एन. जोस, मानबिका मंडल, शांतनु दीक्षित

पिछले आलेख में हमने बताया था कि राज्य सरकारों के स्वामित्व वाली विद्युत वितरण कंपनियां उस सरप्लस बिजली के लिए भुगतान कर रही हैं जिसका वे उपयोग ही नहीं करतीं। इसकी वजह से उनकी वित्तीय हालत पर गहरा असर पड़ा है।
सरप्लस बिजली आई कहां से?
सरप्लस बिजली या तो मांग में गिरावट की वजह से पैदा होती है या सप्लाई में वृद्धि की वजह से। विभिन्न राज्यों की स्थिति के विश्लेषण से पता चलता है कि बढ़ता सरप्लस मुख्यत: सप्लाई में वृद्धि के कारण पैदा हुआ है।
कई राज्यों में लगातार सरप्लस बिजली का कारण कभी-कभी यह बताया जाता है कि औद्योगिक उपभोक्ता विद्युत वितरण कंपनियों से नाता तोड़कर सीधे विद्युत उत्पादनकर्ता कंपनियों से बिजली खरीदने लगे हैं। 2003 से, बड़े उपभोक्ताओं के लिए यह संभव हो गया है कि वे लघु अवधि बिक्री के ज़रिए सीधे विद्युत उत्पादकों से बिजली खरीद लें। इस व्यवस्था को खुली पहुंच कहते हैं। इसके अलावा वे केप्टिव विद्युत उत्पादन इकाई से भी बिजली खरीद सकते हैं। केप्टिव इकाई उसे कहते हैं जो किसी उद्योग से बंधी होती है।

अलबत्ता, अधिकांश राज्य 10-20 प्रतिशत बैकिंग डाउन (उत्पादन क्षमता का ठप रहना) का दोष ही लघु अवधि बिक्री के मत्थे मढ़ सकते हैं। (जब सरप्लस बिजली को बेचा नहीं जा सकता, तब उस अवधि में उत्पादन संयंत्र बंद पड़ा रहता है। इस अवधि में बिजली उत्पादन तो नहीं होता किंतु स्थिर लागत तो अदा करनी ही पड़ती है।) इसके अलावा, यह भी एक तथ्य है कि पिछले पांच वर्षों में कुछ सरप्लस राज्यों में केप्टिव विद्युत उत्पादन में कमी आई है।
एक अन्य कारण यह बताया जाता है कि औद्योगिक वृद्धि में मंदी के कारण भी बिजली की मांग में गिरावट आई है। अलबत्ता, पिछले पांच वर्षों में मांग में वृद्धि में गिरावट उससे पहले के पांच सालों की अपेक्षा मात्र 0.9 प्रतिशत ही रही है।
बिजली के लगातार सरप्लस बने रहने का मुख्य कारण वास्तव में यह है कि पिछले एक दशक में विद्युत उत्पादन क्षमता में तेज़ी से इज़ाफा हुआ है। इस वृद्धि के लिए मांग में अपेक्षित वृद्धि की दुहाई दी गई है।

बड़ी अपेक्षाएं और उनके परिणाम
पिछले एक दशक में देश में ताप बिजली क्षमता में ज़बरदस्त वृद्धि हुई है - लगभग 132 गिगावॉट। यह 2007 में स्थापित क्षमता से 1.64 गुना है। पिछले दशक में उत्पादन क्षमता में वृद्धि को मांग में संभावित वृद्धि के अनुमानों के आधार पर उचित ठहराया गया है। अधिकांश प्रांतीय बिजली नियामक आयोगों के पास यह सुनिश्चित करने के लिए नियम-कायदे हैं कि बिजली की खरीदी वितरण कंपनियों द्वारा मांग के यथार्थवादी आकलन पर आधारित हो।
अलबत्ता, वितरण कंपनियां केंद्रीय विद्युत प्राधिकरण द्वारा बिजली की मांग के मध्यम-अवधि व दीर्घावधि के अनुमानों के भरोसे रहती हैं। ये अनुमान हर पांच साल में विद्युत सर्वेक्षण के रूप में प्रकाशित किए जाते हैं।
नीचे के चार्ट में 13वें विद्युत सर्वेक्षण से लेकर 2011 में प्रकाशित नवीनतम 18वें विद्युत सर्वेक्षण में अनुमानित बिजली की मांग को दर्शाया गया है। ये सर्वेक्षण 1989 से लेकर 2022 तक की अवधि को समेटते हैं। इन अनुमानों की तुलना 1989 से 2016 की अवधि में वास्तविक मांग तथा 2017 के लिए लगाए गए अनुमानों से की गई है।

पिछले कुछ दशकों में केंद्रीय विद्युत प्राधिकरण के दीर्घावधि अनुमानों में बिजली की मांग को 30-40 प्रतिशत अधिक आकलित किया गया है। हर पांच साल में संशोधन के चलते, मांग के अनुमानों में नियमित रूप से फेरबदल किए जाते हैं किंतु भावी मांग के अनुमान आज भी अयथार्थवादी विकास दर पर ही आधारित हैं।
यदि वितरण कंपनियां केंद्रीय विद्युत प्राधिकरण के अनुमानों से अलग हटी भी हैं, तो उन्होंने और भी अधिक मांग के अनुमान लगाए हैं। मांग में ऐसी वृद्धि को आर्थिक विकास, इंफ्रास्ट्रक्चर परियोजना की वजह से औद्योगिक मांग में वृद्धि, मेक इन इंडिया जैसे अभियानों के प्रभाव तथा निर्बाध बिजली सप्लाई सुनिश्चित करने की ज़रूरत के आधार पर उचित ठहराया गया है। इन औचित्यों के बावजूद, यह दिलचस्प बात है कि इस बात का आकलन आज भी नहीं किया जा रहा है कि क्षमता में वृद्धि ने सप्लाई की गुणवत्ता में सुधार में कितना योगदान दिया है।

