सुंदर सरुकाय

विज्ञान निहित रूप से और मूलत: सामाजिक है। हालांकि विज्ञान में आज भी एक तनहा वैज्ञानिक, एक प्रतिभा के धनी व्यक्तित्व की छवि हावी है किंतु यह छवि आधुनिक वैज्ञानिक कामकाज में सही नहीं बैठती है। विज्ञान का कामकाज अब निहित रूप से इतना सामाजिक हो चला है कि व्यक्तियों के स्तर पर ही नहीं बल्कि संस्थाओं और राष्ट्रों के स्तर पर भी विज्ञान को एक सहयोगी गतिविधि के रूप में देखा जाता है। अब ना केवल सह-लेखकों द्वारा लिखे गए शोध पत्र एक सामान्य-सी बात हो गई है बल्कि प्रत्येक शोध-पत्र में सह-लेखकों की संख्या बढ़ती ही जा रही है। कुछ शोध पत्र तो 1-1 हज़ार से ज़्यादा सह-लेखकों वाले भी हैं।

प्रकृति को अपने अध्ययन का विषय मानने की ज़िद के चलते विज्ञान के अंदर सामाजिक तत्व के महत्व को अक्सर अनदेखा किया जाता है। विज्ञान की व्यापक समझ के तहत विज्ञान-अध्ययनों, खास तौर से विज्ञान के समाज शास्त्र की भी उपेक्षा हुई है। इन अध्ययनों ने बार-बार विज्ञान के विमर्श और कामकाज दोनों की सामाजिक प्रकृति को उजागर किया है।
विज्ञान की गाथाओं में अक्सर विज्ञान ‘करने’ की व्यक्ति की क्षमता पर इतना ज़ोर दिया जाता है कि सामाजिक तत्व ओझल हो जाता है। इन गाथाओं में व्यक्तियों की सृजन क्षमता को अत्यधिक महत्व दिया जाता है और समाज मात्र एक सहायक का रोल अदा करता है। किंतु यह दृष्टिकोण वैज्ञानिक गतिविधियों की सामाजिकता को सही तरीके से नहीं पकड़ पाया है।

विज्ञान में सामाजिक तत्व का पहला अहसास संस्थाओं से इसके जुड़ाव में नज़र आता है। आधुनिक विज्ञान, हम आज जिस तरह से उसे काम करते देखते हैं, वह न सिर्फ (विश्वविद्यालयों और वैज्ञानिक प्रयोगशालाओं में) नवीन ज्ञान के निर्माण का ऋणी है बल्कि 1660 में स्थापित रॉयल सोसायटी जैसी संस्थाओं, विभिन्न राष्ट्रीय अकादमियों और अंतर्राष्ट्रीय संगठनों का भी आभारी है। इन संस्थाओं का एक प्रमुख काम था कि विज्ञान को अपने संरक्षकों तथा समाज के लोगों के बीच स्वीकार्य बनाना।

यह तो शुरू से ही माना गया था कि विज्ञान को जन सामान्य के बीच संप्रेषित और प्रदर्शित किया जाना चाहिए। वैज्ञानिक प्रयोगों के सार्वजनिक प्रदर्शन करने की एक व्यापक संस्कृति थी, ताकि लोग कुछ धनराशि देकर प्रयोगों का प्रदर्शन देख सकें। विज्ञान पर ज़ोर देने के शुरुआती प्रयास इस बात को लेकर बहुत सचेत थे कि विज्ञान को सार्वजनिक बनाया जाए और उसका महत्व समाज को दिखाया जाए।
अलबत्ता, विज्ञान की सामाजिकता से मेरा आशय विज्ञान के इस पहलू से नहीं है। विज्ञान के शुरुआती सार्वजनिक प्रदर्शनों में भी वैज्ञानिक व्यक्तिगत रूप से महत्वपूर्ण शख्सियत हुआ करते थे। विज्ञान का विकास न्यूटन जैसी व्यक्तिगत हस्तियों के आसपास ही हुआ। संस्थाओं को ऐसे स्थानों के रूप में देखा गया जहांं व्यक्ति निर्बाध रूप से विज्ञान के काम कर सके। विज्ञान के प्रति आकर्षण उस समय भी कुछ असाधारण व्यक्तित्व की कल्पना से जुड़ा था जो विज्ञान के महान नए विचारों की रचना करते थे।

