डॉ. राम प्रताप गुप्ता


आज़ादी के बाद के 20-25 वर्षों में सिंचाई सुविधाओं और विद्युत उत्पादन में वृद्धि के उद्देश्य से देश की सभी बड़ी नदियों पर उपयुक्त स्थानों पर बांध बनाए गए। इसी प्रक्रिया में मालवा की जीवनरेखा मानी जाने वाली चंबल नदी के पानी के दोहन के उद्देश्य से चंबल घाटी विकास निगम के अन्तर्गत तीन बांध - गांधीसागर, राणा प्रताप सागर और जवाहर सागर - से नहरें निकालकर राजस्थान और मध्यप्रदेश में सिंचाई सुविधाएं प्रदान करना प्रस्तावित था। चंबल नदी पर बने तीनों बांधों में से गांधीसागर प्रथम और सबसे बड़ा बांध था; चंबल घाटी विकास योजना के अन्तर्गत दोहन किए जाने वाले पानी का 83 प्रतिशत भाग इसमें ही संग्रहित होता है।

चंबल घाटी विकास योजना के अन्तर्गत बने इस प्रथम बांध के महत्व का अंदाज़ा इससे भी लगता है कि सन 1954 में इसका शिलान्यास और सन 1960 में इसका उद्घाटन भी तत्कालीन प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरु ने किया और कहा था कि गांधीसागर जैसे बांध तो नए भारत के नए तीर्थ हैं। गांधीसागर में पानी की आवक सुनिश्चित करने की दृष्टि से तत्कालीन जल इंजीनियरिंग सोच के आधार पर यह तय किया गया कि 4500 वर्ग कि.मी. क्षेत्र में फैले चंबल नदी के जल ग्रहण क्षेत्र में वर्षा के पानी के दोहन पर प्रतिबंध लगाया जाना चाहिए ताकि वर्षा का सारा पानी गांधीसागर में ही आए। चंबल घाटी विकास परियोजना मध्यप्रदेश और राजस्थान की संयुक्त परियोजना है और इस हेतु किए गए समझौते में मध्यप्रदेश ने इस शर्त पर भी अपनी सहमति प्रदान कर दी थी। तत्कालीन प्रशासन और जल संसाधन विभाग ने चंबल के जलग्रहण क्षेत्र में वर्षाजल के दोहन पर रोक लगाने से इस क्षेत्र पर क्या प्रभाव पड़ेगा इसका अनुमान लगाने की आवश्यकता भी नहीं समझी।
गांधी सागर के निर्माण के पूर्व चंबल के जल ग्रहण क्षेत्र मालवा अर्थात दक्षिणी-पश्चिमी मध्यप्रदेश के आठ ज़िलों - धार, इन्दौर, देवास, शाजापुर, उज्जैन, रतलाम, मंदसौर और नीमच - में भूजल का स्तर काफी ऊंचा रहता था। इस क्षेत्र की नदियों जैसे क्षिप्रा, छोटी कालीसिंध, शिवना और चंबल में ही नहीं, छोटी-छोटी नदियों, नालों में भी वर्ष भर पानी बहता रहता था। उस समय तक कृषि में रासायनिक खाद का उपयोग शु डिग्री नहीं हुआ था और मिट्टी के उपजाऊपन को कायम रखने के लिए जैविक खाद का ही उपयोग होने से मिट्टी में वर्षा के पानी को सोखने और धारण करने की क्षमता भी अच्छी थी, जिससे मिट्टी में पर्याप्त नमी बनी रहती थी और असिंचित क्षेत्र में रबी की फसलें ली जाती थीं। मालवा के असिंचित क्षेत्र में पैदा होने वाले कठिया गेहूं की अपनी श्रेष्ठ गुणवत्ता तथा मालवा के प्रसिद्ध लड्डू-बाफलों में इसी का उपयोग होने से इसकी मांग भी बहुत थी और इसके उत्पादक कृषकों को इसकी अच्छी कीमत मिलती थी। मालवा की इन्हीं विशिष्टताओं को किसी जन कवि ने इस तरह प्रस्तुत किया है-