नियोजन में चूकें
भावी मांग के अनुमान चाहे जो कुछ हों, बिजली खरीद के नियोजन ने भी सरप्लस बिजली में योगदान दिया है। कई मामलों में, वितरण कंपनियों ने दीर्घावधि के लिए ‘चौबीसों घंटे’ बिजली के अनुबंध किए जबकि ज़रूरत मौसमी व सर्वोच्च मांग की थी। (सर्वोच्च मांग से आशय होता है कि दिन में कुछ घंटों में अचानक बिजली की मांग बढ़ती है। इसकी पूर्ति की योजना अलग से बनानी पड़ती है।) इसका कारण यह है कि बिजली उत्पादनकर्ता ऐसी ज़रूरतों की पूर्ति में ज़्यादा रुचि नहीं दिखाते। वितरण कंपनियां और प्रांतीय विद्युत नियामक आयोग स्वीकार करते हैं कि क्षमता में वृद्धि करते हुए हो सकता है कि सरप्लस बिजली का अनुबंध कर लिया जाए, किंतु फिर भी वे इस संभावना के भरोसे रहे कि सरप्लस क्षमता को बेचकर इसको संभाल लेंगे। ज़ाहिर है, यह रणनीति सफल नहीं रही है।
वितरण कंपनियों ने अतिरिक्त क्षमता के अनुबंध बिजली संयंत्रों के निर्माण में विलंब की वजह से होने वाले बिजली के अभाव से निपटने के लिए भी किए थे। ऐसे अभाव आते-जाते रहते हैं किंतु ज़रूरत की पूर्ति के लिए दीर्घ व मध्यम अवधि के अनुबंधों पर हस्ताक्षर किए गए। जब तक विलंबित व नवीन क्षमता कार्य करने की स्थिति में आई, तब तक मांग-आपूर्ति की स्थिति बदल चुकी थी। परिणामस्वरूप, जो क्षमता वृद्धि की गई थी वह सरप्लस बिजली बन गई।

आगे क्या?
जैसा कि चार्ट से स्पष्ट है, अधिकांश सरप्लस राज्यों में 2022 तक क्षमता में काफी वृद्धि होती रहेगी। काफी अधिक सरप्लस वाले राज्यों में ताप बिजली, पनबिजली और परमाणु बिजली वर्तमान अनुबंधित क्षमता का लगभग 20 से 30 प्रतिशत होगी। राजस्थान, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना जैसे राज्यों में तो अपेक्षित क्षमता वर्तमान अनुबंधित क्षमता का 50 से 120 प्रतिशत तक है।
इसी अवधि में राज्य काफी सारी नवीकरणीय ऊर्जा क्षमता स्थापित करने के लिए वचनबद्ध हैं। यदि नवीकरणीय ऊर्जा के लक्ष्य का 40 से 60 प्रतिशत भी हासिल कर लिया गया, तो भी इसकी वजह से काफी सारी क्षमता का उत्पादन रोकना पड़ेगा। एक तरफ क्षमता में वृद्धि, तथा दूसरी तरफ खरीदी के लिए अन्य व्यवस्थाएं उपलब्ध होने की वजह से मांग में कमी के चलते सरप्लस बिजली में वृद्धि होना तय है, जिसका प्रबंधन मुश्किल होगा।
भावी सरप्लस से बचने के लिए, वितरण कंपनियों को चाहिए कि वे समुचित नियोजन करें जिसके अंतर्गत मध्यम व दीर्घावधि की अलग-अलग भविष्यवाणियां शामिल होना चाहिए। ये भविष्यवाणियां करते हुए बिजली खरीद की अन्य व्यवस्थाओं की ओर पलायन के असर, ऊर्जा की कार्यक्षमता बढ़ाने के प्रयासों के प्रभाव, तथा शुल्क के साथ मांग की परिवर्तनशीलता तथा नवीकरणीय ऊर्जा के ग्रिड में जुड़ने जैसे कारकों का ध्यान रखा जाना चाहिए।

वितरण कंपनियों को भावी क्षमता का भी ध्यान रखना चाहिए और वर्तमान अनुबंधों का भी। वितरण कंपनियों की सारी लागतों में से 75 प्रतिशत तो बिजली खरीद के खाते में जाती है और इसका असर उपभोक्ताओं पर पड़ता है। लिहाज़ा, ऐसी कवायद हर दूसरे वर्ष की जानी चाहिए और इसकी प्रक्रिया लगभग शुल्क निर्धारण प्रक्रिया के समान पारदर्शी होनी चाहिए। अर्थात वितरण कंपनियों की क्षमता-वृद्धि योजना को सार्वजनिक किया जाना चाहिए, और जन सुनवाई के ज़रिए इसकी सार्वजनिक निगरानी होनी चाहिए। ऐसी प्रक्रिया के बाद ही वितरण कंपनी बिजली खरीद अनुबंध पर हस्ताक्षर करे और प्रांतीय विद्युत नियामक आयोग की मंज़ूरी मिले।
संसाधनों की उलझनें, कानूनी बाधाओं और विशाल निवेश के मद्दे नज़र आने वाले वर्षों में सरप्लस बिजली की समस्या से निपटना आसान नहीं होगा। इसलिए ज़रूरत इस बात की है कि सरप्लस का प्रबंधन करने की बजाय उससे बचा जाए। (स्रोत फीचर्स)