कैरन हैडॉक
कला को अनय विषयों से फर्क विशय के यप में नहीं देखा जाना चाहिए। इसे सकूली पाठ्यक्रम का एक अभिन्न अंग होना चाहिए. . .
कला और विज्ञान दोनों के ही आधार – जानने की इच्छा, खोजबीन ओर लगातार नए-नए प्रयोग करते रहना है। कला, बचचे की कल्पना और सृजनात्मकता को मौखिक ओर लिखित रूप मे अभिव्यक्त करने की क्षमता को जगा सकती है।
जब भी कोई ककलात्मक चित्र माता-पिता को आकर्षित करता है तो उनकी भी इच्छा होती है कि उनका बच्चा भी वैसा ही चित्रण सीख जाए। या फिर जब वे अपने बच्चे को मज़े से चित्र बनाते या रंगते हुए देखते हैुं तो चाहते हैं कि चित्र बेहतर बने। तो फिर वे क्या करते है? वे शायद कोई ‘टीचर’ खेजते हैं जो उनके बच्चे को चित्र बनाना सिखा दे। या फिर बच्चा सकूल में चल रही कला शिक्षा पर ही निर्भर होता है।
आमतौर पर स्कूलों में यह माना जाता है कि बहुत छोटे बच्चे तो केवल
शिक्षक चित्रों का मूल्यांकन मूलत: इस आधार पर करता है कि रंग कितनी सफाई से भरे गए हैं, रंग रेखाओं के बाहर तो नहीं निकले ओर समान रूप से तो भरे गए हैं। इसी तरह बड़ी कखाओं में छात्रों को शिक्षक द्वारा बनाया गया चित्र दिखाया जाता है और उनसे इसकी नकल उतारने को कहा जाता है। आमतौर पर शुरूआत होती है सेब या आम से (वैसे शुरूआत सेब से होगी कि आम से यह शायद इस बात पर निर्भर करता है कि सकूल हिंदी माध्यम का है या अंग्रेजी माध्यम का)। फिर पेड़, तिकोने पहाड़ों के बीच से झोंकते हुए सूरज और मकान के चित्रों की ओ बढ़ते हैं या फिर नदी और नावें या सूर्यास्त की ओर। चित्र बना रहे छात्रों को लगातार डांटा जाता है और उन्हें चुपचाप बैठे रहने के लिए कहा जाता है (इन धमकियों को जहां तक हो सके वे अनसुना करते हैं)।
यह चित्र बनाते समय बच्चे का कुछ भी नहीं सोचना पड़ा। जैसा कि उसे पढ़ाया गया था उसने पेड़ और मकान के चित्र की नकल उतर दी। इस चित्र में खुद की अभिव्यक्ति की मात्रा लगभग नहीं के बराबर है। इसे कोई बहुत बढि़या चित्र नहीं कहा जा सकता।
छात्रों और शिखकों के बीच बातचीत लगभग ऐसी शिकायतों तक ही सीमित रहती है- ‘बहिनजी, मैं यह नहीं बना सकती, क्या आप मेरे लिए इसे बना देंगी?’ या फिर ‘ऐसे नहीं, इस प्रकार करो’ फिर शिक्षिका छात्र को उसके कागज़ पर बनाकर दिखाती है कि सही चित्र कैसे बनाना चाहिए। और अंत में कई विद्यार्थी कुद हद तक साफ सुथरी नकल तैयार कर पाने में सफल हो जाते हैं।
पर क्या इसे सफलता कहते हैं? बच्चे के चित्रों का मूल्यांकन किस प्रकार होना चाहिए? और स्कूलों में इस तरह के जो कला सिखाने के पाठ बच्चों को दिए जाते हैं उनका अर्थ ओर तुक क्या है?
इस चित्र को बनाते समय बच्चा एक वास्तविक पेड़ को देख रहा था। यह सीख रहा था कि उसे कैसे बनाया जाए। शायद इसकी अनगढ़ता ही इसका आकर्षण हैं।
यहां बच्चों द्वारा बनाए गए दो चित्र दिए गए हैं, उन्हें आप देखिए। इनमें से कौन सा आपको अधिक पसंद है? क्या इनमें से कोई भी चित्र आपको उसकी अद्भुतता का अहसास कराता है या उसे एक बार फिर से देखने की इच्छा जगाता है?
