भूजल की बात करें तो यह सबसे गहराई पर मिला पानी है। नॉर्थवेस्टर्न विश्वविद्यालय के स्टीन जेकबसन और उनके साथियों द्वारा लिथॉस नामक शोध पत्रिका में प्रकाशित परिणाम बताते हैं कि 1 हज़ार किलोमीटर की गहराई पर यह पानी 9 करोड़ वर्षों पहले जमा हुआ था। इससे पहले जेकबसन ने 300 किलोमीटर की गहराई पर पानी की उपस्थिति के प्रमाण प्रस्तुत किए थे।
हज़ार किलोमीटर गहरे इस पानी की उपस्थिति के प्रमाण एक हीरे में मिले हैं जो कम से कम 9 करोड़ साल पहले एक ज्वालामुखी के लावे के साथ ब्राज़ील में जुइना की साओ लुइज़ नदी के समीप बाहर आया था। इस हीरे में कुछ दोष था। इसी दोष के विश्लेषण से इसकी उत्पत्ति और हज़ार किलोमीटर गहरे समंदर का पता चला।

जेकबसन और उनके साथियों ने हीरे के उक्त दोष का अध्ययन अवरक्त (इंफ्रारेड) सूक्ष्मदर्शी से किया तो पता चला कि इसके अंदर हाइड्रॉक्सिल आयन मौजूद हैं। ये आयन पानी से बनते हैं। ऐसे आयन पूरे हीरे में फैले हुए थे। इससे पता चला कि यह हीरा जिस जगह बना वहां पानी मौजूद रहा होगा।
अब यह पता लगाने की बारी थी कि यह हीरा कितनी गहराई पर बना था। देखा गया कि हीरे के अंदर जो बुलबुले थे वे फेरोपेरिक्लेज़ खनिज से बने हैं जो लौह और मैग्नीशियम ऑक्साइड से बना होता है और अत्यधिक ताप व दाब पर यह क्रोमियम, एल्यूमिनियम व टाइटेनियम जैसी धातुओं को भी सोख लेता है। इन धातुओं के विश्लेषण से पता चला कि यह हीरा जिस ताप और दाब पर बना है वह पृथ्वी में काफी गहराई पर मिलता है - मैंटल के निचले हिस्से में। यह स्पष्ट है कि यदि ये धातुएं हीरे में सन्निहित हैं तो उसके बनने के दौरान ही मिल गई होंगी। और यह भी पता चला कि यह बुलबुला शुरुआत से ही उस हीरे में मौजूद था।

इस सारी खोजबीन का मतलब यह निकला कि जब यह हीरा बना तब इतनी गहराई पर पानी मौजूद था। इससे ज़ाहिर है कि पृथ्वी पर जल चक्र हमारे अनुमान से कहीं अधिक विस्तृत है। यह भी अनुमान लगाया जा रहा है कि पृथ्वी पर महाद्वीपों की उथल-पुथल में भी इस पानी की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। जेकबसन का तो ख्याल है कि इतनी गहराई पर पानी की उपस्थिति से शायद इस बात की व्याख्या हो सके कि क्यों पृथ्वी ही एकमात्र ऐसा ग्रह है जहां ऐसी उथल-पुथल देखी जाती है। (स्रोत फीचर्स)