“मालवा धरती धीर गंभीर
पग-पग रोटी, डग-डग नीर”
सन 1960 में गांधी सागर के निर्माण के बाद के कुछ वर्षों तक तो इसके जलग्रहण क्षेत्र में वर्षा के जल दोहन पर प्रतिबंध का कोई प्रतिकूल असर नहीं पड़ा। पूर्व में इस क्षेत्र में तालाब काफी संख्या में बने थे, इससे वर्षा का बड़ा भाग उनमें संग्रहित हो जाता था और मिट्टी में पर्याप्त मात्रा में नमी बनी रहने से वर्षा के दोहन हेतु किसी नई संरचना के निर्माण पर प्रतिबंध ने स्थानीय किसानों को विशेष प्रभावित नहीं किया। मालवा क्षेत्र की अनेक रियासतों - जैसे होल्कर, देवास सीनियर एवं जूनियर, ग्वालियर, रतलाम और सैलाना - में बंटे होने से इस क्षेत्र में गांधी सागर के निर्माण के पूर्व कितने तालाब थे, इसका कोई व्यवस्थित विवरण नहीं मिलता है। गांधी सागर के जलाशय के 660 वर्ग कि.मी. क्षेत्र में 95 तालाब डूब में आए थे, इसी के आधार पर यह मोटा अनुमान लगाया जा सकता है कि उस समय चंबल के 4500 वर्ग कि.मी. में फैले जल ग्रहण क्षेत्र में लगभग 800 तालाब थे अर्थात मालवा क्षेत्र में तालाबों का जाल बिछा हुआ था। इसी कारण चंबल घाटी योजना के संदर्भ में मध्यप्रदेश और राजस्थान के बीच हुए समझौते में चंबल के जल ग्रहण क्षेत्र में वर्षा के जल दोहन हेतु किसी नई संरचना के निर्माण पर प्रतिबंध का अगले कुछ वर्षों तक तो कोई प्रतिकूल प्रभाव दिखाई नहीं दिया।

बाद के वर्षों में आबादी में तीव्र गति से वृद्धि होने और रोज़गार हेतु अन्य व्यवसायों का सृजन नहीं होने से कृषि पर आबादी का दबाव बढ़ता गया। पूर्व में किसी तालाब के जलग्रहण क्षेत्र में कृषि करने की इजाज़त नहीं दी जाती थी। समय के साथ कृषि भूमि की मांग में वृद्धि होने से सरकारी अधिकारियों की मिली भगत से किसान तालाबों के जलग्रहण क्षेत्र की भूमि पर भी खेती करने लगे, जिससे मिट्टी की ज़मीन से पकड़ कम हो गई और वह बहकर तालाबों में आने लगी और तालाब सिकुड़ने लगे। तालाबों के सिकुड़ने से मुक्त हुई ज़मीन के अधिक उपजाऊ होने से किसान उस पर भी खेती करने लगे। बाद में राजस्व अधिकारियों की मिलीभगत से इसे अपने नाम भी कराने लगे। इस प्रक्रिया में चंबल के जलग्रहण क्षेत्र में कितने तालाब नष्ट हुए इसका कोई रिकार्ड नहीं है, परन्तु काफी संख्या में तालाब नष्ट होने का अनुमान है। प्रत्येक क्षेत्र में तालाब की भूमि पर खेती करने के उदाहरण मिल जाएंगे।
सन 1970 के आसपास मालवा क्षेत्र में हरित क्रान्ति टेक्नॉलॉजी के बड़े पैमाने पर प्रवेश होने से कृषि में पानी की मांग तेज़ी से बढ़ी। सिंचाई की बढ़ती मांग की पूर्ति के लिए वर्षा के पानी के दोहन के सतही स्रोतों से वंचित किसानों के लिए भूजल भंडारों के दोहन का ही एक मात्र सहारा रहा। परिणामस्वरूप मालवा में कुएं और नलकूपों की संख्या तेज़ी से बढ़ने लगी। कुओं से सिंचित क्षेत्र का आकार सन 1966-67 में 192.8 हज़ार हैक्टर था जो सन 1998-99 में बढ़कर 629.5 हज़ार हैक्टर हो गया। सन 1966-67 में तो नलकूप थे ही नहीं। जैसे-जैसे भूजल स्तर नीचे गिरता गया, वैसे-वैसे अधिक गहराई तक खोदने के बावजूद कुओं में पानी की उपलब्धता कठिन होती गई। ऐसे में किसानों ने नलकूपों का सहारा लेना शु डिग्री कर दिया। सन 1998-99 में नलकूपों से सिंचाई क्षेत्र का आकार 108.5 हज़ार हैक्टर था। इस तरह सन 1966-67 में भूजल भंडारों से सिंचाई क्षेत्र 192.8 हज़ार हैक्टर था जो 1998-99 में बढ़कर 738.5 हज़ार हैक्टर (कुओं से 629.5 हज़ार हैक्टर और नलकूपों से 108.5 हज़ार हैक्टर) अर्थात लगभग 7 गुना हो गया। बाद के वर्षों में भी यही प्रक्रिया धीमी गति से जारी रही है।