क्या चित्र जीता-जागता है ओर बच्चे के व्यक्तित्व, उसकी रूचियों या संसकृति के बारे में कुछ कहता है? आपको क्या लगता है कि बच्चों के दिमाग में चित्र बनाते समय कैसे विचार उठ रहा होगें? क्या बच्चों को चित्र बनाते हुए मज़ा आया होगा? क्या इस प्रक्रिया के दौरान उन्हेंने कुछ सीखा होगा?
यह तो सपष्ट है कि बच्चों से ऐसे चित्र बनाने की अपेक्षा नहीं होनी चाहिए जो बिल्कुल फोटो के सामान दिखें। इसके लिए तो हमारे पास कैमरा उपलब्ध है। (वैसे कम्प्यूटर द्वारा पैदा विशेष प्रभावों के चलते आज की दुनिया में फोटो भी वास्तविकता दिखाने तक ही सीमित नहीं हैं)। हम यह चाहेंगे कि चित्रों में कुछ नया और अनुठा लिखे- बच्चे की अपनी अभिव्यक्ति, उसके अपने व्यक्तित्व और समुदाय की छाप। चित्र एक सामाजिक या राजनैतिक संदेश दे सकता है, कहानी सुना सकता है, कोई भाव या किसी स्मृति को दर्शा सकता है, भावनाओं को व्यक्त कर सकता है या फिर बीते हुए वक्त की कोई बात सामने ला सकता है। यहां तक कि एक बच्चा जो कि कागज पर मोमिया रंगों को चलाना सीख रहा हो, यह सभी बातें कला के माध्यम से अभिव्यक्त करना भी सीख सकता है।
कई लोग ऐसा समझते हैं कि कला सकूली पाठ्यक्रम का एक फालतू हिस्सा है। वैसे भी कितने छात्र चाहते हैं कि वे कल्पनाशील कलाकर बनें ओर उन्हें इसके लिए मौके भी कितने मिलते हैं? विशेषत: आज, व्यवसायिक पाठयक्रमों की दुनिया में, कला क्या कोई कैरियर है? विज्ञापन जैसी व्यवसायिक कला की तो बात ही फर्क है, लेकिन हम यहां सृजनात्मक कला की बात कर रहे हैं।
वास्तव में यह बेहद ज़रूरी है कि सृजनात्मक कला गतिविधियां, स्कूली शिक्षा का एक अभिन्न अंग हों, क्योंकि ये बच्चे के समग्र विकास में काफी सहायक होती हैं। ऐसी गतिविधियों मे मानसिक कौशलों, शारीरिक दक्षताओं और भावनाओं की अभिव्यक्ति का समन्वय होता है।
कला को अन्य विषयों से फर्क विषय के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए। इसे स्कूली पाठ्यक्रम का एक अभिन्न अंग होना चाहिए। वैसे देखें तो वास्तव में कला एक विषय नहीं है, बल्कि सृजनात्मक रूप से काम करने का ढंग है। इस रूप में कला और विज्ञान मे कई समानताएं हैं। विज्ञान दुनिया को देखने और समझने का एक नज़रिया है। कला और विज्ञान दोनों के ही आधार जानने की इच्छा, खोजबीन और लगातार नए-नए प्रयोग करते रहना है। कला, बच्चे की कल्पना और सृजनात्मकता को मौखिक और लिखित रूप में अभिव्यक्त करने की क्षमता को जगा सकती है। एक चित्र, नई कविता या कहानी की प्रेरणा बन सकता है। या एक कहानी, चि9 बनाने के लिए प्रेरित कर सकती है।
बच्चों को जब कोरे कागज़ पर चित्र बनाने के लिए कहा जाए तो वे समझ नहीं पाते कि क्या करें। यदि उनहें यह कहा जाए कि माता-पिता द्वारा सुनाई गई कहानी के बारे में चित्र बनाएं तो वे ऐसा करने के लिए जल्द ही प्रेरित हो जाते हैं। हमारे बच्चों के पहले-पहले चित्र उन फूलों के क्यों हो, जिन्हें उन्होंने कभी देखा ही नहीं है? यदि उन्हें घर का चित्र बनाना है तो, वह ऐसा घर क्यों हो जो उन्होंने कभी नहीं देखा? क्या यह बात अधिक मायने नहीं रखती कि बच्चे वही चित्रित रकें जो उनके अपने जीवन में महत्वपूर्ण है?
