डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन


पूरे विश्व में 17,000 से लेकर 28,000 तक अकादमिक जर्नल मौजूद हैं और इनमें प्रति वर्ष 2.5 लाख लेख प्रकाशित होते हैं। आप इनमें से कितनों तक पहुंच पाएंगे यह इस बात पर निर्भर है कि आप किस स्रोत का उपयोग करते हैं। इनमें से लगभग 15 से 35 प्रतिशत तक पत्रिकाएं अंग्रेज़ी भाषा में नहीं होती हैं। इस सम्बंध में कैम्ब्रिज के तीन शोधकर्ताओं ने घ्ख्र्ग्र्च् बायोलॉजी पत्रिका में एक पर्चा (अंग्रेज़ी में) प्रकाशित किया जिसका शीर्षक है - भाषाएं आज भी वैश्विक विज्ञान के लिए बड़ी बाधाएं हैं।
उन्होंने इस बात की ओर ध्यान दिलाया है कि अंग्रेज़ी के अलावा किसी और भाषा में प्रकाशित शोध पत्र ओझल रह जाते हैं। यह विशेष रूप से प्रासंगिक और चिंताजनक है क्योंकि अन्य भाषाओं में प्रकाशित इन शोध पत्रों में कई बार जैव विविधता, पारिस्थितिकी और सम्बंधित विषयों के बारे में बहुत-सी जानकारी होती है। इनमें से कई पत्रिकाओं को मानक लिंक साइट्स पर कोई जगह नहीं मिल पाती है। आपको ठीक लगे या नहीं, लेकिन वस्तुत: अब अंग्रेज़ी विज्ञान और प्रौद्योगिकी की भाषा बन चुकी है।
ऐसा कैसे हुआ? ऐसा कई ऐतिहासिक घटनाओं से हुआ। एक बड़ा कारण द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान और उसके बाद युरोप व सोवियत संघ से अंग्रेज़ी भाषी देशों की ओर वैज्ञानिकों का पलायन था। दो अंग्रेज़ी भाषी राष्ट्रों - यूके और यूएसए - ने इनका स्वागत किया। दूसरा कारण था, दुनिया के बड़े हिस्से का उपनिवेशीकरण, विशेष रूप से ब्रिटेन द्वारा भारतीय उपमहाद्वीप का उपनिवेशीकरण। स्थानीय आबादी का संपर्क अंग्रेज़ी से करवाया गया/उस पर अंग्रेज़ी थोपी गई/उन्हें अंग्रेज़ी का तोहफा मिला। आप जैसे भी इसे समझें। इसने औपनिवेशक प्रजा को कई वस्तुओं का उपयोग करने की गुंजाइश दी। इनमें से कई लोग अंग्रेज़ी सीखने लगे और उसमें महारत हासिल की। इस प्रकार उन्हें विज्ञान की बड़ी दुनिया में प्रवेश का रास्ता मिला। (इससे उल्टी स्थिति यह रही कि अरबी लोगों ने एक बहुत ही रोचक काम किया था। उन्होंने सैकड़ों वर्षों पहले संस्कृत ग्रंथों का अरबी और फारसी में अनुवाद किया था। एक और रोचक बात है कि दो भारतीय वैज्ञानिकों सत्येन बोस और मेघनाद साहा ने आइंस्टाइन व अन्य वैज्ञानिकों के शोध पत्रों का अपने विद्यार्थियों के लिए जर्मन से (बांग्ला में नहीं) अंग्रेज़ी में अनुवाद किया था।)
मुझे अभी भी याद है कि 1960 के दशक में न्यूयॉर्क स्थित कोलंबिया युनिवर्सिटी के स्नातक विद्यालय में हमें वैज्ञानिक जर्मन, फ्रेंच या रूसी भाषा सीखनी पड़ती थी। और मेरे भाई को जर्मनी में डिग्री लेने से पहले तीन माह तक जर्मन भाषा का कोर्स करना पड़ा था। लेकिन आज यूएस और जर्मनी में भी कई जगहों पर पढ़ाई करने के लिए इस तरह के कोई भी भाषा कोर्स करने की ज़रूरत नहीं है क्योंकि वहां अंग्रेज़ी भाषा का ही इस्तेमाल किया जाता है। दुनिया भर में विज्ञान और टेक्नॉलॉजी की भाषा के रूप में अंग्रेज़ी की ही तूती बोलती है।
अंग्रेज़ी से परे