भूजल विशेषज्ञों का कहना है कि कुल भूजल भंडारों के 70 प्रतिशत भाग का दोहन ही सम्पोषणीय होता है, 70 से 90 प्रतिशत दोहन को सेमी क्रिटिकल, 70 से 100 प्रतिशत दोहन को क्रिटिकल तथा 100 प्रतिशत से अधिक दोहन को अतिदोहित भूजल की श्रेणी में रखा जाता है। मालवा में भूजल के दोहन की दृष्टि से ज़िले के आंकड़ों के बजाय विकास खण्ड स्तरीय आंकड़े अधिक उपयुक्त माने जाते है क्योंकि किसी-किसी ज़िले में किसी विकास खण्ड में भूजल भंडारों का दोहन 100 प्रतिशत से अधिक है तो कुछ विकास खंडों में 70 प्रतिशत से भी कम हो सकता है। कुओं और नलकूपों की बढ़ती संख्या के कारण भूजल के अतिदोहन के शिकार विकास खण्डों की संख्या तालिका में दी गई है।
भूजल भंडारों के अतिदोहन से भूजल स्तर वर्ष नीचे तो जा ही रहा है, साथ ही उसमें फ्लोरोसिस का खतरा बढ़ता जा रहा है। रतलाम ज़िले को छोड़ शेष सभी 7 ज़िलों में फ्लोराइड की मात्रा ज़्यादा पाई गई है।


जब भूजल भंडारों के अतिदोहन के बावजूद हरित क्रान्ति तकनीक के फैलाव के कारण पानी की बढ़ती मांग पूरी नहीं हो सकी तो किसानों ने सस्ती बिजली का उपयोग कर क्षेत्र के नदी नालों से पानी सीधे पंप कर सिंचाई शु डिग्री कर दी। नदी नालों से सीधे पानी पंप कर सिंचित क्षेत्र को राजस्व विभाग द्वारा ‘अन्य स्रोतों से सिंचित’ मद में शामिल किया जाता है। सन 1966-67 में कुओं, नलकूपों, नहरों और तालाबों से सिंचित क्षेत्र मात्र 208.00 हज़ार हैक्टर था तथा नदी नालों से सीधे सिंचित क्षेत्र का आकार मात्र 10.90 हज़ार हैक्टर था। सन 1998-99 में कुओं, नलकूपों और तालाबों से सिंचित क्षेत्र का आकार बढ़कर 809.8 हज़ार हैक्टर अर्थात (1966-67 की तुलना में 3.9 गुना) हो गया, जबकि नदी नालों से सिंचित क्षेत्र सन 1996-97 में 10.9 हज़ार हैक्टर से बढ़कर 688.3 हज़ार हैक्टर हो गया (63 गुना से अधिक वृद्धि)। सन 1966-67 की तुलना में सन 1998-99 में सिंचित क्षेत्र में वृद्धि में नदी नालों से सीधे पानी पंप कर सिंचित क्षेत्र का योगदान 52.6 प्रतिशत अर्थात आधे से अधिक रहा। नदी नालों से सीधे पानी पंप कर सिंचित क्षेत्र में बाद के वर्षों में अधिक वृद्धि नहीं हुई, क्योंकि नदी नाले सूखने लगे। इस तरह भूजल और सतही जल के अतिदोहन से मालवा की सारी पारिस्थितिकी गड़बड़ा गई।

मालवा में वर्षा जल के दोहन पर प्रतिबंध के कारण ऊपर वर्णित समस्याएं तो उत्पन्न हुई ही हैं, साथ ही गांधीसागर बांध में पर्याप्त मात्रा में पानी पहुंचाने का लक्ष्य भी पूरा नहीं हो पाया है। गांधी सागर में पानी संग्रहण्ा की क्षमता 6.28 एम.ए.एफ. है, परन्तु अगर पिछले वर्षों में इसमें पानी आवक के आंकड़ों पर दृष्टि डालें तो पाते हैं कि सन 1976-77 से सन 1985-86 के दशक में इसमें पानी की औसत आवक 3.31 एम.ए.एफ. और सन 1993-94 से सन 2002-03 के दशक में 3.28 एम.ए.एफ. रही है। डेम्स, रिवर्स एंड पीपुल के हिमांशु ठक्कर के अनुसार चंबल घाटी योजना के तीनों बांधों में सन 1985-86 से 2009-10 की अवधि में विद्युत उत्पादन करीब 3.86 मेगावाट से गिरकर 1.9 मेगावाट ही रह गया है।
इस तरह गांधी सागर में पानी की आवक सुनिश्चित करने का और उससे निर्धारित मात्रा में बिजली उत्पादन का लक्ष्य भी पूरा नहीं हो सका है। साथ ही इसमें पानी की आवक के स्वरूप में भी परिवर्तन आ गया है। प्रारम्भिक वर्षों में तो जलग्रहण क्षेत्र में 10 इंच वर्षा के बाद ही गांधी सागर में आवक शु डिग्री हो जाती थी, अब इसमें 20-22 इंच वर्षा के बाद ही पानी आना शु डिग्री होता है। जल ग्रहण क्षेत्र की प्रारम्भिक वर्षा तो इस क्षेत्र की सूखी मिट्टी द्वारा सोखने और खाली हो चुके नदी नालों को भरने में ही प्रयुक्त हो जाती है। गांधीसागर में पानी की आवक चंबल में बाढ़ों के माध्यम से ही अधिक होती है।

