विश्वविद्यालयों और उच्च शिक्षा संस्थानों में शिक्षकों व अन्य अकादमिक कर्मियों की भर्ती व पदोन्नति के आकलन हेतु उनके द्वारा प्रकाशित शोध पत्र एक कसौटी होती है। यूजीसी ने ऐसी लगभग 30,000 शोध पत्रिकाओं की सूची प्रकाशित की थी जिनमें प्रकाशित शोध पत्रों को इस आकलन हेतु स्वीकार किया जाता था। मगर अब यूजीसी ने इनमें से 4,305 शोध पत्रिकाओं को सूची से बाहर कर दिया है। अब इनमें प्रकाशित शोध पत्रों को आकलन में शामिल नहीं किया जाएगा। यह निर्णय यूजीसी की जर्नल अधिसूचना सम्बंधी स्थायी समिति ने हाल ही में लिया है।

दरअसल स्थायी समिति ने कई शोध पत्रिकाओं की विश्वसनीयता को लेकर आई शिकायतों के जवाब में शोध पत्रिकाओं का मूल्यांकन किया था। इससे पहले मार्च में भारत और कनाडा के शोधकर्ताओं ने मिलकर करंट साइन्स में एक शोध पत्र प्रकाशित किया था जिसका निष्कर्ष था कि विश्वविद्यालयों द्वारा अनुशंसित कई शोध पत्रिकाएं निम्न गुणवत्ता की हैं। अकादमिक संस्थान इस सूची के आधार पर शोधकर्ताओं और शिक्षकों का मूल्यांकन किया करते थे। यूजीसी ने इस पर्चे के प्रकाशन के बाद अप्रैल में जो समीक्षा प्रक्रिया शुरू की उसमें यह देखा गया कि सूची में सम्मिलित कई शोध पत्रिकाएं भुगतान के बदले शोध पत्र प्रकाशित करती हैं। इनमें से कई पत्रिकाओं में संपादकों के बारे में पर्याप्त जानकारी नहीं दी जाती है और यह भी नहीं बताया जाता है कि किसी शोध पत्र के प्रकाशन से पूर्व समीक्षा की प्रक्रिया क्या है।

करंट साइन्स में प्रकाशित शोध पत्र के लेखकों में सावित्रीबाई फुले पुणे विश्वविद्यालय के जीव वैज्ञानिक भूषण पटवर्धन तथा कनाडा के ओटावा हॉस्पिटल रिसर्च इंस्टिट्यूट के चिकित्सा शोधकर्ता डेविड मोहर शामिल हैं। समीक्षा के दौरान इन्होंने 200 तथाकथित परभक्षी शोध पत्रिकाओं में प्रकाशित लगभग 2000 शोध पत्रों का विश्लेषण किया था।  उन्होंने पाया कि ऐसी पत्रिकाओं में सबसे ज़्यादा शोध पत्र भारत से ही छपते हैं (यूएसए दूसरे नंबर पर है)।
पटवर्धन और मोहर ने विश्वविद्यालयों द्वारा अनुशंसित 1009 शोध पत्रिकाओं के विश्लेषण में पाया कि इनमें से मात्र 112 (11.1 प्रतिशत) ही अच्छे प्रकाशन की कसौटी पर खरे उतरते हैं। लगभग एक-तिहाई शोध पत्रिकाओं में मूलभूत सूचनाएं तक नहीं दी गई थीं - जैसे पता, वेबसाइट, पत्रिका के संपादक वगैरह। अन्य पत्रिकाओं में विषयवस्तु तथा समीक्षा प्रक्रिया को लेकर खामियां पाई गईं।

इस पर्चे के सह-लेखक और बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के प्राणि वैज्ञानिक सुभाष लखोटिया का मत है कि यूजीसी को चाहिए कि वह शोध पत्रिकाओं की सूची को पूरी तरह समाप्त कर दे और मूल्यांकन के सामान्य दिशानिर्देश तैयार करे। कुछ लोगों का मत है कि इस मामले में मुख्य समस्या यह है कि अकादमिक व्यक्तियों के मूल्यांकन में शोध पत्रों की संख्या को अत्यधिक महत्व दिया जाता है। 2013 में यूजीसी ने यह नियम बनाया था कि शोध छात्रों को शोध प्रबंध प्रस्तुत करने से पहले कम से कम दो शोध पत्र प्रकाशित करना अनिवार्य होगा। ऐसे नियमों के चलते यह दबाव बनता है कि येन केन प्रकारेण शोध पत्र प्रकाशित किए जाएं। इसलिए ऐसी संदेहास्पद शोध पत्रिकाओं की बाढ़ आ जाती है। इसके अलावा ‘भुगतान के बदले प्रकाशन’ की ऑनलाइन व्यवस्था ने भी इस प्रवृत्ति को बढ़ावा दिया है। यह कमाई का साधन बन गई है। लिहाज़ा इस मामले में कुछ सख्त कदम उठाना ज़रूरी लगता है। (स्रोत फीचर्स)