एस. अनंतनारायण

दुनिया भर में लगभग ढाई करोड़ लोग बहरेपन से ग्रसित हैं। इनमें लगभग 50 प्रतिशत लोगों के बहरेपन का कारण वंशानुगत गड़बड़ी है। इनमें से ज़्यादातर मामलों में कान के श्रवण अंग की कार्य-प्रणाली प्रभावित होती है। जिसमें कोई भी चिकित्सीय उपचार कारगर नहीं होता। सुनने की क्षमता में आंशिक रुप से सुधार के लिए कान में श्रवण यंत्र लगाए जाते हैं या फिर कान के मध्य या भीतरी भाग में प्रत्यारोपण भी किया जाता है। किंतु यह हमेशा संभव नहीं होता।

कई बीमारियों जैसे हिमोफीलिया, ल्यूकेमिया और पार्किन्सन का उपचार जीन उपचार से संभव हुआ है। इस उपचार में जीवित कोशिका में जेनेटिक पदार्थ प्रत्यारोपित करके प्रभावित अंग की कार्यप्रणाली में बदलाव किया जाता है। जीन थेरपी से बहरेपन के उपचार की कुछ सीमाएं हैं क्योंकि सुनने की प्रक्रिया में कान के एक से अधिक हिस्से शामिल होते हैं। खास तौर पर भीतरी और बाहरी रोम कोशिकाएं इस प्रक्रिया में परस्पर तालमेल से काम करते हुए स्तनधारियों के कान को ज़बरदस्त संवेदनाओं से लैस करती हैं।

मैसाचुसेट्स, शिकागो, न्यू ओरलीएन्स, नॉर्थ कैरोलिना, वाशिंगटन और विएना के संस्थानों में कार्यरत शोधकर्ताओं के दो समूहों ने नेचर बायोटेक्नालॉजी पत्रिका में बताया है कि उन्होंने प्रयोगशाला में एक ऐसा वायरस बनाने में सफलता हासिल कर ली है जो भीतरी कान की कोशिका में घुसकर जेनेटिक पदार्थ का एक टुकड़ा वहां रोपित कर सकता है। इस जेनेटिक पदार्थ के रोपण के बाद दोनों तरह की कमज़ोर रोम कोशिकाओं को ठीक किया जा सकता है। यह प्रयोग माउस (एक किस्म के चूहे) को प्रभावित करने वाली, भीतरी कान की एक खास तकलीफ पर किया गया है। शोधकर्ताओं के अनुसार यह पहली बार है कि श्रवण क्षमता को बहाल किया जा सका है और यह मनुष्यों में बहरेपन के उपचार के लिए उपयोगी साबित हो सकता है।

यह सही है कि कान की बनावट ध्वनि तरंगों को ग्रहण करने और उसे आगे पहुंचाने का ढांचा उपलब्ध कराती है किंतु ध्वनि तरंगों को तंत्रिका संकेतों में बदलने का काम भीतरी कान में रोम-समान संरचनाएं करती हैं। ध्वनि की पहचान इन्हीं तंत्रिका संकेतों से होती है। अलग-अलग रोम कोशिकाएं उच्च और निम्न आवृत्ति की (पतली और मोटी) ध्वनियों के प्रति संवेदनशील होती हैं। अन्य रोम कोशिकाएं अलग-अलग आवृत्ति की ध्वनियों को एक खास जगह केन्द्रित करने में मदद करती हैं। कान की पूरी रचना अवि·ासनीय रूप से जटिल होती है। कान में एक छोटा-सा तरल-भरा अनुकंपन कक्ष, कॉक्लिया होता है। इसमें दसियों हज़ार रोम कोशिकाएं होती हैं। ध्वनि की विभिन्न आवृत्तियां अलग-अलग बिंदुओं पर केंद्रित होती हैं और ये बिंदु एक-दूसरे से मिलीमीटर के सौंवें हिस्से से भी कम दूरी पर स्थित होते हैं।

शरीर की विभिन्न क्रियाओं का तालमेल प्रोटीन की सक्रियता से बनता है। विभिन्न प्रोटीन हमारे अंगो को खास तरीके से काम करने के लिए संकेत देते हैं। कोशिका में अमीनो अम्ल नामक इकाइयों को अलग-अलग क्रम में जोड़कर हज़ारों प्रोटीन का संश्लेषण किया जाता है। अमीनो अम्लों का यह क्रम डीएनए की लंबाई में मौजूद अनुक्रम से निर्र्धारित होता है। डीएनए वह विशाल अणु है जिसमें कोशिका की संपूर्ण आनुवंशिक जानकारी कूटबद्ध रहती है। यदि किसी कोशिका के कार्य के लिए ज़रूरी प्रोटीन के कोड में कोई गलती या चूक हो जाती है तो वह कोशिका उस प्रोटीन को बनाने में समर्थ नहीं होती। जिसके परिणामस्वरूप कोशिका ठीक तरह से काम नहीं कर पाती।

बहरेपन से ग्रसित लोगों में से लगभग 50 प्रतिशत लोगों में बहरापन इसी वजह से होता है। बहरेपन के शिकार लोगों में डीएनए की पूरी लंबाई में 300 से भी ज़्यादा ऐसे स्थान पाए गए हैं जो इस मामले में प्रासंगिक हैं। सौ से भी अधिक ऐसे जीन्स पृथक किए गए हैं जिनके बारे में लगता है कि वे बहरेपन के लिए ज़िम्मेदार हैं। जीन डीएनए का एक खंड होता है जो किसी खास प्रोटीन बनाने की सूचना संजोए रखता है।