सन 1961 से 1980 की 20 वर्षीय अवधि में चंबल में आने वाली बाढ़ों का औसत 3.15 प्रति वर्ष रहा जो 1981 से सन 2000 की 20 वर्षीय अवधि में बढ़कर 4.15 प्रति वर्ष हो गया। स्वाभाविक रूप से, बाढ़ों की संख्या में वृद्धि के साथ-साथ उनके साथ बहकर आने वाली मिट्टी की मात्रा में भी वृद्धि हुई होगी और इसी वजह से गांधीसागर की जल भरण क्षमता कम होती जा रही है।
चंबल घाटी विकास योजना के बारे में मध्यप्रदेश और राजस्थान के बीच हुए समझौते में चंबल के जलग्रहण क्षेत्र में वर्षा के पानी के संग्रहण पर लगाई रोक के अनेक प्रतिकूल प्रभाव बढ़ते जा रहे हैं। इसके अलावा, गांधीसागर में भी पानी की आवक अपेक्षा से कम हुई है और चंबल घाटी योजना के माध्यम से उत्पादित होने वाली बिजली भी आधी ही रह गई है।
ऐसे में एक प्रश्न उठता है कि क्या कोई ऐसा तरीका भी है जिसके माध्यम से चंबल के जलग्रहण क्षेत्र में वर्षा के पानी के दोहन पर रोक को समाप्त किया जा सके ताकि मालवा पुन: हरा-भरा हो सके, इसमें डग-डग पर इसके नदी नालों में वर्ष भर पानी बहा करे और गांधी सागर में पानी की आवक पर कोई प्रतिकूल प्रभाव भी नहीं पड़े?
इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए हमें थोड़े समय के लिए राजस्थान और मध्यप्रदेश के समझौते के उस अंश पर पुनर्विचार करना होगा कि गांधीसागर में वर्षा के पानी की आवक बनाए रखने के लिए चंबल के जलग्रहण क्षेत्र में वर्षा के पानी के संग्रहण हेतु किसी संरचना (तालाब आदि) का निर्माण नहीं किया जावेगा। यह भी समझना होगा कि पोखरों, रोक बांधों तथा जोहड़ों का निर्माण होने दिया जाए तो संभावित परिणाम क्या होंगे। उनके संभावित प्रभावों के अनुमान के लिए हमें देखना होगा कि जयपुर स्थित तरुण भारत संघ द्वारा अलवर ज़िले की थानागाझी तहसील में जन सहयोग से वर्षा के जल के संचयन हेतु बनाए गए तालाबों, पोखरों, जोहड़ोंे, रोक बांधों आदि संरचनाओं के निर्माण के क्या प्रभाव रहे हैं। उससे पूर्व अलवर के राजा द्वारा वनों पर जनता के अधिकारों को छीनकर अपने अधिकार में लेने के पश्चात् सन 1930 में उस समय निर्माण की जा रही रेलों की पटरियां बिछाने के लिए लकड़ी की आपूर्ति हेतु सारे जंगलों को काट दिया। जिससे वर्षा का पानी तेज़ी से बहकर नदियों में जाने लगा। वनों के विनाश के साथ ही मिट्टी में जैविक अंशों की कमी से उसकी वर्षा के पानी को धारण करने की क्षमता भी कम हो गई। जिस तरह चंबल के पानी के दोहन हेतु गांधीसागर बांध बनाया गया, उसी तरह क्षेत्र में बहने वाली नदी अरवारी नदी पर भी बांध बनाया गया, परन्तु गांधीसागर की तरह वह भी अधिकांश वर्षों में खाली रहता था, प्रतिकूल पारिस्थितिकी प्रभावों के कारण उस क्षेत्र में खेती भी कम होती जा रही थी, लोग रोज़गार हेतु दिल्ली, जयपुर आदि की ओर पलायन कर रहे थे। अर्थात मालवा की तुलना में थानागाझी तहसील और अरवारी नदी के जलग्रहण क्षेत्र के लोग वर्षा के पानी के दोहन पर प्रतिबंध के कारण अपेक्षाकृत अधिक प्रतिकूल प्रभावों के शिकार हो रहे थे।

