डॉ. डी. बालसुब्रामण्यन

भारत में देखने लायक शानदार नज़ारों में से एक है ओडिशा के गहिरमाथा समुद्र तट पर एक ही समय पर दसियों हज़ार ऑलिव रिडले कछुओं का आगमन। यह हर साल एक ही समय पर होता है। वे श्रीलंका के दक्षिण की ओर से हिंद महासागर में उत्तर की ओर हज़ारों किलोमीटर की यात्रा कर भारत पहुंचते हैं। ये यहां के तट पर अपना ठिकाना बनाते हैं और बच्चे पैदा करके कुछ ही दिनों बाद लौट जाते हैं। इस वक्त यहां का तापमान, मौसम, प्राकृतिक पर्यावरणीय संसाधन सभी जीवन की इस भव्य निरंतरता के लिए पूरी तरह अनुकूल होते हैं।

इन कछुओं में किस तरह का जीपीएस (ग्लोबल पोज़ीशनिंग सिस्टम) होता है जिसके दम पर वे हर साल ऐसा कर पाते हैं? इसके जवाब की बारीकियों की खोज अभी जारी है। इस मामले में दो प्रमुख परिकल्पनाएं हैं जो इस सवाल का जवाब देने की कोशिश करती हैं। दोनों इस तथ्य पर आधारित हैं कि पृथ्वी एक विशाल चुंबक है, जिसमें सुपरिभाषित उत्तरी व दक्षिणी ध्रुव तथा चुंबकीय अक्ष है और इसकी तीव्रता या ताकत सतह पर व्यवस्थित रूप से बदलती है। ऐसा लगता है कि कछुए इन संकेतों का इस्तेमाल अपनी इस लंबी यात्रा में आगे बढ़ने और अपनी दिशा निर्धारित करने के लिए करते हैं। इस संदर्भ में दावा किया गया है कि प्रत्येक कछुआ अपने आप में एक छोटा चुंबक है।

इस मामले में कछुए अकेले नहीं हैं। अन्य समुद्री जंतुओं, जैसे कई मछलियों और लॉबस्टर, पक्षियों, मधुमक्खियों, चमगादड़ों और यहां तक कि कुत्तों और प्रायमेट्स जैसे कुछ स्तनधारियों में इस तरह का अंतर्निहित कंपास होता है। (कहते हैं कि जब कुत्ते पेशाब या मल त्याग करते हैं तो वे खुद को उत्तर-दक्षिण में व्यवस्थित कर लेते हैं।) ऐसा प्रतीत होता है कि मनुष्यों में भी इस तरह का कंपास होता है जिसे तकनीकी भाषा में जियो-मैग्नेटो-रिसेप्शन कहते हैं।

तो कछुओं के बारे में दो प्रमुख परिकल्पनाएं क्या हैं? पहली, इस क्षेत्र के दो दिग्गजों द्वारा सुझाई गई है। कैल्टेक के जोसेफ किर्र्शविंक और उत्तरी कैरोलिना विश्वविद्यालय के कैनेथ लोहमान ने तर्क दिया है कि इन जंतुओं के शरीर में छोटे-छोटे चुंबक होते हैं। ये चुंबक मैग्नेटाइट नामक पदार्थ की उपस्थिति के कारण बनते हैं (मैग्नेटाइट एक लौह-आधारित खनिज है)। व्यवस्थित रूप से इस चुंबकत्व को देखने के लिए ये दो समूह व्यवस्थित रूप से मछली (जैसे कि ज़ेब्रा मछली - प्रायोगिक जीव विज्ञानियों का पसंदीदा जंतु), कछुओं, पक्षियों और अन्य का अध्ययन कर रहे हैं।

लगभग साथ-साथ, इलिनॉय विश्वविद्यालय के प्रोफेसर क्लाउस शुल्टन और उनके सहयोगियों ने मैग्नेटो-रिसेप्शन के लिए एक जैव रासायनिक दृष्टिकोण प्रस्तुत किया है। उनका कहना है कि इस संदर्भ में प्रमुख अणु क्रिप्टोक्रोम नामक प्रोटीन है, जो आंखों के रेटिना में पाया जाता है।

