डॉ. विजय कुमार उपाध्याय

युरोप के प्राचीन वैज्ञानिकों में कॉपरनिकस प्रमुख हैं। उनके द्वारा किए गए अध्ययन, पर्यवेक्षण एवं शोध का विज्ञान के इतिहास में एक प्रमुख स्थान है। उनके सिद्धांतों ने तत्कालीन समाज को काफी चमत्कृत कर दिया था।

कॉपरनिकस का जन्म 1473 में पोलैंड में विस्तुला नदी के तट पर टौरन नामक स्थान पर हुआ था। पिता पेशे से व्यापारी थे। प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा टौरन में प्राप्त करने के बाद कॉपरनिकस उच्च शिक्षा के लिए 1491 में क्रैकाउ विश्वविद्यालय में दाखिल हुए। यहां उनका संपर्क उस काल के एक महान गणितज्ञ वोजसियेक बुडज़ेविस्की से हुआ। बुडज़ेविस्की टॉलेमी द्वारा प्रतिपादित भूकेंद्रित ब्राहृांड के प्रबल समर्थक थे। कॉपरनिकस बुडज़ेविस्की से काफी  प्रभावित हुए। परंतु सन 1994 में कॉपरनिकस को घर लौटना पड़ा क्योंकि उनके चाचा ल्युकास वैक्जेनरोड उसी वर्ष वार्मिया के बिशप निर्वाचित हुए थे तथा कॉपरनिकस को फ्रॉमबर्क के पादरी संघ का सदस्य बनाना चाहते थे। कॉपरनिकस को प्रशिक्षण हेतु इटली भेजा गया ताकि वे अपने दायित्वों को पूरा करने के लिए तैयार हो जाएं। 1497में कॉपरनिकस बोलोग्ना स्थित नेशियों जर्मिनोरियम के छात्र बने। यहां यूनानी भाषा पढ़ने-पढ़ाने की व्यवस्था थी। कॉपरनिकस ने यहां लगभग साढ़े तीन वर्षों तक यूनानी भाषा का अध्ययन किया। इसी दौरान उन्होंने प्लैटो के ग्रंथों का गहन अध्ययन किया। धीरे-धीरे कॉपरनिकस फेरारा के तत्कालीन महान खगोलविद डोमेनिको नोवारा के निकट संपर्क में आए तथा उनसे बहुत प्रभावित हुए। नोवारा भी कॉपरनिकस की लगनशीलता से प्रभावित हुए। धीरे-धीरे कॉपरनिकस नोवारा के सहायक के रूप में काम करने लगे। हालांकि नोवारा उम्र में कॉपरनिकस से बड़े थे, परंतु वे उन्हें मित्र समान समझते थे।

अपने गुरू एवं संरक्षक नोवारा से प्रोत्साहन एवं मार्गदर्शन पाकर कॉपरनिकस भी खगोलीय पिण्डों के अध्ययन में तल्लीन हो गए। गहन अध्ययन के फलस्वरूप उन्होंने कई नई बातों का पता लगाने में सफलता प्राप्त की तथा इसके आधार पर कई नए सिद्धांत प्रतिपादित किए। इन उत्साहवर्धक सफलताओं के बाद वे सन 1500 की बसंत ऋतु में रोम गए जहां उन्होंने समकालीन खगोल विज्ञान के गणितीय पहलुओं पर समालोचनात्मक वक्तव्य दिया। सन 1497 में ही कॉपरनिकस फ्रॉमबर्क के पादरी संघ के सदस्य निर्वाचित हो चुके थे। 1501 में इटली से लौटने के बाद पादरी संघ के सदस्य के रूप में एक कैथेड्रल में योगदान देने लगे। परंतु इस कार्य में उनका मन नहीं लगा।