इसी पृष्ठभूमि में तरुण भारत संघ ने थानागाझी तहसील के एक ग्राम गोपालपुरा के मांगूलाल पटेल की सलाह पर उस क्षेत्र में तालाब, पोखर, जोहड़, रोक बांध आदि बनाए। ऐसी संरचनाओं की संख्या करीब तीन हज़ार थी। राजस्थान के जल संसाधन विभाग ने यह कहते हुए कि इससे अरवारी नदी पर बने बांध में पानी की आवक पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा, इन संरचनाओं के निर्माण का विरोध किया, किन्तु क्षेत्र में तालाब, पोखर आदि संरचनाओं का निर्माण तो एक जन आन्दोलन का अंग था, अत: सरकार उनके निर्माण को रोकने में असमर्थ रही तरुण भारत संघ के नेतृत्व में क्षेत्र के 650 ग्रामों के निवासियों ने कुल 3000 संरचनाओं का निर्माण किया। यह सारा कार्य किसी इंजीनियर की सलाह के बगैर स्थानीय निवासियों के परम्परागत ज्ञान पर आधारित था। परिणाम यह हुआ कि कुछ ही समय बाद क्षेत्र की सूख चुकी 5 नदियों में पुन: वर्ष भर पानी बहने लगा और अरवारी नदी पर बने बांध में भी पर्याप्त पानी आने लगा। अरावली पर्वत के हरे-भरे हो जाने से वर्षा के पानी के धीमी गति से बहने तथा मिट्टी में नमी बढ़ने से वर्ष में दो फसलें लेना और पशुपालन भी आसान हो गया। क्षेत्र में करीब 20 हज़ार कि.ग्रा. प्रतिदिन दूध पैदा होने लगा। पूरे क्षेत्र के किसानों की आर्थिक स्थिति में काफी सुधार हुआ। अरवारी तहसील में वर्षा के जल के दोहन हेतु संरचनाओं के निर्माण के अनुकूल प्रभावों पर पूरे भारत का ही नहीं, पूरे विश्व का ध्यान आकर्षित हुआ। क्षेत्र की जनता और तरुण भारत संघ के राजेन्द्र सिंह को पुरस्कृत करने के लिए उस समय के राष्ट्रपति के.आर. नारायणन स्वयं क्षेत्र के ग्राम हमीरपुरा में पधारे। इस कार्य के लिए उन्हें डाउन टु अर्थ-जोसेफ सी. जॉन पुरस्कार भी दिया गया। विश्व की अन्य संस्थाओं ने भी श्री राजेन्द्र सिंह को पुरस्कृत किया।

चंबल के जलग्रहण क्षेत्र को भी थानागाझी तहसील में वर्षा के जल दोहन हेतु किए गए कार्य को दोहराना होगा। समाज के लोगों को वर्तमान में वर्षा के दोहन पर लगाई रोक के दुष्प्रभावों के प्रति जागरूक तथा क्षेत्र में वर्षा के जल के संचयन हेतु नई संरचनाओं के निर्माण के लिए प्रेरित करना मुश्किल नहीं होगा। सरकार भी इस कार्य में मदद कर सकती है। मालवा के नीमच तहसील के ग्राम बरलाई के किसानों ने वर्षा जल के संचयन हेतु सराहनीय कार्य किया है। ऐसा ही अन्य क्षेत्रों के किसान आसानी से कर सकेंगे। आवश्यकता है तो केवल राजेन्द्र सिंह जैसे व्यक्तित्व की जो इस क्षेत्र को इस दिशा में प्रेरित कर सकें। मालवा में वर्षा जल के दोहन पर प्रतिबंध के 55 वर्षों के प्रतिकूल प्रभावों के बाद अब इस क्षेत्र के पारिस्थितिकीविदों, किसानों और अन्य को इनसे मुक्ति की दिशा में आगे बढ़ना ही होगा। (स्रोत फीचर्स)