श्रीलंका में किए गए प्रयोगों से पता चला है कि यूरिया के साथ एक अन्य पदार्थ का मिश्रण बनाकर उपयोग किया जाए, तो यूरिया धीरे-धीरे विघटित होता है और फसल को नाइट्रोजन सोखने का समय मिल जाता है। इसे स्लो रिलीज़ यूरिया कहते हैं और इसके कई फायदे हो सकते हैं।
दरअसल, यूरिया फसलों को नाइट्रोजन उपलब्ध कराने के लिए डाला जाता है। यह पानी में घुलनशील और वाष्पशील पदार्थ है। मिट्टी में डालते ही इसका विघटन शु डिग्री हो जाता है और जल्दी ही यह या तो पानी के साथ बह जाता है या विघटित होकर हवा में उड़ जाता है। पौधों को समय ही नहीं मिलता कि वे इसे सोख पाएं। एक अनुमान के मुताबिक खेतों में डाला जाने वाला लगभग 70 प्रतिशत यूरिया तो पानी और हवा में चला जाता है।

श्रीलंका इंस्टीट्यूट ऑफ नैनोटेक्नॉलॉजी की शोधकर्ता निलवाला कोट्टेगोड़ा का मत है कि इसकी वजह से एक तो फसलों में ज़्यादा यूरिया डालना पड़ता है और दूसरा यह आसपास की जलराशियों में पहुंचकर वहां प्रदूषण पैदा करता है। इससे निपटने के लिए कोट्टेगोड़ा और उनके साथियों ने यूरिया के साथ एक अन्य पदार्थ हाइड्रॉक्सीएपेटाइट 6:1 के अनुपात में मिलाया। हाइड्रॉक्सीएपेटाइट और यूरिया आपस में जुड़ जाते हैं। इन दो पदार्थों के बीच बने रासायनिक बंधनों की वजह से यूरिया का विघटन धीमी गति से होता है। ऐसा नहीं है कि ये बंधन टूटते ही नहीं - धीरे-धीरे टूटते हैं। इन्हें मिलाने का एक फायदा यह भी है कि हाइड्रॉक्सीएपेटाइट में प्रचुर मात्रा में फॉस्फोरस व कैल्शियम पाए जाते हैं जो पौधों के लिए पोषक तत्व हैं।
जब प्रयोगशाला में शुद्ध यूरिया और हाइड्रॉक्सीएपेटाइट का परीक्षण किया गया तो पता चला कि यूरिया की 99 प्रतिशत नाइट्रोजन मात्र पांच मिनट में मुक्त हो गई जबकि हाइड्रॉक्सीएपेटाइट मिश्रित यूरिया की नाइट्रोजन को मुक्त होने में कई दिन लगे।

इसके बाद शोधकर्ताओं ने इसका परीक्षण धान के खेतों में भी किया। एक हिस्से में कोई उर्वरक नहीं डाला गया था जबकि एक-एक हिस्से में 100 कि.ग्रा. नाइट्रोजन यूरिया के रूप में और 50 कि.ग्रा. मिश्रित पदार्थ के रूप में डाली गई थी। मिश्रित पदार्थ वाले खेत में चावल की फसल शुद्ध यूरिया की अपेक्षा 10 प्रतिशत अधिक रही।
अमेरिकन केमिकल सोसायटी नैनो में प्रकाशित शोध पत्र में शोधकर्ताओं का कहना है कि मिश्रित यूरिया की लागत 20 प्रतिशत अधिक है मगर यह फॉस्फोरस और कैल्शियम भी उपलब्ध कराता है इसलिए अंतत: यह सस्ता पड़ेगा। और प्रदूषण वगैरह से बचाव तो होगा ही। अब कोट्टेगोड़ा और साथी अन्य फसलों पर इसके परीक्षण की तैयारी कर रहे हैं। (स्रोत फीचर्स)