‘लड़का हुआ है।’ और यह कोई साधारण लड़का नहीं है। इसकी दो मां हैं और एक पिता। यह एक नई तकनीक का परिणाम है।
इस नई तकनीक का विकास एक विशेष किस्म के विकारों से निपटने के लिए किया गया है। हमारे शरीर की कोशिकाओं में एक उपांग होता है जिसका नाम माइटोकॉण्ड्रिया है। एक कोशिका में कई माइटोकॉण्ड्रिया हो सकते हैं। माइटोकॉण्ड्रिया कोशिका में एक अहम भूमिका निभाता है। यह ऑक्सीजन का उपयोग करके ग्लूकोज़ का ऑक्सीकरण करता है और ऊर्जा मुक्त करता है। कोशिका इस ऊर्जा का उपयोग अपने कामकाज के लिए करती है।
माइटोकॉण्ड्रिया के बारे में एक रोचक तथ्य यह है कि इसके पास अपनी कुछ स्वतंत्र जेनेटिक सामग्री (डीएनए) होती है। अधिकांश डीएनए तो कोशिका के केंद्रक में सिमटा होता है और कोशिका के कामकाज का नियमन करता है। मगर माइटोकॉण्ड्रिया में इससे स्वतंत्र कुछ डीएनए होता है जो माइटोकॉण्ड्रिया की कुछ प्रक्रियाओं का नियमन करता है। इस उपांग के बारे में एक और दिलचस्प बात है। जहां केंद्रक का डीएनए हमें माता और पिता दोनों से मिलता है वहीं माइटोकॉण्ड्रिया का डीएनए सिर्फ मां से मिलता है।
यदि माइटोकॉण्ड्रिया के डीएनए में कोई गड़बड़ी हो तो कोशिका के कामकाज में दिक्कत होती है क्योंकि कोशिका को पर्याप्त ऊर्जा नहीं मिल पाती। ऐसी ही एक गड़बड़ी का नाम है ले सिंड्रोम।

उपरोक्त बच्चे की मां के माइटोकॉण्ड्रिया के डीएनए में एक जीन ऐसा था जो ले सिंड्रोम पैदा करता है। ले सिंड्रोम में तंत्रिका तंत्र के विकास में बाधा आती है। इसके चलते उक्त महिला के दो बच्चे अकाल मृत्यु के शिकार हो चुके थे। लिहाज़ा, न्यूयॉर्क के न्यू होप फर्टिलिटी सेंटर के जॉन ज़ांग और उनके साथियों ने नई तकनीक आज़माने पर विचार किया।
इस तकनीक को फिलहाल सिर्फ इंग्लैण्ड में मंज़ूरी मिली है। अत: डॉक्टर्स को उपचार का काम इंग्लैण्ड और मेक्सिको में करना पड़ा। सबसे पहले दो महिलाओं के अण्डे लिए गए। इनमें से एक उसी महिला का था जो माइटोकॉण्ड्रिया में जेेनेटिक गड़बड़ी से पीड़ित थी। दूसरा अण्डा एक सामान्य महिला का था। सामान्य महिला के अण्डे में से केंद्रक हटा दिया गया। अब उसमें उस महिला के अण्डे का केंद्रक डाला गया जो माइटोकॉण्ड्रिया की गड़बड़ी से पीड़ित थी। इस तरह से एक नया अण्डा बना जिसमें एक महिला का केंद्रक था जबकि शेष सामग्री (माइटोकॉण्ड्रिया समेत) दूसरी महिला की थी।
इस तरह दो महिलाओं के अण्डों के मेल से बने संश्लेषित अण्डे का निषेचन पिता के शुक्राणु से कराया गया। ऐसे चार-पांच भ्रूण तैयार किए गए। इसके बाद इनमें से एक को महिला के गर्भाशय में रोप दिया गया। नौ माह बाद स्वस्थ शिशु का जन्म हुआ। परीक्षण से पता चला है कि उसकी कोशिकाओं में 1 प्रतिशत से भी कम माइटोकॉण्ड्रिया में विकारग्रस्त डीएनए है। ऐसा देखा गया है कि 18 प्रतिशत तक गड़बड़ माइटोकॉण्ड्रिया होने पर भी काम चल जाता है। अलबत्ता, टीम को लगता है कि उन्हें आने वाले कई वर्षों तक बच्चे की निगरानी करनी होगी। उक्त महिला के दो बच्चे क्रमश: 6 माह और 6 वर्ष की आयु में मौत के शिकार हुए थे।
बहरहाल, इसे तीन पालक संतान तकनीक के लिए एक बड़ी उपलब्धि माना जा रहा है। (स्रोत फीचर्स)