डॉ. किशोर पंवार

स्वच्छता सर्वेक्षण, 2017 में इंदौर पूरे देश में नम्बर वन आया है। यह एक अच्छा संकेत है कि सामूहिक प्रयासों से अच्छे नतीजे हासिल किए जा सकते हैं। रिपोर्ट ऐसी भी आई कि इस बार लोग कम बीमार हुए - आंकड़ों के अनुसार। परंतु फिर अचानक पूरे शहर को एक अनजान बीमारी ने जकड़ लिया। किसी ने कहा -- चिकनगुनिया है तो किसी ने डेंगू। कई डॉक्टर भी इसकी चपेट में आ गए। इंदौर की लगभग डेढ़-दो लाख आबादी इसकी चपेट में है। डॉक्टरों ने लक्षणों के आधार पर उपचार किए। करोड़ों रुपयों के एंटीबायोटिक एवं दर्द निवारक बेचे गए।

यह तो सब जानते हैं कि तथाकथित चिकनगुनिया एक वायरस जन्य बीमारी है और ऐडीस वंश के मच्छरों के काटने से होती है। यह एक ऐसा मच्छर है जो साफ पानी में पैदा होता है और दिन में काटता है। अत: पानी को रुकने नहीं देना तथा पूरी बांह के कपड़े पहनना इससे सुरक्षा का उपाय है। पर एक बात समझ से परे है कि साफ-सफाई में नम्बर वन इस शहर में यह बीमारी अचानक इतनी क्यों फैली?

एक बहुत बड़ी आबादी में बीमारी फैलने की भयावहता ने कई लोगों को चिंतित कर दिया। घर-घर में लोग इससे पीड़ित हैं। कोई आठ-दस दिन तक तकलीफ झेलता है तो कुछ लोगों को दो महीने बाद भी पूरी राहत नहीं। सभी जोड़ों के असहनीय दर्द से परेशान हैं।

जब समस्या ने विकराल रूप धारण कर लिया और शहर के कुछ जाने-माने डॉक्टर भी इसकी गिरफ्त में आ गए तो लगा कि मामला वास्तव में गम्भीर है, इसके कारणों पर चर्चा होनी चाहिए। अत: शहर की एक जानी-मानी स्वयंसेवी संस्था सेवा-सुरभि ने इसका बीड़ा उठाया। एक बैठक आयोजित की गई जिसमें शहर के प्रतिष्ठित डॉक्टरों, वैद्यों, प्राकृतिक चिकित्सकों, होम्योपैथ, योगाचार्यों, जन-प्रतिनिधियों, इंजीनियर्स एवं नगर निगम के अधिकारियों व स्वास्थ्य सेवा के अधिकारियों को अपने-अपने विचार रखने के लिए बुलाया गया।

उस बैठक में पर्यावरणविद की हैसियत से मैं भी आमंत्रित था। सभी ने मच्छरों से निपटने के अपने प्रयासों की चर्चा की। इसी दौरान एक रोचक सवाल यह भी उठा कि ये मच्छर इतने खतरनाक हैं तो इन्हें हमेशा-हमेशा के लिए समाप्त क्यों नहीं कर दिया जाता। किसी ने नाना पाटेकर का मच्छर और मनुष्य के रिश्ते दर्शाता एक मशहूर डायलॉग भी चिपका दिया। एक सवाल जिसने मुझे भी सोचने-समझने पर मजबूर कर दिया, वह था कि कुदरत ने मच्छर जैसा हानिकारक जीव बनाया ही क्यों। क्या बीमारी फैलाने के अलावा भी इस जीव की कोई भूमिका है?
मुझे लगा कि यह एक अनछुआ पहलू है जिस पर कुछ लिखना-पढ़ना चाहिए। नतीजा प्रस्तुत है।

भोजन द्याृंखला का हिस्सा
मनुष्य का दुश्मन नम्बर वन मच्छर प्रकृति में “खाओ और खा लिए जाओ” नामक प्राकृतिक भोजन द्याृंखला और भोजन जाल का एक हिस्सा है। यह मछलियों, कछुओं जैसे जलीय जीवों, ड्रेगनफ्लाई तथा चमगादड़ों का भोजन है। यह तरह-तरह के कीटभक्षी पक्षियों (सांगबर्ड और अन्य प्रवासी पक्षियों) का भी प्रिय भोजन है। घर में रहने वाली मकड़ियां तथा छिपकलियां भी घर के अन्दर रह कर इन मच्छरों का शिकार कर हमें इनके प्रकोप से कुछ हद तक छुटकारा दिलाती है। तो मच्छरों के घातक दंश से बचना हो तो साफ-सफाई के नाम पर मकड़ियों के जाले बार-बार न हटाएं। मच्छरों से छुटकारा पाने के लिए एक्वेरियम एवं तालाबों तथा कृत्रिम झरनों के पानी में गेम्बूसिया नाम की मछलियां विशेष रूप से छोड़ी जाती हैं। ये मच्छरों के लार्वा को खाकर उनको पनपने नहीं देती।
ज़ाहिर है, यदि मच्छर नहीं होंगे तो भोजन द्याृंखला के इन शिकारियों को खाना नहीं मिलेगा और इन जीवों पर अस्तित्व का खतरा मंडरा सकता है।

