कल्याण बोर्ड का भी गठन हुआ। बावजूद इसके इन मूक, बेबस, बेसहारा प्राणियों को इन कानूनों का कोई फायदा नहीं मिलता। हर राज्य में पशु कल्याण बोर्ड हैं जरूर, पर ये पशुओं के कल्याण पर कोई ध्यान नहीं देते। इन्हें जरूरी नहीं लगता कि वे इंसानों के अत्याचारों से जानवरों को बचाएं। कुछ स्वयंसेवी संगठनों को छोड़ दें, तो जानवरों के अधिकारों की आवाज़ कोई नहीं उठाता। यही वजह है कि उत्तराखंड हाई कोर्ट ने पशुओं के खिलाफ क्रूरता रोकने के लिए दिशा-निर्देश जारी किए और इंसानी समाज को ही संरक्षक यानी पालनहार घोषित किया। अब यह इंसानी समाज की ज़िम्मेदारी है कि वह जहां भी पशुओं पर क्रूरता और अत्याचार देखें, उसके बचाव के लिए सामने आएं। जानवरों का बचाव करें, लेकिन इस बात का जरूर ख्याल करें कि कानून अपने हाथ में न लें। (स्रोत फीचर्स)