मॉन्ट्रियल संधि के नाम से मशहूर पर्यावरण संधि के तहत उन रसायनों के उपयोग पर प्रतिबंध लगाया गया था जो ऊपरी वायुमंडल में ओज़ोन की परत को नुकसान पहुंचते हैं। यह संधि उस समय अस्तित्व में आई थी जब अंटार्कटिका के ऊपर ओज़ोन की परत के अत्यंत झीना हो जाने के प्रमाण मिले थे। ओज़ोन परत के इस झीनेपन को ओज़ोन परत में सुराख भी कहते हैं।
मॉन्ट्रियल संधि के बाद दुनिया भर में क्लोरो-फ्लोरो कार्बन (सीएफसी) पर प्रतिबंध लगा था। सीएफसी का उपयोग रेफ्रिजरेटरों में होता था। इस प्रतिबंध के अच्छे परिमाण मिलने भी लगे थे और यह आशा जगी थी कि 2065 तक ओज़ोन परत पूरी तरह बहाल हो जाएगी। किंतु कुछ ताज़ा अध्ययनों से पता चला है कि सीएफसी के स्थान पर जिस रसायन का उपयोग किया जा रहा है उसके उत्पादन के दौरान कुछ ऐसे रसायन बनते हैं जो ओज़ोन परत को नुकसान पहुंचा सकते हैं।

सीएफसी के स्थान पर अधिकांश देशों में हाइड्रो-फ्लोरो कार्बन (एचएफसी-32) का उपयोग किया जाने लगा है। इसके उत्पादन में डाई-क्लोरो-मीथेन नामक गैस का उपयोग होता है। यह गैस वातावरण में पहुंचने के बाद ज़्यादा समय तक टिकती नहीं और जल्दी ही विघटित हो जाती है। विघटन के फलस्वरूप क्लोरीन बनती है जो ओज़ोन को नुकसान पहुंचाती है। किंतु डाई-क्लोरो-मीथेन की अस्थिर प्रकृति को देखते हुए लगा था कि यह संभवत: ऊपरी वायुमंडल में पहुंचकर ओज़ोन को क्षति पहुंचा नहीं सकती।
किंतु वायुमंडलीय अवलोकन के ताज़ा आंकड़े बता रहे हैं कि यह गैस कुछ परिस्थितियों में ऊपरी वायुमंडल में पहुंच जाती है। जैसे यदि हवाएं तेज़ी से ऊपर को उठें तो हवा पर सवार होकर डाई-क्लोरो-मीथेन भी ऊपरी वायुमंडल में पहुंच जाती है।
यूके के लंकास्टर विश्वविद्यालय के रयान होसैनी ने वायुमंडल के आंकड़ों के आधार पर एक मॉडल बनाया है। नेचर कम्यूनिकेशन्स में उन्होंने बताया है कि यदि वर्तमान हालात जारी रहे तो ओज़ोन परत की बहाली में 30 साल ज़्यादा लगेंगे; पहले 2065 का अनुमान लगाया था वह 2095 तक आगे खिसक जाएगा। अभी स्पष्ट नहीं है कि सर्वाधिक डाई-क्लोरो-मीथेन का उत्सर्जन किन इलाकों से हो रहा है मगर मात्रा का उतना महत्व नहीं है जितना इस बात का है कि इस पदार्थ के ऊपरी वायुमंडल में पहुंचने की परिस्थितियां किन इलाकों में ज़्यादा हैं। (स्रोत फीचर्स)