परागण में महत्व
यह नन्हा-सा शत्रु-कीट कई फसलों और जंगली फूलों का परागण भी करता है। परागण नहीं होगा तो फल नहीं बनेंगे। फूलों की दुनिया के सुंदरतम फूल ऑर्किड की कुछ प्रजातियां तो अपने परागण के लिए मच्छरों पर निर्भर हैं। यह तो नहींल कहा जा सकता कि मच्छर नहीं होंगे तो इनका काम नहीं चलेगा क्योंकि ये पौधे मात्र मच्छर पर निर्भर नहीं हैं।

शिकार की तलाश
मच्छर गरम खून वाले जीवों (स्तनधारियों और पक्षियों) को ही काटते हैं। हम भी इन्हीं में से एक है। यह भी सुनने में आता है कि मच्छर कुछ लोगों को ज़्यादा काटते हैं। ऐसे लोगों की त्वचा ऐसे रसायन बनाती है जो मच्छरों को ज़्यादा लुभाते हैं, जैसे लैक्टिक अम्ल। रक्त समूह के आधार पर भी मच्छर अपना शिकार चुनता है। ‘ए’ और ‘बी’ रक्त समूह के लोगों की बजाय मच्छर ‘ओ’ रक्त समूह के लोगों को ज़्यादा काटते हैं। यह भी देखा गया है कि यदि कोई व्यक्ति मलेरिया परजीवी से संक्रमित है तो वह मच्छरों को ज़्यादा आकर्षित करने लगता है।

मच्छर खून क्यों पीते हैं?
मच्छर हमेशा खून नहीं चूसते। मच्छरों का खास भोजन तो पेड़-पौधों की पत्तियों और फूलों का रस ही है। परंतु जब कभी मादा मच्छर को अंडे देना होते हैं, तब वह हमें काटती है। खून में पाए जाने वाले प्रोटीन और लौह तत्व का उपयोग वह अपने अंडों के विकास हेतु करती है। यानी खून चूसना मादा की कुदरती मजबूरी है। यदि ऐसी मादाएं खून पीने के बाद मसले जाने से बच जाती हैं तो लगभग तीन सप्ताह तक ज़िन्दा रहती हैं और इस दौरान पांच बार में लगभग 100 अंडे देती हैं। 

काटने पर जलन
यह तो हमने जान ही लिया है कि मादा मच्छर ही काटती है। ये अपने शिकार को उसके पसीने में उपस्थित कुछ विशेष रसायनों तथा कार्बन डाईऑक्साइड की उपस्थिति से ढूंढती हैं। श्वसन में छोड़ी गई कार्बन डाईऑक्साइड जहां ज़्यादा होगी वहां मच्छरों द्वारा काटे जाने की संभावना बढ़ जाती है। अत: यदि आप हवादार जगह पर बैठे हैं तो मच्छरों द्वारा काटे जाने की सम्भावना कम होती है।
मच्छर जब खून पीने के लिए अपनी सूंड को हमारी त्वचा में घुसाता है तो उस जगह वह अपनी लार भी छोड़ता है। लार में उपस्थित प्रोटीन मनुष्य के लिए एलर्जिक होते हैं। इसी कारण जलन होती है और काटा गया स्थान लाल होकर सूज जाता है।

वैसे इसी लार के साथ रोगजनक सूक्ष्मजीव भी हमारे शरीर में प्रवेश करते हैं। इन सूक्ष्मजीवों की एक विशेषता यह है कि इनका जीवन चक्र मात्र मच्छर के शरीर में या मात्र मनुष्य के शरीर में पूरा नहीं हो सकता। इन्हें जीवन चक्र की अलग-अलग अवस्थाओं में दोनों की ज़रूरत होती है। मच्छर हमें काटकर इन परजीवियों की इस ज़रूरत को पूरा करता है।

बचाव के उपाय
मच्छरों को खत्म तो नहीं किया जा सकता परंतु कुछ तरीकों से उनकी संख्या को हम नियंत्रित ज़रूर कर सकते हैं। मच्छरों से बचने का सबसे बढ़िया तरीका है उन्हें अपने से दूर भगाना। रेपेलेन्ट पदार्थ ऐसा ही करते हैं। चाहे वो कॉइल हो या लिक्विड।

मच्छरों को दूर भगाने में कुछ पौधे भी उपयोगी पाए गए हैं। लहसून, तुलसी, पुदीना, केटनिप और एक प्रकार की गुलदावदी (क्रायसेंथेमम पार्थेनियम)। लहसून का पानी में घोल बनाकर स्प्रे करने से मच्छर भाग जाते हैं। कपूर के तेल का स्प्रे कर सकते हैं। तुलसी, पुदीना, केटमिंट तीनों एक ही कुल के पौधे हैं। इनकी पत्तियों में उपस्थित वाष्पशील तेल की गंध मच्छरों को पसंद नहीं है परंतु हमें अच्छी लगती है। इससे वातावरण भी खुशनुमा हो जाता है। तो मच्छरों को भगाने और मच्छर-जन्य बीमारियों से बचने के लिए ये पौधे अपने घर के आसपास बगीचे में व घर के अंदर भी गमलों में लगाकर देखें। स्वाद, सुगंध और हरियाली के साथ मच्छरों से मुफ्त में छुटकारा। (स्रोत फीचर्स)