दुनिया भर में प्रति वर्ष लगभग 6 लाख व्यक्तियों को पेसमेकर या ऐसे ही अन्य उपकरण लगाए जाते हैं। एक अनुमान के मुताबिक इनमें से एक-तिहाई मरीज़ों को दिक्कत होती है और उन्हें अतिरिक्त सर्जरी का सहारा लेना पड़ता है। इनमें से कई सारे मरीज़ों को जो तकलीफ होती है उसका कारण इन उपकरणों में लगे तार होते हैं।
पेसमेकर में एक यंत्र हृदय के बाएं निलय यानी लेफ्ट वेंट्रिकल पर लगाया जाता है। इसका काम यह होता है कि हृदय को नियमित रूप से विद्युत संकेत देता रहे ताकि हृदय की धड़कन नियमित बनी रहे। इस यंत्र को सीने पर लगे एक अन्य यंत्र से जोड़ा जाता है जो विद्युत आवेश प्रदान करता है। इन दोनों यंत्रों को आपस में तार से जोड़ा जाता है। ये तार मरीज़ की रक्त वाहिनियों में पिरोए जाते हैं।

डॉक्टरों का अनुभव है कि सबसे ज़्यादा गड़बड़ी इस तार के टूटने या अन्य किस्म की क्षति के कारण होती है। यदि रक्त वाहिनी के अंदर यह तार टूट जाए तो इसे तत्काल निकलकर नया तार लगाना होता है। यह प्रक्रिया काफी नज़ाकत भरी होती है क्योंकि डर रहता है कि कहीं रक्त वाहिनी न फट जाए। यदि तार निकालते या उसकी मरम्मत करते वक्त रक्त वाहिनी फट जाए तो यह एक संकट की स्थिति बन जाती है।
मगर अब बेतार पेसमेकर प्रकट होने लगे हैं और इनके परीक्षण भी शु डिग्री हो चुके हैं। ऐसे एक यंत्र में एक इलेक्ट्रोड है जो चावल के दाने की साइज़ का है। इसे एक केथेटर की मदद से हृदय के बाएं निलय में लगा दिया जाता है। यह वहां बैठकर पीज़ो-विद्युत उत्पन्न करके हृदय को संकेत देता रहता है। इसे विद्युत की सप्लाई एक अन्य यंत्र से मिलती है जो अल्ट्रासाउंड ऊर्जा प्रसारित करता रहता है। यह दूसरा यंत्र भी सीने में ही लगा होता है। कुल मिलाकर पूरी व्यवस्था में यंत्रों को आपस में जोड़ने के लिए तारों का उपयोग नहीं किया जाता है।

कुछ अन्य तरीके भी अपनाए जा रहे हैं। जैसे एक व्यवस्था यह आज़माई गई है कि पूरे यंत्र (विद्युत संकेत उत्पादक और बैटरी) को सीने के अंदर दिल के पास ही फिट कर दिया जाए। मगर यह उपकरण काफी बड़ा है। इसे हृदय के बाएं निलय में लगाना खतरे से खाली नहीं है क्योंकि यह खून के थक्के बनने की क्रिया शुरु करवा सकता है।
अलबत्ता, इन उपकरणों के उपयोग को अभी अनुमति नहीं मिली है हालांकि ये नियामक संस्थाओं को प्रस्तुत किए जा चुके हैं। (स्रोत फीचर्स)