डॉ. विजय कुमार उपाध्याय

आर्सेनिक एक रासायनिक तत्व है जिसे हिन्दी में संखिया कहा जाता है। इसका रासायनिक संकेत ॠद्म है तथा परमाणु संख्या 33 है। इसके अनेक अपररूप (एलोट्रॉप) पाए जाते हैं, परन्तु उद्योगों में धूसर आर्सेनिक का ही उपयोग किया जाता है। प्रकृति में यह तात्विक अवस्था में बहुत कम मिलता है। सामान्य तौर पर यह गंधक या कई धातुओं से युक्त खनिजों के रूप में पाया जाता है।
आर्सेनिक शब्द की उत्पत्ति प्राचीन सीरियाई शब्द ज़ार्निका (Zarniqa) से हुई मानी जाती है। यही शब्द फारसी में ज़ार्निख बन गया जिसका अर्थ है पीला। यह शब्द पीले रंग के खनिज ओर्पिमेंट से सम्बंधित था जो आर्सेनिक का एक प्रमुख खनिज है। यही शब्द यूनानी में आर्सेनिकॉन बन गया। आर्सेनिकॉन शब्द की उत्पत्ति यूनानी शब्द आर्सेनिकॉस से हुई जिसका अर्थ है वीर्यवान पुरुष। यही शब्द लैटिन में आर्सेनिकम और फ्रांसीसी तथा अंग्रेज़ी में आर्सेनिक हुआ।

प्राचीन काल से ही अनेक वैज्ञानिक आर्सेनिक के खनिजों से इसे तात्विक अवस्था में प्राप्त करने का प्रयास करते आए हैं। 300 ईस्वीं के आसपास जोशीमो नामक वैज्ञानिक ने रीअलगार को तपाकर आर्सेनिक का बादल (‘क्लाउड ऑफ आर्सेनिक’) प्राप्त किया जो वस्तुत: आर्सेनिक ट्राइ ऑक्साइड था। फिर इसी को अवकृत कर तात्विक आर्सेनिक प्राप्त किया। खाने-पीने के सामान में आर्सेनिक की उपस्थिति को जांचने के लिए मार्श नामक वैज्ञानिक ने एक जांच विधि विकसित की जिसे ‘मार्श टेस्ट’ कहा जाता है। एक अन्य जांच रैन्श नामक वैज्ञानिक ने विकसित की थी जिसे ‘रैन्श टेस्ट’ कहते हैं। जर्मन वैज्ञानिक अल्बर्टस मैग्नस पहले वैज्ञानिक थे जिन्होंने विशुद्ध आर्सेनिक तत्व को पृथक किया। उन्होंने 1250 में साबुन के साथ आर्सेनिक ट्राइ सल्फाइड को तपाकर आर्सेनिक को अलग किया। सन 1649 में जोहान श्रौडर नामक वैज्ञानिक ने अपना एक शोध पत्र प्रकाशित किया जिसमें आर्सेनिक धातु को प्राप्त करने की विधि बताई गई थी। सन 1760 में लुईस क्लॉड नामक फ्रांसीसी वैज्ञानिक ने पोटेशियम एसीटेट के साथ आर्सेनिक ट्राइ ऑक्साइड की अभिक्रिया से पहली बार ऑर्गेनो मेटलिक कम्पाउंड का निर्माण किया। इस यौगिक को ‘कैडेट्स फ्यूमिंग लिक्विड’ कहा जाता है।

