हाल ही में वैज्ञानिक प्रकाशन को लेकर एक अजीबोगरीब सुझाव सामने आया है। सुझाव यह है कि प्रत्येक वैज्ञानिक के लिए शोध पत्रों की एक अधिकतम सीमा तय कर दी जानी चाहिए। इसके अलावा सुझाव यह भी है कि प्रत्येक वैज्ञानिक के लिए आजीवन शब्दों की कुल संख्या भी निश्चित होनी चाहिए। इस सुझाव के ज़रिए जिस चिंता को संबोधित किया गया है, वह यह है कि शोध पत्रों का प्रकाशन अकादमिक कैरियर को बढ़ावा देने का एक ज़रिया बन गया है और कई शोध पत्र इसी मकसद से लिखे जा रहे हैं।

आजकल शोध पत्र प्रकाशित करने का उद्देश्य बदल चुका है। पहले ये शोध पत्र ज्ञान को साझा करने के लिए प्रकाशित किए जाते थे, मगर आज कई शोध पत्र सिर्फ प्रकाशनों की संख्या बढ़ाने के लिए प्रकाशित किए जाते हैं - कुछ लोगों ने इसे प्रकाशन-मुद्रा (पब-कॉइन) की संज्ञा दी है। कुछ विशेषज्ञों का ख्याल है कि किसी भी मुद्रा की तरह इसे भी खरीदा-बेचा या चुराया जा सकता है। जहां एक ओर कई शोधकर्ता शोध पत्रों में अपने नाम छपवाने की कीमत अदा कर देते हैं तो कई शोध पत्रिकाएं शोध पत्र छापने की कीमत वसूलती हैं।

यह भी देखा गया है कि शोधकर्ता शोध पत्र का प्रकाशन सुनिश्चित करने के लिए सनसनीखेज मगर संदिग्ध परिणामों का सहारा भी लेते हैं। इसके चलते शोध में गहनता की कमी आ जाती है और कई किस्म के गोरखधंधे शुरू हो जाते हैं। यह भी देखा गया है कि कई शोधकर्ता अपने शोध पत्रों में अपने ही लिखे अन्य शोध पत्रों का हवाला देते रहते हैं ताकि उनके शोध पत्रों का महत्व बढ़ा हुआ दिखे।
इन्हीं सब समस्याओं के मद्देनज़र ऑस्ट्रेलिया के एक लेखक माइकल मैकगिर ने सुझाव दिया है कि हर वैज्ञानिक के लिए शब्द सीमा निर्धारित होनी चाहिए। ज़रा कल्पना कीजिए कि हर वैज्ञानिक को शुरू से ही मालूम होगा कि वह अपने पूरे कैरियर में कितने शब्द प्रकाशित कर सकेगा या कर सकेगी। मैकगिर का विचार है कि जब शब्द सीमा निश्चित होगी तो वैज्ञानिक अपने शोध में ज़्यादा सावधान रहेंगे और एकदम ज़रूरी व महत्वपूर्ण होने पर ही प्रकाशन करेंगे।

सुझाव में यह मानकर चला गया है कि जब शोधकर्ताओं को शोध पत्रों के प्रकाशन पर बहुत ध्यान नहीं देना पड़ेगा तो वे वास्तविक शोध कार्य पर ज़्यादा समय बिताएंगे। शोध पत्रिकाओं के संपादकों का बोझ भी कम हो जाएगा। और सबसे बड़ी बात तो यह होगी कि कीमत लेकर शोध पत्र प्रकाशित करने वाली पत्रिकाएं बंद हो जाएंगी।

अलबत्ता, इस सुझाव के अन्य पहलू हैं जो हानिकारक हो सकते हैं। विज्ञान में अपने परिणामों को प्रकाशित करने में अत्यधिक सावधानी शायद नवाचारी विचारों को सामने आने से रोकेगी। वैज्ञानिक लोग वही परिणाम प्रकाशित करेंगे जिन्हें सकारात्मक माना जाता है। ऐसे में यह पता करना भी मुश्किल हो जाएगा कि किसी चीज़ की खोज पहले किसने की थी। यह भी हो सकता है कि शोधकर्ता अपने शोध पत्रों में विधियों वगैरह का पूरा विवरण न दें, क्योंकि उससे शब्दों की संख्या बढ़ेगी। कई बार यह भी हो सकता है कि किसी वैज्ञानिक का सबसे महत्वपूर्ण काम कैरियर के अंत में तब हो, जब उसको आवंटित शब्द चुक गए हों।
तो ऐसा लगता है कि इस सुझाव के पीछे जो चिंता है वह वास्तविक है, किंतु सुझाव अपने-आप में बहुत अच्छा और व्यावहारिक नहीं है। (स्रोत फीचर्स)