हालांकि तब भी यह स्पष्ट था कि विज्ञान के महान विचार व्यक्तियों और संस्थाओं के सामाजिक नेटवर्क, और दुनिया भर में काम कर रहे वैज्ञानिकों की साझा सामाजिक परिपाटी से ही उपजते हैं। दरअसल, पिछली दो शताब्दियों में विज्ञान के अलावा किसी अन्य मानवीय गतिविधि में अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग की ऐसी मिसाल पेश नहीं हुई है। यहां तक कि विश्व युद्धों के दौरान भी वैज्ञानिक उन अवधारणाओं पर काम कर रहे थे जिनको युद्धरत देशों के वैज्ञानिक साथियों ने विकसित किया था। उदाहरण के लिए ब्रिाटिश प्रायोगिक व सैद्धांतिक वैज्ञानिकों द्वारा क्वांटम और सापेक्षता के सिद्धांत पर जर्मन सहयोगियों के साथ काम से विज्ञान की सामाजिक परिपाटी के महत्व का पता चलता है जो राजनैतिक बंटवारे से ऊपर उठ सकती है। आज भी कई वैज्ञानिक ऐसे देशों के वैज्ञानिकों की मदद कर रहे हैं जिनके बीच राजनैतिक ध्रुवीकरण व्याप्त है। एक तरह से देखें तो यह एक विडंबना है, क्योंकि यही वैज्ञानिक अस्त्र-शस्त्र की तकनीक की खोज में भी सबसे आगे रहे हैं और उनके देश उनकी घनघोर सुरक्षा करते हैं।

यद्यपि विज्ञान की सामाजिकता, इन संस्थाओं के ज़रिए स्थापित किए जाने पर निर्भर है किंतु इसके आगे भी जाती है। वैज्ञानिक कार्य प्रणाली ही नहीं बल्कि, वैज्ञानिक ज्ञान भी मूलभूत रूप से सामजिक है। तो स्वयं वैज्ञानिक ज्ञान की सामाजिक प्रकृति को कैसे समझा जाए? अव्वल तो वैज्ञानिक ज्ञान का उत्पादन सामाजिक रूप से होता है। यहां तक कि सैद्धांतिक कार्य भी एक सामाजिक उत्पादन है जिसकी शुरुआत वैज्ञानिकों द्वारा प्रयुक्त भाषा, अवधारणाओं और सिद्धांतों की साझा सामाजिक समझ से होती है। वैज्ञानिक ज्ञान की संभावना ही इस बात पर निर्भर करती है कि सामाजिकता का अधिकतम इस्तेमाल कैसे किया जाए। शोध पत्रिकाओं, प्रकाशनों और उद्धरित करने की संस्कृति आज के विज्ञान के बहुत ज़रूरी अंग हैं, और ये अलग-अलग तरीके हैं जिनके माध्यम से सामाजिकता वैज्ञानिक ज्ञान के उत्पादन का एक अंतरंग हिस्सा बन जाती है।