इस प्रोटीन का एक लंबा वैकासिक इतिहास है। यह न केवल पौधों में बल्कि मछलियों, कछुओं, उभयचरों, पक्षियों और मनुष्य समेत अन्य जंतुओं में भी पाया जाता है। शुल्टन का कहना है कि जब इस प्रोटीन पर नीला प्रकाश पड़ता है, तो एक जोड़ी मुक्त मूलक उत्पन्न होते हैं। ये मुक्त मूलक एक-दूसरे का शमन नहीं करते (जैसा कि मुक्त मूलक सामान्यतया करते हैं)। इसकी बजाय ये एक परस्पर उलझी हुई जोड़ी बन जाते हैं जो एक छोटे चुंबक का निर्माण करती है। और यही वह नन्हा-सा आण्विक दिक्सूचक है जो पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र की सीध में आ जाता है और उसके साथ क्रिया करता है जिससे जंतुओं में गति पैदा होती है।

इनमें से कौन-सी परिकल्पना सही है या क्या ये दो तरीके मिल-जुलकर काम करते हैं? इनमें से कुछ का जवाब म्यूनिख के तकनीकी विश्वविद्यालय के डॉ. गिल जी. वेस्टमेयर और उनके समूह ने हाल ही में नेचर कम्युनिकेशन में प्रकाशित किया है। उन्होंने अपने प्रयोग के लिए ज़ेब्राा फिश और मेडाका नामक एक मछली का उपयोग किया। उन्होंने इन मछलियों पर नीली रोशनी चमकाई और पाया कि मछलियों ने ठीक शुल्टन के बताए अनुसार प्रतिक्रिया दी। किंतु जब उन्होंने नीली रोशनी या किसी भी दृश्य प्रकाश का उपयोग न करके इंफ्रारेड (अवरक्त) प्रकाश का उपयोग किया तब भी मछलियों ने वैसी ही प्रतिक्रिया दी। इसका मतलब है कि इन जंतुओं में कोई वैकल्पिक या अतिरिक्त तरीका उपलब्ध है (अर्थात किर्शविंक की बात में भी दम हो सकता है)। साफ है कि इस पर और काम करने की ज़रूरत है। केवल ज़ेब्रा फिश और मेडाका पर ही नहीं बल्कि पक्षियों और अन्य जंतुओं पर भी प्रयोग करने की ज़रूरत है।

ऑलिव रिडले कछुए सहजता से उपलब्ध हैं और भारतीय वन्य जीव संस्थान के पास उनका एक अच्छा विवरण भी उपलब्ध है। और तो और, उनके डीएनए के कुछ पहलुओं का अध्ययन भी हो चुका है। इस सबको देखते हुए यह अच्छा होगा कि कुछ भारतीय शोधकर्ता उनके मैग्नेटो-रिसेप्शन का अध्ययन करें। इसके लिए उनमें पाए जाने वाले मैग्नेटाइट पदार्थ की जांच की जा सकती है और क्रिप्टोक्रोम गतिविधि को भी देखा जा सकता है। इससे उनके मैग्नेटो-रिसेप्शन के आधार को समझने में मदद मिलेगी। वैसे भी यह एक ऐसा क्षेत्र है जिस पर गहराई से जांच करने की ज़रूरत है।
अलबत्ता, अभी तक यह सवाल बना हुआ है कि क्या हम मनुष्य भी मैग्नेटो-रिसेप्टिव हैं। क्या हमारे शरीर में मैग्नेटाइट है? कुछ शोधकर्ताओं का दावा है कि हमारे शरीर में मैग्नेटाइट है।

अन्य शोधकर्ताओं ने इस पर यह सवाल उठाया है कि क्या यह हमें जैविक विरासत में मिलता है या यह हमारे शरीर में वायुमण्डलीय प्रदूषण की वजह से पहुंचता है। हमारे वातावरण में न केवल कार्बन, नाइट्रोजन, सल्फर के ऑक्साइड्स और ऑक्सीजन मौजूद हैं, बल्कि कालिख, राख और अन्य ‘मानव-जनित’ पदार्थ भी हैं जिनमें लौह उपस्थित होता है। उन इलाकों का अध्ययन उपयोगी होगा जहां ऐसे प्रदूषण का स्तर लगभग न के बराबर हो, या बहुत कम हो। दूसरी ओर, हमारे शरीर में क्रिप्टोक्रोम के दो रूप पाए जाते हैं (Cry1और Cry2)। इन अणुओं के प्रकाश-चुंबकीय गुणों पर भी काम किया जा सकता है। तो यह अनुसंधान का एक और विषय है जिसे आगे बढ़ाया जाना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)