नवनीत कुमार गुप्ता

काशी हिंदू विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति पद्मश्री डॉ. लालजी सिंह का निधन पिछले वर्ष 10 दिसंबर की शाम दिल का दौरा पड़ने से हो गया। डॉ. लालजी सिंह को भारत में डीएनए फिंगर प्रिंट का प्रवर्तक भी कहा जाता है। उनका जन्म 5 जुलाई 1947 को हुआ था।

बनारस हिंदू विश्व विद्यालय से पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त करने के बाद 1971 में प्रोफेसर एस.पी. रायचौधरी के मार्गदर्शन में साइटोजेनेटिक्स के क्षेत्र में 62 पन्नों की उनकी थीसिस जर्मनी की एक प्रतिष्ठित शोध पत्रिका में छपी। उसके बाद कलकत्ता विश्व विद्यालय में फेलोशिप के तहत 1971-1974 तक उन्हें शोध करने का मौका मिला। 1970 के दशक के दौरान उन्होंने भारतीय सांप की एक प्रजाति में लिंग निर्धारक गुणसूत्र के विकास का अध्ययन किया। 1974 में पहली बार राष्ट्रमंडल फेलोशिप के तहत ब्रिाटेन जाने का अवसर मिला। काफी दिन वहां शोध कार्य करने के बाद वे भारत लौट आए। 1987 में कोशिकीय एवं आणविक जीव विज्ञान केंद्र, हैदराबाद में वैज्ञानिक के तौर पर नियुक्त हुए। सन 1999 से 2009 तक वे इस संस्था के निदेशक भी रहे।

डीएनए के क्षेत्र में डॉ. लालजी सिंह की उपलब्धियों की फेहरिस्त लंबी है। उन्होंने कुछ प्रसिद्ध मामलों को डीएनए विश्लेषण के ज़रिए हल करने में मदद की। 1991 में सिंह ने विवादित पितृत्व को सुलझाने के लिए भारतीय न्यायालय में पहला डीएनए फिंगर प्रिंटिंग आधारित सबूत पेश किया। इसके बाद सैकड़ों मामलों के समाधान डीएनए फिंगर प्रिंटिंग के आधार पर हुए। उन्होंने राजीव गांधी हत्याकांड एवं नैना साहनी तंदूर हत्याकांड जैसे कई महत्वपूर्ण मामलों का राज़फाश करने में बड़ी भूमिका निभाई। उनके प्रयास भारत की न्याय व्यवस्था में डीएनए फिंगर प्रिंटिंग को सबूत के रूप में स्थापित करने में मददगार रहे।

उन्हें वन्यजीव संरक्षण, रेशम कीट जीनोम विश्लेषण, मानव जीनोम व प्राचीन डीएनए अध्ययन में महारत हासिल थी। डॉ. लालजी सिंह ने अपने गांव कलवारी में जीनोम फाउंडेशन की स्थापना की थी जिसने हज़ारों लोगों के रक्त का नमूना लेकर आनुवंशिक रोगों के इलाज में सहायता की है।

उन्होंने अंडमान-निकोबार द्वीप समूह के आदिवासियों के डीएनए के सम्बंध में काफी अध्ययन किया था। डॉ. लालजी सिंह ने डीएनए के माध्यम से यह पता लगाया था कि आर्य और द्रविड़ यहां के निवासी थे और लगभग 70 हज़ार वर्ष पहले पूर्वी अफ्रीका से आए थे। वन्य जीव फॉरेंसिक तकनीक की इजाद दुनिया में सबसे पहले भारत में की गई थी। इसके तहत मांस का एक टुकड़ा या एक बाल भी मिल जाए तो साबित किया जा सकता था कि वह जानवर का है या आदमी का। उनके कार्यों से प्रेरित होकर भारत सरकार के जैव प्रौद्योगिकी विभाग ने 1995 में हैदराबाद में डीएनए फिंगर प्रिंटिंग और नैदानिक केंद्र की स्थापना की थी।

डॉ. सिंह को पूर्वांचल रत्न, विज्ञान गौरव, फिक्की पुरस्कार, विदेशी अकादमियों में फेलोशिप, भारतीय एकेडमी ऑफ साइंसेज़ समेत कई सम्मान प्राप्त हुए। 2004 में भारतीय विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में उनके योगदान को देखते हुए उन्हें पद्मश्री से नवाज़ा गया।
डॉ. लालजी सिंह बतौर कुलपति काशी हिंदू विश्व विद्यालय से सिर्फ एक रुपए की तनख्वाह लेते थे। काशी हिंदू विश्वविद्यालय में विज्ञान की शाखाओं को मज़बूत करने में उनका कार्यकाल याद किया जाता है। (स्रोत फीचर्स)