वर्ष 2015 में लायला नाम की ल्यूकेमिया से पीड़ित एक बच्ची का उपचार ऐसी प्रतिरक्षा कोशिकाओं से किया गया था जिनमें जेनेटिक फेरबदल किए गए थे। दूसरे शब्दों में इनमें जीन-संपादन किया गया था। इस उपचार के बाद ल्यूकेमिया के सारे लक्षण गायब हो गए थे। अब जीन संपादन की यह तकनीक इस स्थिति में आ चुकी है कि  2017 के अंत तक कई लोगों की जान बचाई जा सकेगी।
जीन संपादन का मतलब है कि मौजूदा जीन्स में फेरबदल करना या उन्हें निष्क्रिय कर देना। यह करना बहुत मुश्किल रहा है। जीन संपादन की ऐसी विधियां विकसित करने में कई वर्ष लगे थे जिनकी मदद से लायला का जीवन बचाया जा सका। मगर अब क्रिस्पर तकनीक के आविष्कार के बाद यह काम आसानी से किया जा सकता है।

क्रिस्पर तकनीक इतनी कारगर है कि मामला इसके क्लीनिकल परीक्षण के चरण में पहुंच चुका है। चीन में इसका उपयोग पीडी-1 नामक एक जीन को निष्क्रिय बनाने में किया जा रहा है। यह जीन एक कैंसरग्रस्त व्यक्ति की प्रतिरक्षा कोशिकाओं से निकाला गया है। इनके पीडी-1 जीन में फेरबदल करके इन्हें वापिस व्यक्ति के शरीर में पहुंचा दिया जाता है। दरअसल, पीडी-1 जीन प्रतिरक्षा कोशिकाओं की सतह पर एक स्विच की तरह काम करता है और कई कैंसर कोशिकाएं इसी स्विच से जुड़कर उसे बंद कर देती हैं। संपादित कोशिका में ऐसा कोई स्विच नहीं होता जिसे कैंसर कोशिकाएं बंद कर सकें।
यूएस में चल रहे इसी प्रकार के एक परीक्षण का लक्ष्य कहीं अधिक महत्वाकांक्षी है। इसके अंतर्गत प्रतिरक्षा कोशिकाओं में एक अतिरिक्त जीन जोड़ा गया है ताकि प्रतिरक्षा कोशिकाएं कैंसर गठान पर आक्रमण कर सकें। इन नवीन प्रतिरक्षा कोशिकाओं के पीडी-1 जीन को निष्क्रिय कर दिया गया है। ऐसे जीन को जोड़कर ल्यूकेमिया जैसे कई किस्म के कैंसरों के उपचार में मदद मिली है। अभी ठोस गठानों के संदर्भ में सफलता नहीं मिल पाई है। अब माना जा रहा है कि पीडी-1 जीन को निष्क्रिय कर देने से इसमें भी सफलता मिलेगी।
यदि इन दो परीक्षणों से पता चलता है कि कोशिका के जीनोम का संपादन सुरक्षित है, तो जल्दी ही इस तकनीक का उपयोग कई बीमारियों में किया जा सकेगा, ऐसी उम्मीद है। (स्रोत फीचर्स)