किशोर पंवार
कुछ जीव तीखे रंगों वाले तो कुछ ऐसे कि अगर पेड़, पत्तों, पत्थर आदि पर बैठ जाएं तो ढूंढ पाना मुश्किल हो जाए। दिखने में दो विराधाभासी दिखाएं परन्तु मंजि़ल एक ही- शिकारी से बचाव।
विकास (Evolution)की लगातार चलती प्रक्रिया में शिकार होने से बचने के लिए विभिन्न जंतुओं में अलग-अलग तरह की क्षमताएं विकसित हुई हैं। जैसे कि कुछ जंतुओं का रंग अपने आसपास के वातावरण से इतना मिलता जुलता है कि उन्हें खोज पाना लगभग मुश्किल होता है। इसी तरह कुछ जंतुओं में अपनेआसपास के वातावरण के हिसाब से रंग बदलने की क्षमता होती है। कुछ जंतु तो इससे भी आगे होते हैं कि रंग की बजाए अपने आसपास मौजूद किसी जीवन-हीन पदार्थ जैसे लकड़ी, पत्थर आदि के समान दिखते हैं। यानी ऐसी क्षमताएं कि शिकारी उन्हें देख नहीं पाए या फिर देखकर धोखा खा जाए।
लेकिन इन्हीं क्षमताओं के बीच कुछ जंतु ऐसे भी हैं जो आसपास के वातावरण के रंगों से बिल्कुल उलट बहुत ही भड़कीले रंग वाले होते हैं। इतने रंगीन कि शिकारी उन्हें दूर से ही पहचान सकता है। ऐसा विरोधाभास क्यों? लेकिन देखें तो यही विरोधाभास ही इनका सुरक्षा कवच है। दरअसल इनमें से अधिकतर तो इतने बेस्वाद होते हैं, दुर्गन्ध वाले होते हैं, ज़हरीले होते हैं, या छूने पर डंक मारते हैं या फिर कोई ज़हरीला पदार्थ फेंकते या छोड़ते हैं कि एक दो मुलाकातों के बाद शिकारी पक्षी उन्हें दूर से ही पहचान कर छोड़ देता है।
छद्मवेशः कोस्टारिका में पाए जाने वाले एक मोथ (Moth) का छद्मवेश। इसके पंखों का रंग कुछ इस तरह है कि देखो तो लगता है कि मानो कोई पत्ती गिरी पड़ी हो। ये छद्मवेश कितना सफल होगा यह इस बात पर निर्भर करता है कि दिन के समय यह अपने रंग के हिसाब से कितना अनुकूल स्थान ढूंढ पाता है, जबकि शिकारी चिड़ियां भोजन की तलाश में निकलती हैं।
रंग से जुड़ी चेतावनी
दरअसल ऐसे रंगीले जंतुओं से एक दो मुलाकातों के बाद शिकारी इनके ‘दुर्गुणों से वाकिफ हो जाता है ओर तीखे रंगों की वजह से उनहें पहचान कर दूर जाना ही ठीक समझता है। कई बार तो मुलाकात इतनी अप्रिय होती है कि शिकारी इन जंतुओं से मिलते-जुलते पैटर्नो वाले जंतुओं से भी दूर ही रहते हैं। विज्ञान की भाष में इसे ‘चेतावनी देने वाला रंगीन वेश’ कहा जाता है।
जंतुओं के इस तरह के व्यवहार को समझने के लिए वैज्ञानिक जी.डी. एच. कारपेन्टर ने एक प्रयोग किया। उन्होंने कीट खाने वाले एक बंदर को खाने में 200 तरह के कीट परोसे। बंदर ने 83 प्रतिशत तो ऐसे कीटों को खाया जो छद्मवेशी रंगों के थे और भड़कीले रंग वाले (चेतावनी देने वाले) सिर्फ 16 प्रतिशत कीटों को। जबकि भड़कीले रंगों वाले कई जीव तो ऐसी प्रजातियों (Species) से संबंधित थे जिन्हें बंदर ने पहले कभी
देखा ही नहीं था। इसको देखकर यह समझ में आता है कि रंगीन खतरों से जुड़ी सीख पूरी तरह केवल पूर्व अनुभवों पर आधारित नहीं होती। ऐसा लगता ळ कि वे शिकारी जीव जिनके पास चमकदार रंगों से बचने की अनुवांशिक क्षमता होती है लाभ में रहे हैं, बनिस्बत उन शिकारी जंतुओं के जो जीवों के पीछे भाग-भाग कर पहचानना सीखते हैं कि ये अक्षाद्य हैं।
लेकिन चेतावनी देने वाले रंगीन वेश का फायदा बिल्कुल इन्हीं से मिलते-जलते जीवों को भी मिल जाता है जो न तो बेस्वादु होते हैं न ही ज़हरीले; जैसे कि मोनार्क तितली जैसा दिखने का फायदा वाइसरॉय तितली को। मोनार्क के पंख चमकदार नारंगी- काले होते हैं। वैज्ञानिक इन रंगों को चेतावनी देने वाले रंगों की श्रेणी में रखते हैं। वाइसरॉय रंगों के मामले में बिल्कुल मोनार्क के समान दिखती है।
ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिक जेन ब्रॉअर ने इस पहलू को जांचने के लि कुछ प्रयोग किए। पहले प्रयोग में उन्होंने ‘ब्लू जे’ नाम के कुछ पक्षियों को ‘वाइसरॉय’ तितली दी। पक्षी ने इन्हें बड़े मज़े से खा लिया। इसकेबाद उन्होंने ‘ब्लू जे’ को ‘मोनार्क’ तितली दी। यह अपने शरीर में मौजूद एक ज़हरीले पदार्थ के कारण बहुत बेसवादु होती है। ‘ब्लू जे’ ने ‘मोनार्क’ को खाने के तुरंत बाद उल्दी कर दी। और एक दो बार के ऐसे ही अनुभवों के बाद तो उसने मोनार्क को खाने से ही इंकार कर दिया। अब दुबारा उन्हें वाइसरॉय परोसी गई। लेकिन उन्होंने इसे नहीं खाया, जबकि पहले इसी को उन्होंने बड़े मज़े से खाया था।
लेकिन रंगीन चेतावनी वाले वेश केबाद भी क्या ये जीव पूरी तरह शिकारियों से बच पाते हैं?