भारत में काफी प्राचीन काल से ही आयुर्वेदज्ञ लोग संखिया (आर्सेनिक) के स्रोत के रूप में हरताल (ओपरमेंट) तथा रीअलगार नामक खनिजों का उपयोग करते आए हैं। युरोपीय देशों में भी इसका उपयोग प्राचीन काल से ही होता आया है। इसके विषैलेपन के कारण प्राचीन काल से ही राजा-महाराजा इसका उपयोग अपने शत्रुओं या विरोधियों की हत्या के लिए किया करते थे। इसी कारण आर्सेनिक को ‘राजाओं का विष’ या ‘विषों का राजा’ कहा जाता था।
इंग्लैंड में विक्टोरिया युग में महिलाएं अपने शरीर का रंग निखारने के लिए सिरका तथा खड़िया के साथ आर्सेनिक ट्राइ ऑक्साइड को मिलाकर सेवन किया करती थीं। सन 1858 में इंग्लैंड के ब्रौडफोर्ड में खाने के सामान में गलती से आर्सेनिक की मिलावट के कारण 20 लोगों की मृत्यु हो गई थी। इस घटना को इतिहास में ‘ब्रौडफोर्ड स्वीट पॉयज़निंग’ कहा जाता है।

धात्विक आर्सेनिक का मुख्य उपयोग सीसे (लेड) के साथ मिश्रधातु के निर्माण में होता है। आर्सेनिक का उपयोग सामान्य तौर पर अद्र्ध चालक इलेक्ट्रॉनिक डिवाइस तथा ऑप्टो इलेक्ट्रॉनिक यौगिक में किया जाता है। गैलियम आर्सेनाइड एक प्रमुख अद्र्ध चालक है। आर्सेनिक तथा इसके यौगिकों, विशेषकर इसके ट्राइ ऑक्साइड का उपयोग कीटनाशकों व खरपतवार नाशकों के निर्माण तथा उपचारित काष्ठ उत्पादों के निर्माण में किया जाता है। कांस्य युग के दौरान प्राय: कांसे में आर्सेनिक मिलाया जाता था। इस विधि से निर्मित मिश्रधातु को ‘आर्सेनिक युक्त कांसा’ कहा जाता था। यह कांसा काफी कठोर एवं मज़बूत होता था जिससे हथियार इत्यादि बनाए जाते थे।

दो प्रकार के आर्सेनिक युक्त रंजकों का बहुत अधिक उपयोग होता आया है। इनमें शामिल हैं पेरिस ग्रीन और शीलेस ग्रीन। जब लोगों को इस रंजक की विषाक्तता का पता चला तो धीरे-धीरे इनका उपयोग रंजक में कम और कीटनाशक के रूप में अधिक होने लगा। 1860 के दशक में रंजक उत्पादन के क्रम में एक प्रमुख आर्सेनिक गौण उत्पाद प्राप्त होता था जिसका नाम था ‘लंदन पर्पल’। उस काल में इसका उपयोग व्यापक स्तर पर किया गया। यह रंजक आर्सेनिक ट्राइ ऑक्साइड, एनीलीन, चूना तथा फेरस ऑक्साइड का पानी में अघुलनशील मिश्रण था। यह सांस या आहार के साथ शरीर के भीतर जाने पर नशा उत्पन्न करता था। कुछ समय बाद इस रंजक का स्थान एक अन्य आर्सेनिक युक्त रंजक ने ले लिया। 1890 के दशक से दो आर्सेनिक युक्त यौगिकों का उपयोग कीटनाशक के रूप में व्यापक स्तर पर किया जाने लगा जिनमें शामिल थे कैल्शियम आर्सेनाइट तथा लेड आर्सनेट। 1942 में डीडीटी की खोज के बाद इन यौगिकों का उपयोग लगभग बंद हो गया।

लकड़ी को नुकसान पहुंचाने वाले कीड़े, बैक्टीरिया तथा फफूंद के लिए आर्सेनिक विषैला साबित हुआ है। इस वजह से इसका उपयोग काष्ठ परिरक्षक के रूप में व्यापक स्तर पर किया जाने लगा। 1950 के दशक में क्रोमेटेड कॉपर आर्सनेट से लकड़ी के उपचारण की विधि की खोज की गई। उसके बाद कई दशकों तक आर्सेनिक का सर्वाधिक उपयोग लकड़ी के उपचारण में ही होता रहा। परन्तु क्रोमेट कॉपर आर्सनेट की अधिक विषाक्तता के कारण युरोपीय संघ के देशों तथा संयुक्त राज्य अमेरिका ने 2004 में उपभोक्ता उत्पादों में इसके उपयोग पर प्रतिबंध लगा दिया।