यह अपेक्षा कतई नहीं होनी चाहिए कि बच्चे बड़ों की तरह चित्र बनाएं- उनकी अभिव्यक्ति ऐसी होनी चाहिए जैसे वे हैं- यानी बच्चे, न कि वयस्क। मैं तो 6 वर्षीय बच्चे के मेज़ के चित्रण में एक जीती-जागती मेज़ देखना चाहूंगी, जिसकी चारो टोगे भिन्न-भिन्न दिखाओं में हों न कि ध्यानपूर्वक बनाई हुई सही ‘मेज़ लगने वाली मेज़।‘
अपने सोचने और पढ़ाने के तरीकों को बदल पाना तो मुश्किल है पर कुछ सरल सुझावों को मानने से बच्चों की कला सीखने की प्रक्रिया में काफी प्रगति हो सकती है।
कला सीखने वाले बच्चों के लिए महत्वपूर्ण शिक्षा है 5 नकल मत करों। इतना ज़रूर है कि शिक्षक समय-समय पर कला के कुछ उदारहण दिखा सकते हैं, लेकिन बच्चों द्वारा चित्र बनाना शुरू करने से पहले ही इन्हें हटा दिया जाना चाहिए। समय-समय पर कोई वास्तविक वस्तु जैसे कि कोई खिलौना, किसी भी फल का टुकड़ा, कोई घर या व्यक्ति आदि दिखाकर चित्र बनाने को कहा जा सकता है। (लेकिन वस्तु का चित्र दिखाकर उसकी नकल करने को हरगिज नहीं कहा जाना चाहिए।) यह बच्चों की सृजनात्मकता को बढ़ावा देगा ओर अपने तरीके से उन्हें दर्शा पाने के तरीके खोजने के लिए प्रेरित करेगा।
बच्चों को लगातार याद दिलाते रहना चाहिए कि वे नकल न करे बल्कि ऐसे चित्र बनाएं जो नए हों और भिन्न-भिन्न हों।
एक मशविरा शिक्षकों के लिए: जो चित्र बच्चे बना रहे है उन्हें खुद पूरा नहीं करें। बच्चे अगर आग्रह करें तो भी मना कर दें – हमेशा अगर बच्चे करें कि वे चित्र बनाना नहीं जानते तो उन्हें यह देखने में मदद करें कि कोई वस्तु कैसी दिखती है और उनहें वैसी ही बनाने को कहें। उदाहरण के लिए किसी व्यक्ति को दिखाते हुए कह सकते हैं कि, ‘’उसके बालों को देखो। क्या ये सीधे हैं या इस ओर या उस ओर ढलग रहे हैं? देखो कान के ऊपर से लट किस तरह से जा रही है, मुझे बनाकर दिखाओं।‘’ या, ‘’आंख कहां है? अंगूठे के ऊपर है या एक ओर? क्या तुम हाथ की पांचो अंगुलियां देख सकते हो?’’