कम से कम दो मूलभूत कारण हैं जिनकी वजह से विज्ञान की हमारी समझ में सामाजिकता को अहमियत प्राप्त नहीं हो पाती। पहला कारण यह है कि रचनात्मकता और स्वायत्तता का प्रमुख अभिकर्ता व्यक्ति को ही माना जाता है। और दूसरा कारण यह विश्वास है कि प्राकृतिक का दायरा मूलत: सामाजिक के दायरे से अलग है। विज्ञान प्राथमिक रूप से प्राकृतिक दुनिया के सत्य की खोज करता है, यह दावा प्राकृतिक को सामाजिक से ज़्यादा महत्व देता है। अलबत्ता, व्यक्ति के महत्व और प्राकृतिक के अर्थ दोनों से सम्बंधित इन विश्वासों को चुनौतियां मिली हैं। विज्ञान के अन्दर सामाजिक के सवाल पर एक अलग दृष्टिकोण भी है जो विज्ञान-टेक्नॉलॉजी और समाज के परस्पर सम्बंधों को लेकर ब्राूनो लाटोर और अन्य के कार्य से उभरा है। इन दृष्टिकोणों में एक महत्वपूर्ण समझ यह है कि प्राकृतिक और सामाजिक के बीच, इंसान और गैर-इंसान के बीच विभेद तर्कों के आगे टिक नहीं पाता है। भूगोल विशेषज्ञ तो यह लगातार इंगित करते रहे हैं कि प्रकृति में कुछ भी प्राकृतिक नहीं है। प्राकृतिक और प्राकृतिक के निर्माण का विचार ही सामाजिक रूप से निर्मित हुआ है। प्रकृति की परिभाषा वास्तव में बहुत फिसलनभरी है, और विभिन्न प्राकृतिक विज्ञानों में अलग-अलग है। तो इसके बारे में वैज्ञानिक सत्य के दावों को अधिक से अधिक इसी रूप में देखा जा सकता है कि वे प्राकृतिक के समाजीकृत स्वरूप के सत्य हैं।

इसको एक अलग ढंग से भी कहा जा सकता है: प्रत्येक विषय स्वयं अपने लिए विमर्श के विषय रचता है। इन्हीं पर उसका अध्ययन केंद्रित होता है। विज्ञान के केंद्र में प्रकृति है, लेकिन विज्ञान का प्रत्येक विषय प्रकृति को लेकर स्वतंत्र राय बनाना है। वास्तव में प्रकृति के बारे में विभिन्न विषयों को यह विशिष्ट नज़रिया ही अलग-अलग करता है, लगभग उतना ही जितना कि विधि जैसे अन्य तत्व करते हैं। भौतिकी के लिए प्रकृति कुछ नियमों से भरपूर है और इसीलिए भौतिकी के लिए प्रकृति की परिभाषा में प्रकृति के नियम एक बहुत ज़रूरी तत्व है। लेकिन प्रकृति के नियमों की सार्थकता को लेकर बहुत सारे आधारभूत प्रश्न हैं। क्या ये नियम प्रकृति को परिचालित करते हैं? क्या ये नियम प्रकृति के उद्देश्यों को परिचालित करते हैं? यदि ऐसा है, तो कैसे? या ये केवल प्रकृति की कुछ प्रक्रियाओं के बारे में बातचीत करने के तरीके हैं? जीव विज्ञान के लिए प्रकृति का विचार वैसा नहीं होगा जैसा भौतिकी के लिए है और जीव विज्ञान में प्रकृति को लेकर भौतिकी के समान कोई नियम नहीं हैं। कहने का मतलब यह है कि हालांकि हम भौतिकी और जीव विज्ञान दोनों में एक ही शब्द प्रकृति का इस्तेमाल करते हैं, किंतु दोनों विषयों में इसके अर्थ सर्वथा अलग-अलग होते हैं। इसी तरह से रसायन विज्ञान में प्रकृति का अर्थ भौतिकी के प्रकृति के अर्थ से अलग है हालांकि रसायन शास्त्र में बहुत सारी भौतिकी भी मिलती है। दरअसल, रसायन शास्त्र को भौतिकी का एक सीमित रूप बताने का विरोध बहुत हद तक प्रकृति के भिन्न अर्थ की वजह से भी है।

यह सही है कि विज्ञान में सामाजिक को केंद्र बिंदु बनाने वाले दृष्टिकोणों के आलोचक भी हैं, तो भी इस नज़रिए से सोचना उपयोगी होगा क्योंकि यह प्राकृतिक और सामाजिक के बीच के भेद को तोड़ता है। यह तर्क महत्वपूर्ण है कि ‘वस्तुएं’ भी क्रिया करती हैं और यह वैज्ञानिक वस्तुओं के कार्यों और प्रकृति पर टिका है। असल में, विज्ञान-टेक्नॉलॉजी-समाज के परस्पर सम्बंधों के अध्ययन उस तर्क में अग्रणी रहे हैं जो उस पारंपरिक मत को अस्वीकार करता है कि वैज्ञानिक और टेक्नॉलॉजिकल तत्वों से स्वतंत्र सामाजिक का कोई अस्तित्व है।