कीटनाशकों में आर्सेनिक का उपयोग काफी अधिक होता है। फलदार वृक्षों पर छिड़काव किए जाने वाले कीटनाशकों में लेड हाइड्रोजन आर्सनेट का उपयोग किया जाता है। परंतु पाया गया कि इस कीटनाशक का छिड़काव करने वाले लोगों में मस्तिष्क क्षतिग्रस्त होने का खतरा बढ़ जाता है। बीसवीं शताब्दी के उत्तराद्र्ध में मोनोसोडियम मिथाइल आर्सनेट (एमएसएमए) तथा डाइसोडियम मिथाइल आर्सनेट (डीएसएमए) का उपयोग लेड आर्सनेट के स्थान पर किया जाने लगा क्योंकि ये केमिकल कम विषैले थे।

18वीं, 19वीं तथा 20वीं शताब्दी में अनेक आर्सेनिक यौगिक दवाओं के रूप में उपयोग में लाए गए। इनमें प्रमुख थे आर्सफेनामाइन तथा आर्सेनिक ट्राइ ऑक्साइड। आर्सफेनामाइन का उपयोग मुख्य रूप से सिफलिस की चिकित्सा में किया जाता था जबकि आर्सेनिक ट्राइ ऑक्साइड का उपयोग कैंसर तथा सोरायसिस जैसे रोगों में होता है।
प्रकृति में आर्सेनिक जिन रुाोतों में पाया जा सकता है उनमें शामिल हैं ज्वालामुखीय राख, खनिजों का अपक्षय, भूमिगत जल, गर्म झरने तथा विभिन्न प्रकार के खनिज। आर्सेनिक कुछ खाद्य पदार्थों, मिट्टी तथा हवा में भी पाया जाता है। कई शोधों से पता चला है कि आर्सेनिक अनेक प्रकार की वनस्पतियों द्वारा अवशोषित कर लिया जाता है। परन्तु जिन वनस्पतियों द्वारा उसका अधिक अवशोषण होता है उनमें शामिल हैं पत्तेदार सब्ज़ियां, धान, सेब तथा अंगूर। कई समुद्री जंतु भी आर्सेनिक अवशोषित करते हैं। मानव का आर्सेनिक से संपर्क सांस द्वारा ग्रहण की जाने वाली हवा तथा धूल के द्वारा भी हो सकता है।

वर्तमान समय में बांग्लादेश आदि देशों का भूमिगत जल आर्सेनिक प्रदूषण से ग्रस्त है। अनुमान है कि इस क्षेत्र में रहने वाले लगभग साढ़े पांच करोड़ लोग ऐसा भूमिगत जल पीने को बाध्य हैं जिसमें आर्सेनिक की उपस्थिति विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा निर्धारित मात्रा से अधिक है। आर्सेनिक दूषित जल पीने से कैंसर, आर्सेनिकोसिस जैसी कई बीमारियों का खतरा रहता है। इस क्षेत्र के भूमिगत जल में आर्सेनिक वहां की चट्टानों एवं तलछटों से निकल कर जल में मिश्रित हुआ है।

भूपटल में आर्सेनिक की प्रचुरता लगभग 1.5 पीपीएम है। प्रचुरता के दृष्टिकोण से यह भूपर्पटी में 53वां सर्वाधिक पाया जाने वाला तत्व है। पृथ्वी पर पाए जाने वाले इसके प्रमुख खनिजों में शामिल हैं ओर्पिमेंट, रीअलगार, आर्सेनोपाइराइट इत्यादि।
सन 2014 में चीन सबसे बड़ा आर्सेनिक उत्पादक देश था जहां संसार के कुल उत्पादन का लगभग 70 प्रतिशत प्राप्त होता था। आर्सेनिक का उत्पादन करने वाले कुछ अन्य प्रमुख देशों में शामिल हैं मोरक्को, रूस तथा बेल्जियम। (स्रोत फीचर्स)