मनीष वैद्य
बीते कुछ सालों से वैज्ञानिक लगातार बता रहे हैं कि मध्यप्रदेश की नर्मदा घाटी में साढ़े 6 करोड़ साल पहले बड़े-बड़े डायनासौर के रहने के प्रमाण मिल रहे हैं। वे तो कह रहे हैं कि आज से करीब आठ करोड़ साल पहले यहां समुद्र हुआ करता था। बात अविश्वसनीय लगे मगर ठोस प्रमाणों पर आधारित है।
दरअसल उक्त विचार नर्मदा घाटी क्षेत्र में हाल ही में मिले महत्वपूर्ण जीवाश्मों पर टिके हैं। जीवाश्मों की खोज करने वाले वैज्ञानिकों का दावा है कि करीब 8.30 से 8.90 करोड़ साल पहले नदी के अंतिम छोर से लेकर बड़वाह तक यहां समुद्र हिलोरे भरता था। धार, खरगोन, बड़वानी और अलीराजपुर ज़िले के नर्मदा घाटी वाले इलाके में नर्मदा के दोनों ओर समुद्र होने के प्रमाण चट्टानों में फंसे मिलते हैं। ये प्रमाण जगह-जगह बिखरे वे समुद्री जीव हैं जो पत्थर बन चुके हैं।
इन्हीं किनारों पर जिम्नोस्पर्म (नग्नबीजी वनस्पति) के घने जंगलों में 45 फीट तक लंबे कई प्रकार के विशालकाय डायनासौर रहा करते थे। जीवाश्म वैज्ञानिकों ने बीते कुछ महीनों में सैकड़ों की तादाद में डायनासौर तथा शार्क मछलियों के जीवाश्म यहां से इकट्ठा किए हैं।
नर्मदा की सात सहायक नदियों, अलीराजपुर की बाघनी से लेकर मंडलेश्वर की कारम नदी तक की नर्मदा घाटी का अन्वेषण करने वाले वैज्ञानिक विशाल वर्मा बताते हैं कि भारतीय भूभाग पृथ्वी पर कभी उस हिस्से में हुआ करता था जहां फिलहाल ऑस्ट्रेलिया है। यह भूखंड गोंडवाना सुपर महाद्वीप से अलग होकर भीतर से पिघली धरती के लावे पर तैरता हुआ उत्तर-पूर्व की ओर गति करने लगा। फिर मध्य पश्चिमी भारत में एक बड़े फॉल्ट का निर्माण हुआ जो शुरूआती नर्मदा घाटी थी। नर्मदा घाटी में मनावर के पास जो प्रमाण मिले हैं उनके अनुसार वहां सौरोपोड डायनासौर, अबिलोसौराइड डायनासौर और मगरमच्छ भी रहा करते थे। शेष अवशेष फिलहाल नहीं मिल पाए हैं। इनके साथ ही कम ऊंचाई के कुछ जिम्नोस्पर्म वृक्षों के जीवाश्म भी मिले हैं।

भीतरी लावे के प्रवाह की वजह से घाटी के भूखंड का सबसे पश्चिमी भाग समुद्र की तरफ जा सका। इसके साथ ही 8.90 करोड़ साल पहले पश्चिमी समुद्र को घाटी के निचले भागों में पसरने का मौका मिल गया। धार के मनावर के पास का यह समुद्री जीवन और बड़वाह तक के बाकी जीव इस समुद्री अतिक्रमण की चपेट में आ गए, तो कुछ उसके किनारों की ओर पलायन कर गए। इस समुद्र की गाद यहां के चूना पत्थर के रूप में देखी जा सकती है। इन चट्टानों में सैकड़ों तरह के समुद्री जीवों के जीवाश्म मिलते हैं। इनमें सितारा मछली के कई रिश्तेदार, सीप, शंख, केकड़े, मूंगा आदि हैं। इनके साथ ही शार्क मछलियों के जीवाश्म भी मिले हैं। कभी इस समुद्र के किनारों तक डायनासौर का साम्राज्य था इस बात के प्रमाण भी मिले हैं।
लगभग 8.30 करोड़ वर्ष पूर्व यह समुद्र भी लुप्त हुआ। कालांतर में यहां नई वनस्पति पनपने लगी। मीठे पानी की लमेटा चट्टानों का निर्माण होने लगा। जिसके उपयुक्त ठिकानों पर टाईटेनोसौर बड़ी संख्या में अंडे देने आने लगे। ज़मीन-पानी में दब चुके सैकड़ों अंडे अब भी नर्मदा घाटी के इस क्षेत्र से प्राप्त होते हैं। धार ज़िले में 4 अंडास्थलियां खोजी जा चुकी हैं। इनमें से एक को राष्ट्रीय जीवाश्म उद्यान के रूप में विकसित भी किया जा रहा है। इन शाकाहारी डायनासौर के ज़माने के वृक्षों और उस जंगल के सर्वोच्च मांसाहारियों के जीवाश्म भी इस क्षेत्र से प्राप्त हुए हैं। किंतु करीब 6.50 करोड़ वर्ष पूर्व कुछ पर्वताकार उल्का पिंडों के धरती से आ टकराने की वजह से पूरी धरती थरथरा गई।