कुछ समय बाद उन्होंने कैथेड्रल के कार्य से विशेष छुट्टी ली तथा अध्ययन हेतु पुन: इटली लौट गए। वहां उन्होंने पडुआ विश्वविद्यालय में कानून एवं चिकित्सा की पढ़ाई शुरू की। पडुआ विश्वविद्यालय में उन्होंने लगभग चार साल व्यतीत किए। इस प्रकार बोलोग्ना तथा पडुआ में रह कर उन्होंने अनेक विषयों - गणित, खगोल विज्ञान, चिकित्सा विज्ञान, कानून तथा अध्यात्म/दर्शन - का अध्ययन किया। 1503 में ही वे इटली से पोलैंड लौट आए।

पोलैंड वापस लौटने के बाद वे क्रैकाउ नामक स्थान पर अपने चाचा ल्युकास वैक्ज़ेनरोड के सलाहकार के रूप में काम करने लगे। 1512 में चाचा की मृत्यु हो गई। उन्होंने फ्रॉमबर्क में कैथेड्रल के प्रतिनिधि के रूप में काम करना शुरू कर दिया। इस दौरान वे अपने चिकित्सा विज्ञान की जानकारी का उपयोग गरीब रोगियों की चिकित्सा हेतु करने लगे।

धीरे-धीरे कॉपरनिकस का नाम एक महान खगोलविद के रूप में पूरे संसार में प्रचारित हो गया। सन 1574 में लैटेरन काउंसिल द्वारा कैलेंडर में सुधार पर विचार किया जा रहा था तो कॉपरनिकस को एक परामर्शदाता के रूप में शामिल होने का आमंत्रण भेजा गया। परंतु कॉपरनिकस ने यह कहकर इस आमंत्रण को अस्वीकार कर दिया कि वे अभी सूर्य तथा चंद्रमा की गति की सही जानकारी नहीं प्राप्त कर पाए हैं, अत: कैलेंडर सुधार में कोई परामर्श देना उचित नहीं होगा। इससे पता चलता है कि कॉपरनिकस कोई भी सिद्धांत तब तक प्रस्तुत नहीं करते थे जब तक उसकी सत्यता के बारे में संतुष्ट नहीं हो जाते।

कॉपरनिकस ने खगोल विज्ञान से सम्बंधित कई अध्ययन एवं पर्यवेक्षण किए। उन्होंने सूर्य, चंद्रमा, ग्रहों तथा अन्य खगोलीय पिण्डों के भ्रमण पथों के बारे में बहुत ही गहराई से अध्ययन किए और 27 शोध पत्र प्रकाशित किए।
फ्रॉमबर्क में किए गए अपने अध्ययनों से प्राप्त निष्कर्षों के आधार पर उन्होंने टॉलेमी द्वारा प्रतिपादित कई सिद्धांतों का खंडन किया। वस्तुत: टॉलेमी के सिद्धांतों में त्रुटियों की खोज करने वाले सिर्फ कॉपरनिकस ही नहीं थे, अपितु उस काल के कई अन्य खगोलविदों ने भी टॉलेमी के सिद्धांत में कई त्रुटियां बताई थीं। वास्तविकता यह है कि टॉलेमी ने जो भी सिद्धांत प्रतिपादित किए थे वे न सिर्फ उनके द्वारा किए गए अध्ययन एवं पर्यवेक्षण पर आधारित थे, अपितु कुछ पूर्ववर्ती वैज्ञानिकों द्वारा प्रकट किए गए विचारों का भी उनमें समावेश किया गया था। ये सभी सिद्धांत भूकेंद्रित ब्राहृाण्ड की अवधारणा पर टिके थे। 16वीं शताब्दी आते-आते भूकेंद्रित ब्राहृाण्ड की धारणा पूरी तरह गलत साबित हो चुकी थी।