जैसे कि मोनार्क को ही देखें तो सभी तितलियों में समान मात्रा में ज़हर नहीं होता बल्कि कुछ में कम ओर कुछ में बिल्कुल भी नहीं (देखें बॉक्स)।
तो शायद मेक्सिको के कुछ पक्षियों ने इस अंतर को जान लिया है। इसीलिए वे ऐसी तितलियों को चोंच मारकर ‘टेस्ट’ कर लेते हैं कि इसमें ज़हर है कि नहीं- अगर ज़हरीली है तो फेंक दिया, नहीं तो खा लिया।
मिल्कवीड और मोनार्क
मिल्कवीड एक ज़हरीला पौधा है। इसमें केलोट्रोपीन नामक एक ‘कार्डियक ग्लायकोसाइड’ होता है जो ज़हरीला होता है। मोनार्क तितली (डेनस प्लेक्सीपस) की अधिकतर मादाएं इस पौधे पर अंडे देती हैं। तितली का लार्वा न सिर्फ इस ज़हर को पचा लेता है बल्कि यह ज़हर उसके शरीर के ऊतकों में जमा हो जाता है, जो व्यसक अवस्था में भी तितली के शरीर में मौजूद होता है। इस तरह मोनार्क तितली पौधे में विकसित सुरक्षा प्रणाली का अपने लिए भी उपयोग कर लेती है। लेकिन विकास की दृष्टि से शायद उसे इसकी कीमत भी चुकानी पड़ती है।स्वाभाविक है कि उसकी अपनी ऊर्जा का कुछ हिस्सा इस ज़हर को इकट्ठा करने और उसे ठीक तरीके से जमाने में खर्च होता है। यदि यह ऊर्जा इस काम पर खर्च न हो तो शायद लार्वा की वृद्धि तेज़ी से होती और वह अधिक तगड़ा व्यस्क बनता।
दूसरी ओर, कुछ मादाएं कम ज़हरीले और ऐसे पौधों पर भी अंउे देती हैं जो बिल्कुल भी ज़हरीले नहीं होते। वैज्ञानिकों का मानना है कि पौधे का चुनाव शायद विकास की पूरी प्रक्रिया से जुड़ा है। जिसमें मादाएं निर्णय शायद इस आधार पर करती हैं कि उनके झुण्ड की दूसरी मादाएं कहां अंडे दे रही हैं। यदि अधिकतर ज़हरीले पौधों पर अंडे दे रही हैं और कुछ ऐसे पौधें पर जिनमें कि ज़हर नहीं है तो निश्चित है कि उनसे जो व्यस्क बनेंगे वे खाने के अयोग्य नहीं होंगे। लेकिन रूप और रंग समान होने की वजह से शिकारी पक्षियों से उनके बचने की संभावना उतनी ही है जितनी कि समूह के दूसरे सदस्यों की।
इसके अलावा वे शायद यह भी करते हैं कि कम ज़हरीली मोनार्क के शरीर के उन हिस्सों को खा लिया जहां ज़हर की जमावट सबसे कम होती है और बाकी सिस्से को फेंक दिया।
इस सबको देखकर कहा जा सकता है कि प्रकृति में सुरक्षा का कोई भी तरीका सौ फीसदी बचाव नहीं करता। लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं कि मारे जाने का मतलब है सुरक्षा का तरीका नाकाम हो गया- बल्कि यूं कहना चाहिए कि इनकी वजह से जि़ंदा रहने की संभावना बढ़ जाती है।
क्या यह भी वजह?
यहां मोनार्क तितलियों की एक ओर विशेषता पर गौर करना भी प्रासंगिक होगा। संदर्भ के 12 वें अंक में प्रवास के बारे में लिखे गए लेख में अरविंद गुप्ते ने मोनार्क तितलियों का जि़क्र किया था। तभी से मुझे मोनार्क ओर मिल्कवीड के संबंध में रूचि हुई। गौर तलब है कि मोनाक्र तितलियां प्रवासी हैं। ये संयुक्त राज्य अमेरिका और कनाडा से उड़कर मेक्सिको पहुंचती हैं, जहां ये मिल्कवीड पर अपने अंडे देती हैं।
इससे ऐसा लगता है कि भोजन व अन्य कारकों के अलावा, शिकारियों से अपनी सुरक्षा का प्रवंध भी शायद इस लम्बे प्रवास के विकास के पीछे एक महत्वपूर्ण कारा रहा हो।
किशोर पंवार: शासकीय महाविद्यालय, सेंधवा में वनस्पति विज्ञान के सहायक प्राध्यापक।