“क्या अंग्रेज़ी से परे भी कोई विज्ञान है?” यह सवाल डॉ. आर. मेनेजीनी और डॉ. ए.एल. पैकर ने एक दशक पहले ईएमबीओ रिपोर्टस पत्रिका में पूछा था। उन्होंने इस पर्चे की शुरुआत यह बताते हुए की थी कि साहित्य में पिछली 25 नोबेल पुरस्कार विजेता कृतियों में से केवल 9 अंग्रेज़ी भाषा की थीं। बाकी 16 को स्वीडिश नोबेल कमिटी का ध्यान आकर्षित करने के लिए अपने काम के अनुवाद का इंतज़ार करना पड़ा था। (यह भी ध्यान देने योग्य है कि टैगोर को साहित्य में नोबेल तब प्राप्त हुआ था जब उनकी कविताएं अंग्रेज़ी में अनूदित की गई थी।) जैसा कि लेखकों ने अपने नोट में बताया था, अनुवादकों को मूल पाठ का अनुवाद करते समय काफी कठिनाई का सामना करना पड़ता है क्योंकि वह अनुवाद एक अलग भावार्थ, वाक्य विन्यास और कई बार भिन्न सांस्कृतिक संदर्भ वाली भाषा के पाठकों के लिए होता है।
और ऐसा ही विज्ञान के साथ भी होता है। ज्ञान के रत्न और बुद्धिमत्ता, चाहे वह संस्कृत, चायनीज़, स्पैनिश या स्वाहिली में हो, विश्व के वैज्ञानिकों की व्यापक दुनिया में केवल अनुवाद के रूप में उपलब्ध है। हममें से कई लोगों ने  महान भारतीय प्राचीन चिकित्सक चरक के बारे में डॉ. एम.एस. वलियाथन द्वारा किए गए अंग्रेज़ी अनुवादों को पढ़कर ही सीखा है। इसी प्रकार डॉ. के.एस. शुक्ला और के.वी. शर्मा ने पांचवीं शताब्दी के गणितज्ञ और खगोल विज्ञानी आर्यभट की रचनाओं का अनुवाद किया। और हमें कौटिल्य के अर्थशास्त्र के बारे में पता चला जब डॉ. शाम शास्त्री ने 1905-09 में इसे खोजकर अनुवाद किया था। एक हालिया उदाहरण लेते हैं। डॉ. तु यू यू जिन्हें 2015 में चिकित्सा में नोबेल पुरस्कार मिला था, को अपना सुराग जिन होंग के नैदानिक उपचार और आपातकालीन दवाइयों के इस्तेमाल की जानकारी सदियों पुराने चीनी में लिखित ग्रंथ में मिली थी। डॉ. यू के मलेरिया-प्रतिरोधी अणु की पहचान सहित ज़्यादातर पर्चे चीनी भाषा में लिखे गए हैं।

जैव विविधता
यही वह बात है जिसे तीन कैम्ब्रिज लेखक घ्ख्र्ग्र्च् बायोलॉजी पेपर में रेखांकित करते हैं। वे बताते हैं कि कैसे स्थानीय चिकित्सकों द्वारा और स्थानीय भाषा में रिपोर्टेड जैव विविधता, इकॉलॉजी व महत्वपूर्ण वैज्ञानिक जानकारियां और संरक्षण सम्बंधी शोध गुम हो जाते हैं। उदाहरण के रूप में अर्जेंटीना में वेटलैंड इंटरनेशनल एजेंसी ने पिछले 20 सालों में नमभूमि के संरक्षण और प्रबंधन पर 20 से ज़्यादा तकनीकी प्रकाशन निकाले लेकिन केवल दो ही अंग्रेज़ी में उपलब्ध हैं। इस तरह का ज्ञान कार्यकर्ताओं द्वारा पैदा किया जाता है और अक्सर इसे ग्रे साहित्य के रूप में देखा जाता है हालांकि यह प्रमाणों का महत्वपूर्ण हिस्सा है। संरक्षण जीव विज्ञानी इन्हें अनदेखा करते हैं क्योंकि वे अंग्रेज़ी में नहीं हैं। इसे अनदेखा करने का परिणाम यह होता है कि हम बार-बार पहिए का आविष्कार करते रहते हैं। यह बात मनोविज्ञान, समाज शास्त्र और चिकित्सा जैसे अन्य विषयों के बारे में भी सच होगी।
गैर-अंग्रेज़ी प्रकाशनों की गुणवत्ता और दृश्यता बढ़ाने की पहल करने से वैज्ञानिक संचार में भाषा अवरोध को तोड़ने में मदद मिलेगी। दी इकॉनॉमिस्ट पत्रिका के 4 फरवरी के अंक में एक समाधान सुझाया गया है कि कम्प्यूटर और तकनीकी उपकरणों का इस्तेमाल करके मशीनी अनुवाद किया जाए, जो विशेष रूप से चुनिन्दा क्षेत्रों के लिए डिज़ाइन किए गए हों। बिना इस तरह की मान्यता और विज्ञान की व्यापक उपलब्धता के हम निर्धन रहेंगेे। दी इकॉनॉमिस्ट के उपरोक्त लेख के अनुसार स्थानीय भाषाएं सामाजिक तौर पर और घरों में इस्तेमाल की जाएंगी लेकिन गंभीर कामों के लिए नहीं। ये तो शर्म की बात होगी। (स्रोत फीचर्स)