कुछ प्राचीन यूनानी दार्शनिकों ने तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व में ही बताया था कि ब्राहृाण्ड के केंद्र में सूर्य है, न कि पृथ्वी। परंतु उनके इस विचार को तत्कालीन वैज्ञानिकों द्वारा मान्यता नहीं मिल पाई थी। कॉपरनिकस ने कुछ प्राचीन यूनानी दार्शनिकों के विचारों का गहन अध्ययन किया जिससे पता चला कि उनमें से कुछ दार्शनिकों ने सूर्य केंद्रित ब्राहृाण्ड की अवधारणा प्रस्तुत की थी। शुरू-शुरू में कॉपरनिकस को प्राचीन यूनानी दार्शनिकों का यह विचार काफी हास्यास्पद मालूम पड़ा था। परंतु जब उन्होंने गहराई से विचार किया तो उन दार्शनिकों की यह परिकल्पना युक्ति संगत तथा तथ्यपूर्ण मालूम पड़ी। कई वर्षों तक कॉपरनिकस इस परिकल्पना पर चिन्तन तथा मनन करते रहे तथा अंत में वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि सूर्य केंद्रित परिकल्पना सही है। हालांकि वे इस परिकल्पना से संतुष्ट थे, परंतु बहुत लम्बे समय तक वे इसे प्रकाशित करने का साहस नहीं जुटा पाए। अंत में इस परिकल्पना को 1543 में एक पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया जिसका नाम था दी रिवॉलुशनिबस ऑर्बियम सेलेस्टियम। धीरे-धीरे कॉपरनिकस के सिद्धांत वैज्ञानिकों के बीच मान्य होते गए। इन सिद्धांतों ने खगोल विज्ञान के विकास में आधार स्तंभ का काम किया।

उपर्युक्त पुस्तक के प्रकाशित होने से पहले कॉपरनिकस ने सन 1530 में अपने द्वारा लिखित एक पांडुलिपि वैज्ञानिकों के बीच वितरित की थी जिसका शीर्षक था कमेंटारियोलस। इस पांडुलिपि में उन्होंने अपने विचारों का सारांश प्रस्तुत किया था। परंतु इस पांडुलिपि में कोई चित्र नहीं था और न कोई गणना थी जिसके कारण उस काल के वैज्ञानिकों द्वारा इस पर प्रतिक्रिया नहीं व्यक्त की गई। परंतु इस पांडुलिपि के सम्बंध में एक व्याख्यान रोम में जोहान अलब्रोक्ट विडमैंस्टाड द्वारा दिया गया। पोप क्लेमेंट सप्तम ने इस व्याख्यान को सुनकर कॉपरनिकस के सिद्धांत को अपनी स्वीकृति प्रदान की तथा इसे प्रकाशित करने का आदेश दिया।

1540 में रेटिकस कॉपरनिकस की पांडुलिपि को मुद्रित कराने न्युरेमबर्ग ले गए परंतु वहां लूथर मेलांक्थन जैसे पोंगा पंथियों के कड़े विरोध के कारण रेटिकस पांडुलिपि को बिना मुद्रित कराए वापस लौट आए। इसके बाद लिपज़िग में इसके मुद्रण का भार जोहान स्कोनर तथा एंड्रियास ओसियेंडर को सौंपा गया। ओसियेंडर को डर था कि इसके प्रकाशित होते ही उसे समाज में विरोध का सामना करना पड़ेगा। अत: मुद्रण के पूर्व उन्होंने अपनी ओर से एक भूमिका जोड़ दी जिसमें बताया गया कि सूर्य केंद्रित ब्राहृाण्ड की अवधारणा मात्र ग्रहों के विचरण की संतोषजनक व्याख्या करने हेतु प्रस्तुत की जा रही है। कॉपरनिकस ने सूर्य केंद्रित ब्राहृाण्ड की जो अवधारणा प्रस्तुत की उसके अनुसार केंद्र में सूर्य था। उसके बाद क्रम से बुध, शुक्र, पृथ्वी, मंगल, बृहस्पति तथा शनि स्थित हैं। पृथ्वी के चारों ओर चंद्रमा को चक्कर लगाते हुए बताया गया था।

कॉपरनिकस की मृत्यु 24 मई 1543 को फ्रॉमबर्क में 70 वर्ष की अवस्था में हुई। उन्हें गुज़रे एक लंबा अरसा बीत चुका है किंतु उनके द्वारा प्रतिपादित सिद्धांतों ने खगोल विज्ञान के क्षेत्र में एक क्रांतिकारी परिवर्तन लाकर एक नई दिशा दिखाई है। (स्रोत फीचर्स)