बच्चों को छूट दें ताकि वे अपने आप ही अभिव्यक्त कर पाएं, जिसमें उन्हें मज़ा आएगा और वे चित्र बिना ‘बताए’ या ‘सिखाए’ बना पाएंगे।
सीखने के कदम : 1. कागज़ पर बच्चे की पहली घिचपिच. 2. उसके चित्रों में अब घुमावदार गतियां दिखने लगी हैं।
एक सुझाव माता पिता के लिए : अपने बच्चों का बहुत सी कला-सामग्री दीजिए और उन्हें इच्छानुसार इसका इस्तेमाल करने दीजिए। रंग भरने वाली किताबों को दूर ही रखें। क्शेंकि ये सृजनात्मकता को बढ़ावा नहीं देतीं। कोई ज़रूरी नहीं कि कला-सामग्री, महंगी, चमक-दमक वाली या भड़कीली हो। बल्कि छोटे बच्चों के लिए तो सस्ती और पर्याप्त रूप में उपलब्ध सामग्री, महंगी और थोड़ी सी सामग्री से कहीं अधिक अच्छी है। ऑफिस या घर में इस्तेमाल हुए कागज़ जिनमें कुछ जगह बची हो, संभाल कर रखें। तक कि पुराने अखबारों पर भी चित्र बनाए जा सकते हैं। डेढ़ से दो वर्ष की उम्र के बच्चों को गोदने में रूचि होने लगती है। उन्हें मोमी रंग दें। उन्हें प्रोत्साहन दीजिए पर निर्देश देने की कोशिश न करें।
वे स्वयं ही अपने लिए उत्तम शिक्षक हैं। शुरूआत में उनके चित्र कुद ऐसे – बैसे ही लगेंगे पर, उनकी प्रगति पर ध्यान दें कि कैसे बच्चा कागज़ पर बेतरतीब, अनियंत्रित, घिच-पिच से शुरू होकर गहरी ऊंची-नीची लकीर बनाता हैं; फिर घुमावदार वक्रों से पूरे गोले बनाने लगता है।
कुछ माता-पिताओं ने यह पाया है कि घर की दीवारों ने यह पाया है कि घर की दीवारों पर अखबार के पन्ने या बड़े-बड़े कागज़ चिपका देने से बच्चों को अपनी अभीव्यक्ति के लिए जगह भी मिल जाती है, और दीवारे भी सुरक्षित रहती हैं। दो साल की उम्र में बच्चे सुरक्षित एंग से कैंची (जो तेज़ धार वाली न हो) का इस्तेमाल सीख जाते हैं।
अगले कदम: बच्चा अब गोल, घुमावदार गोले बना पा रहा है; 4. गोले, रेखाएं, उतार-चढ़ाव व बिन्दुओं का मिला-जुला उपयोग जो चीजों के उसके अपने प्रतीक चिन्ह हैं; 5. अब उसने चित्रों की सहायता से किसी कहानी को कहना शुय कर दिया है। चित्र में बिना शरीर के चेहरे दिखने लगे; 6. हाथ और पैर सीधे चेहरे से निकलना शुरू हो रहे हैं, बिना धड़ के; 7. साफ-साफ समझ आ रहे चेहरा, धड़, हाथ और पैर चित्र में दिख रहे हैं।
स्वाभाविक है कि घर को बुरी तरह कटने और रंगने से बचाने के लिए कुछ अनुशासन ज़रूरी है। अच्छा होगा कि जल्दी ही उन्हें यह समझा दिया जाए कि कुछ जीज़ों जैसे किताबों पर निशान लगाना, उन्हें मोड़ना या काटना नहीं करना चाहिए। (विभिन्न मौकों पर स्पष्ट और गंभीर स्वर में कही गई बात, एक थप्पड़ से ज़्यादा असरदार होती है)। जब तक बचचे गोले बनाने और प्रतीकात्मक चिह्न बनाना शुरू नहीं कर देते तब तक उन्हें चित्र बनाने के लिए निर्देश देने या मार्गदर्शन करने का कोई औचित्य नहीं है। वे बड़ी सहजता से अपने चिह्नों को इंसानों और चीजों के प्रतीक के रूप में इस्तेमाल करने लगेंगे। इस दौरान बच्चे चित्र बनाते हुए कहानियां सुनाना और बातचीत करना भी शुरू कर देंगे।
आपका शुरूआती मार्गदर्शन इसी तरह का हो सकता है कि आप उन्हें प्रोत्साहित करें, उनसे ऐसे सवाल करें जो उन्हें अपने काम के बारे में सोचने का मौका दें, अपने प्रतीकों के बारे में आपको समण सकें।
शायद कला के संदर्भ में सबसे उपयोगी मार्गदर्शन होता है- मार्गदर्शन न करें। बच्चों को जैसे वे चाहें वैसे चित्र बनाने दें। जिस दिशा में वो जा रहें हो उस तरफ जाने के लिए प्रोत्साहित करें।
बच्चे की कल्पनाशील चित्रकारी का एक उदाहरण
कैरन हैडॉक: स्वतंत्र चित्रकार, चंडीगढ़ के एक सकूल में अध्यापक, बायोजिफजि़क्स में डॉक्टरेट।
अनुवाद: प्रीति जोशी: लेडी इरविन कॉलेज, दिलली के डिपार्टमेंट ऑफ चाइल्ड डिवेलपमेंट में व्याख्याता।