नरेन्द्र देवांगन


कीड़ों में आवाज़ सुनने और पैदा करने की क्षमता का काफी अध्ययन हुआ है। ये ज़्यादातर अपने पैरों को पंखों पर रगड़कर या पंखों को आपस में रगड़कर आवाज़ पैदा करते हैं। रात में सुनाई पड़ने वाली झींगुर की आवाज़ पंखों के कुछ खास हिस्सों को आपस में रगड़ने से पैदा होती है। इन हिस्सों पर लगभग डेढ़ सौ त्रिकोणीय प्रिज़्म लगे होते हैं। साथ ही चार झिल्लियां होती हैं, जो कंपित होकर आवाज़ को बढ़ाती हैं।
रोचक बात यह है कि कीड़ों के कान सिर पर नहीं होते। झींगुर के कान इसके घुटने में होते हैं और टिड्डी के कान पैरों के आधार पर। कीड़ों में कान के नाम पर एक झिल्ली लगी होती है, जिससे जुड़ी थैली में हवा भरी रहती है। इसी कान से जुड़ी संवेदी तंत्रिका कोशिकाएं कीड़ों को आवाज़ का एहसास कराती हैं।
कीड़ों में सबसे अद्भुत कान रात में विचरने वाले पतंगों के हैं। ये अपनी ही तरह निशाचर चमगादड़ों का खास शिकार हैं। इसलिए कुदरत ने इन्हें ऐसे कान दिए हैं, जो चमगादड़ के अल्ट्रासाउंड संकेतों को पकड़ सकें। ये कान पतंगों के पंखों में होते हैं। आते हुए चमगादड़ की आहट को भांपकर ये पतंगे अपना रास्ता बदल लेते हैं।

हवा की तुलना में पानी में आवाज़ चार गुना तेज़ी से चलती है और ध्वनि तरंगों को भी आसानी से पकड़ा जा सकता है। मछलियों में सिर्फ भीतरी कान ही होते हैं। ये खोपड़ी में पीछे की ओर एक जोड़ी गुहाओं में स्थित होते हैं। यह गुहा दो भागों में बंटी होती है - ऊपरी युट्रिकुलस और निचली सैकुलस। सुनने का काम मुख्य रूप से सैकुलस में होता है।
आधुनिक उपकरणों से पता चला है कि मछलियां 7,000 हटर््ज़ (साइकिल प्रति सेकंड) आवृत्ति तक की आवाज़ें सुन सकती हैं। कुछ मछलियों में आवाज़ को बढ़ाकर कान की संवेदना बढ़ाने के लिए एक खास उपकरण होता है। तीन-चार जोड़ी हड्डियों से बने ‘वेबेरियन एपरेटस’ नामक यह उपकरण आगे की कशेरुकों से बना है। यह भी देखा गया है कि शार्क मछलियां 200 मीटर दूर से आवाज़ों को पकड़ लेती हैं।
उभयचर प्राणियों में मध्य कर्ण होते हैं, बाह्य कर्ण नहीं होते। जब ये प्राणी ज़मीन पर रहते हैं तो कान का यही हिस्सा यानी मध्य कर्ण आवाज़ को विस्तार देकर भीतरी कान तक पहुंचाता है। इनमें आंखों के पीछे एक गोल झिल्ली जैसी लगी होती है। आवाज़ इसी के ज़रिए मध्य कर्ण से घुसकर प्राणी को आवाज़ का एहसास कराती है।

इस वर्ग के सबसे जाने-पहचाने प्राणी मेंढक में सुनने की असाधारण क्षमता देखी गई है। खास तौर से प्रजनन काल के दौरान इसके कान बहुत तेज़ हो जाते हैं। अनुमान है कि मादा मेंढक आधा मील से भी ज़्यादा दूर से नर मेंढक की गुहार सुन लेती है।
सरीसृप वर्ग के अलग-अलग जंतुओं में कान की रचना अलग-अलग होती है। सांप में केवल आंतरिक कर्ण होता है किंतु छिपकलियों में मध्य और आंतरिक कर्ण दोनों होते हैं। हां, इस वर्ग के रेंगने वाले प्राणियों की खाल इतनी संवेदी ज़रूर होती है कि वे ज़मीन में पैदा होने वाले कंपनों को सुन सकें। अनेक भ्रांतियों से घिरा सांप भी सिर्फ ज़मीन में दौड़ती आवाज़ों को ही सुन पाता है। इसीलिए गांव में लोग रात को लाठी से ज़मीन पर ठक-ठक करते हुए चलते हैं। इन कंपनों की आवाज़ को सुनते ही सांप दूर भाग जाता है।
मूल संरचना के हिसाब से तो पक्षियों के कान में कोई खास विविधता नहीं होती लेकिन अनेक पक्षियों में उनकी ज़रूरत के अनुरूप आवाज़ सुनने की अनोखी शक्ति होती है। उदाहरण के तौर पर लंबी यात्राएं करने वाला कबूतर मात्र एक हटर््ज़ की आवाज़ भी बखूबी सुन लेता है।
वैज्ञानिकों की राय में हर साल हज़ारों किलोमीटर की यात्रा करने वाले प्रवासी पक्षी कम आवृत्ति वाली आवाज़ यानी इंफ्रासाउंड की मदद से सही ठिकानों पर पहुंचते हैं। इनके लिए इंफ्रासाउंड ‘लैंडमार्क’ का काम करती है। उल्लेखनीय है कि सागर की लहरें और रेगिस्तान की रेत हर समय लगभग एक हटर््ज की आवाज़ें पैदा करती रहती हैं। इसी तरह पहाड़ और झरने भी इंफ्रासाउंड के स्रोत हैं। ये पक्षी शहरों के शोर को भी पहचानते हैं।

