बात बाह्र ग्रहों की है यानी उन ग्रहों की जो हमारे सौर मंडल से बाहर किसी तारे के चक्कर काट रहे हैं। मज़ेदार बात यह है कि तारा चाहे जैसा हो, उसके आसपास ग्रहों की जमावट में एकरूपता होती है।

कनाडा के मॉन्ट्रियल विश्वविद्यालय के लॉरेन वाइस के नेतृत्व में एक दल ने 909बाह्यग्रहों पर गौर किया है। इन ग्रहों की खोज 355 सौर मंडल नुमा जमावटों में केपलर अंतरिक्ष दूरबीन द्वारा की गई है। ऐसा प्रतीत होता है कि किसी भी मंडल में सारे ग्रह लगभग बराबर आकार के होते हैं और अपने तारे के आसपास नियमित अंतराल की कक्षाओं में परिक्रमा करते हैं। किसी भी अन्य ग्रह-मंडल के ग्रहों का आकार अलग होता है।

किंतु तारा तंत्रों की उत्पत्ति के बारे में हम जो कुछ सोचते हैं, उसके परिप्रेक्ष्य में ऐसा होना नहीं चाहिए। फिलहाल हम मानते हैं कि तारों का निर्माण गैस और धूल के बादल से होता है। यह बादल घूमते-घूमते एक मोटी-सी तश्तरी का रूप ले लेता है। इस तश्तरी के अंदरूनी हिस्से में गैस के जो सघन पुंज होते हैं वे ग्रहों के रूप में संघनित हो जाते हैं। इस परिकल्पना के मुताबिक तारे और उसके ग्रहों के आकार के बीच कुछ सम्बंध होना चाहिए।

अब चूंकि ऐसा दिख रहा है कि तारा चाहे जैसा हो, एक ग्रह-मंडल में ग्रहों का आकार लगभग एक जैसा रहता है, तो इसका मतलब है कि तश्तरी से ग्रहों के निर्माण पर किसी और बात का भी असर होता है। हो सकता है कि तश्तरी के कुल द्रव्यमान का असर होता हो, या शुरुआती ग्रहों के बनने के बाद तश्तरी में जो परिवर्तन होते हैं, उनका असर होता हो।
शोधकर्ताओं ने यह भी देखा कि यदि किसी ग्रह-मंडल में ग्रहों का आकार अलग-अलग है, तो अंदर वाला ग्रह छोटा होता है और बाहर वाले ग्रह क्रमश: बड़े होते हैं।

यह संभव है कि ग्रहों का निर्माण करने वाली गैसीय तश्तरी के भौतिक शास्त्र में कोई बात है, जो यह तय करती है कि ग्रह कितने बड़े बनेंगे और तारे से तथा एक-दूसरे से कितनी दूरी पर बनेंगे।
वैसे कुछ खगोल-भौतिक शास्त्रियों का मत है केपलर अंतरिक्ष दूरबीन की अपनी सीमा है और हमारे पास जो आंकड़े हैं वे भी काफी कम हैं। जैसे केपलर दूरबीन सिर्फ उन्हीं ग्रहों को देख पाती है जो इतने बड़े और तारे के इतने निकट हों कि जब तारे के सामने से गुज़रें तो उसके प्रकाश में उल्लेखनीय फर्क पड़े। और केपलर मिशन कुल चार साल चला है। यानी इतने सीमित आंकड़ों के आधार पर सिद्धांत बनाना उचित नहीं है। (स्रोत फीचर्स)