जीन उपचार से इस स्थिति का इलाज संभव है। जीन उपचार में गड़बड़ जीन को, स्वस्थ उपचारात्मक जीन से बदल दिया जाता है ताकि प्रभावित या गड़बड़ कोशिका ज़रूरी प्रोटीन बना सके और ठीक से काम कर सके। एक बार कोशिका में पहुंचने के बाद उपचारात्मक जीन को कुछ डीएनए-समान द्याृंखला के अतिरिक्त हिस्से उसकी ठीक जगह ढूंढने और प्रभावित जीन का स्थान लेने में मदद करते हैं। इस पूरी प्रक्रिया में सबसे मुश्किल काम प्रभावित कोशिका में सम्बंधित जीन और डीएनए-समान द्याृंखला के हिस्से डालना है।

जीन को कोशिका में वायरस की मदद से सफलतापूर्वक डाला जा सकता है। वायरस ‘लगभग’ जीवित होते हैं। और कोशिकाओं के समान होते हैं। इनमें मात्र डीएनए होता है जो प्रोटीन के आवरण में बंद होता है और कभी-कभी एक वसायुक्त परत होती है। इनके पास प्रोटीन बनाने की या यहां तक कि पुनर्जनन करने के लिए कोई व्यवस्था नहीं होती है। वायरस बहुत ही सूक्ष्म होते हैं, यहां तक कि वे सूक्ष्मदर्शी से भी नहीं दिखते। ये कोशिका की बाहरी झिल्ली से होकर कोशिका में प्रवेश कर सकते हैं। वायरस जिस कोशिका में होता है, उस कोशिका के संसाधनों का उपयोग वह अपने पुनर्जनन के लिए करता है। ऐसा होने पर कोशिका काम करना बंद कर देती है या मर जाती है। इस तरह वायरस के कारण रोग होते हैं।

जीन प्रवेश कराने के लिए वायरस की इसी घुसपैठ क्षमता का इस्तेमाल किया जाता है। इसके लिए एडिनो-एसोसिएटिव वायरस (एएवी) का उपयोग किया जाता है। ये अन्य वायरस के साथ उपस्थित होते हैं किंतु कोई बीमारी पैदा नहीं करते। एएवी वायरस आकार में बहुत छोटे (20 नैनो मीटर) होते हैं। ये कई प्रकार की कोशिका में प्रवेश कर सकते हैं। कोशिका में प्रवेश करने के बाद ये डीएनए पर यहां-वहां बेतरतीबी से नहीं बल्कि निश्चित जगहों पर जुड़ जाते हैं। इन जगहों को एएवीएस-1 कहते हैं। एएवी की यही विशेषता जीन थेरेपी को सुरक्षित और सुविधाजनक बनाती है।

ल्यूकास लैंडेगर, कॉन्स्टेंटिना स्टानकोविक, ल्युक वेंडेनबर्ग और उनके साथी शोधकर्ताओं के समूह नेे कई एएवी के साथ प्रयोग करके पाया कि एक कृत्रिम वायरस (Anc80L65) बाहरी और भीतरी रोम कोशिकाओं में कुशलतापूर्वक हरा फ्लोरोसेंट प्रोटीन डालने में सफल रहता है। बाहरी रोम कोशिकाओं पर प्रभावी होना मौजूदा वाहक की अपेक्षा एक कदम आगे है। मानव कोशिकाओं के साथ भी प्रयोगशाला में परीक्षण में यह वाहक समान रूप से प्रभावी रहा।

ग्वनेले जेलॉक और उनके साथियों के एक और समूह ने ऐसी स्थिति पर काम किया जिसमें सम्बंधित जीन कॉक्लिया की दोनों तरह की रोम कोशिकाओं में पाए गए हैं। अशर सिंड्रोम यूसीएच1सी नामक जीन की अनुपस्थिति के कारण  होता है जो हार्मोनिन प्रोटीन का कोड है। अशर सिंड्रोम में बहरापन, संतुलन गड़बड़ाना और अंधापन तक होता है। सम्बंधित जीन की अनुस्थिति से पीड़ित चूहों का एक उपसमूह (c.216AA) होता है जिसमें मनुष्यों में होने वाले अशर सिंड्रोम के चलते बहरापन और अंधापन देखा गया है। इन चूहों के समूहों परअध्ययन से पता चला है कि जन्म के एक हफ्ते बाद ही इनकी दोनों तरह की रोम कोशिकाओं ने उनका काम करना बंद कर दिया था।

चूंकि इसका मुख्य कारण हार्मोनिन की कमी लगता था, इस समूह ने यह जांच की कि क्या c.216AAचूहों की रोम कोशिकाओं में हार्मोनिन देने पर उनका कामकाज चलता रहता है। इसके लिए हार्मोनिन ए1 या हार्मोनिन बी1 के जीन से लैस Anc80L65 नामक कृत्रिम वाहक वायरस तैयार करके भीतरी कान में इंजेक्शन के द्वारा डाला गया।
नतीजे नाटकीय थे। बहरे और लड़खड़ाने वाले चूहों की सुनने की क्षमता हज़ार गुना बढ़ गई थी, जो लगभग सुनने के सामान्य स्तर के करीब थी। मानव कान के विकार में लगभग 100 जीन्स की भूमिका हो सकती है। बड़े जानवरों पर Anc80L65के उपयोग के तरीके खोजे जाएं तो मनुष्य के कानों की दिक्कत से सम्बंधित जीन थेरेपी गति पकड़ सकती है। (स्रोत फीचर्स)