भूकंपों की श्रृंखलाएं और दरार पड़ती ज़मीन से लावे के फव्वारे पूरी नर्मदा घाटी से भी छूटने लगे। डायनासौर की दुनिया का धीरे-धीरे सफाया हुआ। हमारे स्तनधारी पूर्वज उस युग में छोटे-छोटे छछूंदरों के सदृश्य थे। डायनासौर के खत्म होते ही उन्हें विकसित होने का मौका मिला और आज वे हमारी शक्ल में अपने पूर्वजों के अवशेष खोज रहे हैं।
नर्मदा नदी घाटी में कभी समुद्र होने और उसके किनारों पर विशालकाय डायनासौरों की मौजूदगी हमें चौंकाती है। दरअसल अलीराजपुर, धार और खरगोन ज़िले के करीब 50 वर्ग कि.मी. के नर्मदा घाटी क्षेत्र से बीते 25 सालों में स्थानीय जीवाश्म वैज्ञानिकों तथा ग्रामीण विद्यार्थियों की संस्था मंगल पंचायत ने बड़ी तादाद में डायनासौर के अंडे, घोंेसले, दांत, कंकालों के अलावा शार्क मछली, अन्य समुद्री जीवों और वनस्पतियों के जीवाश्म ढूंढ निकाले हैं। इनमें 35 ऐसे घोंसले भी शामिल हैं, जिनमें डायनासौर अंडे देते थे। इन घोंसलों में दुनिया के कुछ सबसे बड़े आकार के घोंसले भी सम्मिलित हैं।
यहां शाकाहारी सौरोपॉड प्रजाति और मांसाहारी एबिलोसोराइड दोनों ही तरह के डायनासौर के जीवाश्म मिलते हैं लेकिन ज़्यादातर शाकाहारी हैं, जो 20 से 30 फीट ऊंचे हुआ करते थे और रेतीले इलाकों में अंडे देने आया करते थे। इलाके में उस समय के पेड़ों के करीब 70 फीसदी जीवाश्म भी सुरक्षित किए जा चुके हैं।
इन दुर्लभ जीवाश्मों को खोजने वाली संस्था मंगल पंचायत के विशाल वर्मा इनके महत्व के बारे में बताते हैं - महत्वपूर्ण बात यह है कि यहां से इंटर-ट्रेपियन डायनासौर यानी दुनिया के आखरी डायनासौर के जीवाश्म भी मिलते हैं। इस लिहाज़ से यह डायनासौर के जीवाश्मों की दृष्टि से दुनिया की सबसे उम्दा जगह मानी जा रही है। यहां जीव विज्ञान के अध्ययन और लाखों साल पहले के मानव जीवन के विकास सहित डायनासौर के जीवन क्रम को समझने के लिए इन जीवाश्मों का बहुत महत्व है, वहीं इनके अध्ययन से जीव विज्ञान की कई अनसुलझी गुत्थियों को भी सुलझाया जा सकता है।

यह इलाका महत्वपूर्ण जीवाश्म उगल रहा है लेकिन यहां के जंगलों में खुली पड़ी इस विरासत को सहेजने के लिए अभी सरकार ने कोई बड़े जतन नहीं किए हैं। इसी वजह से यह स्थल अंतर्राष्ट्रीय तस्करी का केंद्र बनता जा रहा है। डायनासौर जीवाश्मों के व्यापार में दुनिया के कई देशों के तस्कर सक्रिय हैं और बकायदा अपनी वेबसाइट पर इनकी नुमाइश भी करते हैं।
यहां 0.897 वर्ग कि.मी. क्षेत्र में विकसित किए जा रहे राष्ट्रीय डायनासौर जीवाश्म अभयारण्य के लिए अब केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय की अधिसूचना में धार ज़िले के बाघ कस्बे के पास प्रस्तावित अभयारण्य के लिए अधिसूचना राजपत्र में जारी की गई है। इसके लिए आसपास ढाई सौ मीटर क्षेत्र को पारिस्थितिकी संवेदी क्षेत्र बनाकर इसमें पर्यावरण को प्रभावित करने वाली तमाम गतिविधियों जैसे खनन, पत्थर तोड़ने की मशीनों, लकड़ी काटने वाली आरा मशीनों, जल स्रोतों को नुकसान पहुंचाने वाले उद्योगों, व्यावसायिक निर्माण, बड़ी जल परियोजनाओं या सिंचाई परियोजनाओं सहित अन्य गतिविधियों पर प्रतिबंध लगा दिया गया है। एक निगरानी समिति इस पर सतत निगरानी करेगी। उद्यान के सीमांकन और सुरक्षा तार लगाने का काम पहले ही पूरा कर लिया गया है।
पहाड़ों और नदियों के संरक्षण के लिए इलाके में जैविक खेती, सौर ऊर्जा और बारिश के पानी को सहेजने पर भी ज़ोर दिया जाएगा। यहां तक कि बिजली और टेलीफोन के लिए भी भूमिगत केबल बिछाने की बात कही गई है।
इलाके के पर्यावरणप्रेमी और जीवाश्मों के शोध से जुड़े स्थानीय वैज्ञानिकों की मंगल पंचायत ने इसका स्वागत करते हुए उम्मीद जताई है कि इससे यहां करोड़ों साल पुराने इतिहास के अन्वेषण और उसके आलोक में नए शोध को प्रोत्साहन मिलेगा। (स्रोत फीचर्स)