शराब की लत के इलाज के लिए एक दवा डाईसल्फिरैम का उपयोग बरसों से किया जा रहा है। इसके सेवन से शराब पीने वाले को थोड़ी-सी शराब पीने पर भी बुरा लगता है। अब अध्ययनों से पता चला है कि यह दवा कैंसर के खिलाफ भी कारगर है।
दरअसल, 1970 के दशक में एक मरीज़ का स्तन कैंसर उसकी अस्थि मज्जा में फैल चुका था। वह शराब की लत का भी शिकार हो गई थी, इसलिए डॉक्टरों ने उसे डाईसल्फिरैम देना शुरू किया। बदकिस्मती से, नशे की हालत में वह खिड़की से गिरकर जान से हाथ धो बैठी। बहरहाल, ऑटोप्सी में पता चला कि उसकी अस्थि मज्जा में से कैंसर नदारद था। एक मामले को अपवाद मानकर बात आई-गई हो गई। अलबत्ता, वैज्ञानिकों के बीच यह बात चलती रही कि डाईसल्फिरैम कुछ कैंसरों को रोकने में सक्षम है।

अब डैनमार्क, चेकोस्लोवाकिया और यूएस के एक दल ने इस बात के पुख्ता प्रमाण जुटाए हैं कि वास्तव में डाईसल्फिरैम कैंसर से लड़ने में मददगार है। इस टीम ने 2000 से 2013 की अवधि की डेनमार्क की कैंसर रजिस्ट्री को खंगाला। इसमें कैंसर मरीज़ों के बारे में विस्तृत जानकारी होती है, जिसमें यह भी उल्लेख होता है कि किस मरीज़ को क्या-क्या दवाइयां दी गई थीं। कोपेनहेगन स्थित डेनिश कैंसर सोसायटी रिसर्च सेंटर के कैंसर विशेषज्ञ जिरि बारटेक के नेतृत्व में इस टीम ने 2 लाख 40 हज़ार मरीज़ों के आंकड़ों का विश्लेषण किया। इनमें से 3 हज़ार से ज़्यादा मरीज़ों को डाईसल्फिरैम दी गई थी। इन 3000 मरीज़ों में से जिन 1177 मरीज़ों ने डाईसल्फिरैम लेना जारी रखा, उनमें कैंसर की वजह से मृत्यु दर उन मरीज़ों से 34 प्रतिशत कम रही जिन्होंने इस दवा को लेना बंद कर दिया था। नेचर में प्रकाशित शोध पत्र के मुताबिक डाईसल्फिरैम के फायदे वैसे तो सारे कैंसरों में दिखते हैं किंतु खास तौर से प्रोस्टेट, स्तन व आंतों के कैंसर में नज़र आते हैं।

शोधकर्ताओं ने इस बात की पुष्टि की है कि डाईसल्फिरैम चूहों में स्तन कैंसर की गठान की वृद्धि को धीमा करती है। उन्होंने यह भी पाया कि इस दवा का असर तब ज़्यादा प्रभावी होता है जब इसके साथ तांबे (कॉपर) की पूरक मात्रा दी जाए। इसे देखने के बाद शोधकर्ताओं ने इस औषधि की क्रियाविधि को समझने का भी प्रयास किया। उन्होंने पाया कि जब शरीर में डाईसल्फिरैम का विघटन होता है तो प्रमुख पदार्थ डिटिओकार्ब बनता है। डिटिओकार्ब कॉपर के साथ एक संकुल बना लेता है। यह संकुल उस मशीनरी को ठप कर देता है जो कोशिकाओं के लिए अपने अपशिष्ट पदार्थों तथा अनावश्यक प्रोटीन्स को हटाने का काम करती है। कचरा इकट्टा होता रहता है और अंतत: कोशिका की मृत्यु हो जाती है।

शोधकर्ताओं के लिए आश्चर्य की बात यह रही कि किसी वजह से सामान्य कोशिकाओं में यह मशीनरी ठप नहीं होती जबकि कैंसर कोशिकाओं में हो जाती है। शोधकर्ताओं ने बताया है कि उक्त कॉपर-संकुल कैंसर कोशिकाओं में 10 गुना ज़्यादा मात्रा में पाया गया।
इन परिणामों के आधार पर लगता तो यही है कि डाईसल्फिरैम जल्द ही कैंसर की दवा के रूप में उपलब्ध हो जाएगी किंतु दिक्कत यह है कि अब यह दवा पेटेंट से मुक्त है और इसलिए शायद दवा कंपनियों की कोई रुचि नहीं रहेगी कि वे इसे कैंसर रोधी दवा के रूप में विकसित करें। (स्रोत फीचर्स)