ऐसा माना जाता है कि इंफ्रासाउंड सुनने की अद्भुत क्षमता के कारण ही पक्षी आंधी-तूफान से पहले अपना व्यवहार बदलते हैं।
रात में विचरने वाले उल्लू में आवाज़ के सहारे ही देखने की अनोखी क्षमता होती है। इसके कान आवाज़ आने की दिशा भी भली प्रकार ताड़ लेते हैं क्योंकि उल्लू के कान एक सीध में नहीं होते। इसका दायां कान थोड़ा-सा ऊपर की ओर तथा बायां कान नीचे की ओर होता है। इस तरह उल्लू दाईं और बाईं दिशा से आई आवाज़ में अंतर करने के साथ ही, ऊपर और नीचे से आई आवाज़ में भी अंतर महसूस कर लेता है।
इस काम में उल्लू के चेहरे पर लगे खास पंख भी इसकी मदद करते हैं। इन पंखों को ‘फेशियल रफ’ कहा जाता है। ये आवाज़ को उसी तरह इकट्ठा करते हैं जैसे हमारे बाहरी कान। इसीलिए उल्लू के कान फेशियल रफ के फोकस पर स्थित होते हैं जिससे उल्लू हल्की आवाज़ों को भी बखूबी सुन लेता है।

स्तनधारी प्राणियों के कान की संरचना में एक बाहरी हिस्सा और होता है बाह्य कर्ण। इसका काम आवाज़ को इकट्ठा करके मध्य कान में भेजना है। इसी वजह से स्तनधारी प्राणियों के कान बेहद हल्की आवाज़ सुन पाते हैं। मसलन, बड़े कानों वाले हाथी को लें। प्रयोगों से पता चला है कि हाथी एक हटर््ज़ से भी कम आवृत्ति वाली इंफ्रासाउंड को सुन लेते हैं और इस क्षमता का इस्तेमाल दूर विचरते झुंड को किसी खतरे से आगाह करने के लिए करते हैं। उल्लेखनीय है कि हाथी अपने गले से इंफ्रासाउंड पैदा करने में समर्थ हैं।
नन्हें-नन्हें कानों वाला चूहा एक लाख हटर््ज़ तक की आवाज़ें सुन सकता है और हमारा दोस्त कुत्ता 38,000 हटर््ज़ तक की। पानी में रहने वाली व्हेल और डॉल्फिन में एक लाख से सवा लाख हटर््ज़ तक की आवाज़ें सुनने की क्षमता पाई गई है।
ज़्यादा से ज़्यादा आवृत्ति की आवाज़ें सुनने में चमगादड़ का नाम सबसे ऊपर है। देखा गया है कि यह तीन लाख हटर््ज़ तक की आवाज़ें बखूबी सुन लेता है। चमगादड़ में अपनी ही आवाज़ की प्रतिध्वनि सुनने की भी अनोखी क्षमता है। इसी क्षमता के कारण ही यह अंधेरे में भी शिकार करता है और बिना टकराए उड़ता फिरता है।

चमगादड़ उड़ते वक्त 25-50 ध्वनि तरंगें हर सेकंड छोड़ता रहता है। ये शिकार या बाधा से टकराकर वापस आती हैं। वापस आने में लगे समय के हिसाब से यह शिकार की दूरी का अंदाज़ लगा लेता है, और उसी हिसाब से अपनी रफ्तार घटाता-बढ़ाता है, दिशा बदलता है। जब शिकार बहुत करीब होता है तो चमगादड़ हर सेकंड 200 तक ध्वनि तरंगें पैदा करता है।
मानव के कान सिर्फ 20 से 20,000 हटर््ज़ तक की आवाज़ें ही सुन सकते हैं। पर आवाज़ पकड़ने की कुशलता के मामले में ये बेहद आगे हैं। हमारे कान मात्र 0.0001 माइक्रोबार (0.0001 डाइन प्रति वर्ग सेंटीमीटर) का दबाव उत्पन्न करने वाली आवाज़ को भी पकड़ लेते हैं। जानकर आश्चर्य होता है कि इतना दबाव कान की झिल्ली को सेंटीमीटर के सिर्फ 1 खरबवें हिस्से के बराबर ही विस्थापित कर पाता है।
हमारे कानों में एक खूबी और है - ये आवाज़ की सही दिशा भांप लेते हैं। अगर हमारा चेहरा आवाज़ के स्रोत की ओर न हो तो एक तरफ के कान को दूसरे की तुलना में 0.0001 सेकंड पहले आवाज़ सुनाई पड़ जाती है। इसी अंतर को भांपकर हम अपना चेहरा आवाज़ की ओर कर लेते हैं।
हमारे कान बहुत तेज़ आवाज़ को भी बिना किसी नुकसान के सह लेते हैं। देखा गया है कि 2000 बार तक की आवाज़ का हमारे कानों पर कोई खास प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ता। पर इसका यह मतलब नहीं कि शोर का हमारे कानों पर कोई असर ही नहीं पड़ता। लंबे समय तक शोर के प्रभाव में रहने से हमारे कानों और केंद्रीय तंत्रिका तंत्र पर बुरा प्रभाव पड़ता है। इसीलिए ध्वनि प्रदूषण की समस्या के निदान के लिए शोर पर रोक लगाने के प्रयास किए जा रहे हैं। (स्रोत फीचर्स)