उनकी दलील है कि आधुनिक समाज का निर्माण जितना व्यक्तियों की अंतर्क्रियाओं से होता है उतना ही विज्ञान और तकनीक की वस्तुओं द्वारा भी होता है, और हम सामाजिक को मात्र इस रूप में परिभाषित नहीं कर सकते कि वह केवल कुछ लोगों का समूह है; उसमें हमें विज्ञान व टेक्नॉलॉजी की रचनाओं को भी शामिल करना होगा। तो समाज केवल लोगों का समूह नहीं है, बल्कि सारे जीवों और वस्तुओं का मिला-जुला रूप है। दूसरे शब्दों में, वैज्ञानिक वस्तुओं का खुद अपना भी सामाजिक जीवन होता है, जैसा कि किसी वैज्ञानिक का अपना सामाजिक जीवन होता है।
इस तरह विज्ञान की सामाजिक प्रकृति को स्पष्ट रूप से स्वीकारने के कई परिणाम हैं। प्रकृति के इस विशिष्ट नज़रिए का आव्हान अक्सर विज्ञान को विभिन्न नैतिक चुनौतियों से सुरक्षित रखने के लिए किया जाता है। इस तर्क का उपयोग नैतिक सवालों को विज्ञान के दायरे से बाहर रखने के लिए किया जाता है कि विज्ञान तो केवल प्राकृतिक विश्व के सत्य की खोज करता है, और इंसान (और समाज) इसमें सिर्फ एजेंट की भूमिका निभाते हैं।

वैज्ञानिक ज्ञान और वैज्ञानिक कामकाज में सामाजिक तत्व पर ज़ोर क्यों दिया जाए? विज्ञान के लंबे इतिहास में और विज्ञान को जिस ढंग से जनता के बीच प्रस्तुत किया जाता है, उसमें समाज के केंद्रीय महत्व को अक्सर ओझल कर दिया जाता है। विज्ञान को प्रकृति के विशिष्ट नज़रिए पर केंद्रित करके विज्ञान को नैतिकता और जवाबदेही के प्रश्नों से सुरक्षा मिल जाती है। यदि विज्ञान को सिर्फ दुनिया के बारे में जानकारी उत्पन्न करने की गतिविधि के रूप में देखा जाए तो वैज्ञानिक इस जानकारी को ‘खोजने’ की ज़िम्मेदारी से बच सकते हैं। तर्क यह दिया जाता है कि दुनिया के बारे में जो सत्य विज्ञान खोजता है उसके लिए विज्ञान को जवाबदेह नहीं ठहराया जाना चाहिए क्योंकिइस ज्ञान से जुड़ी समस्याओं के लिए तो लोग ज़िम्मेदार हैं। उदाहरण के तौर पर कहा जाता है कि चाकू उपयोगी भी हो सकता है और हानिकारक भी। इसके आधार पर यह दावा किया जाता है कि विज्ञान तो मूल्य-निरपेक्ष है। इस उदाहरण में थोड़ी खोट है; चाकू मूल रूप से एक सामाजिक वस्तु है, और यह सामाजिक दुनिया में उसके द्वारा निर्धारित अर्थो में काम करता है जिसमें उसके उपयोगी और हानिकारक दोनों ही पहलू शामिल होते है।

सामाजिक होने का अर्थ है कि समाज से सम्बंधित अन्य तत्वों से भी सम्बंध रहेगा। इसलिए सामाजिक होने का मतलब ही है कि समाज के अन्य तत्वों के प्रति जवाबदेही। विज्ञान में नैतिकता का विचार विज्ञान की मूलभूत सामाजिकता को स्वीकार करने से ही आया है। यह नैतिक दृष्टिकोण कहता है कि विज्ञान केवल प्राकृतिक विश्व के प्रति नहीं, बल्कि उस समुदाय के प्रति भी जवाबदेह है जिसके अंतर्गत विज्ञान के क्रियाकलाप होते हैं। समाज के अन्य घटकों के प्रति संवेदनशील होने की जवाबदेही का मतलब है कि जीने और जानने के अन्य तौर-तरीके के प्रति भी संवेदशीलता होना। (स्रोत फीचर्स)