उन्नीसवी शताब्दी के मध्य तक, पृथ्वी का बनना और महाद्वीपों की उत्पत्ति रहस्य ही थे। यह तो 19वीं शताब्दी के आखिरी दशकों का समय था, जब भूविज्ञान और भूगोल के आधुनिक सिद्धांतों के विकास की शुरुआत हुई जिनकी सहायता से ऐसे सुराग मिले जिन्हें जोड़ने पर आज हमारे समक्ष बहुत सारी जानकारियां हैं।
संयुक्त राज्य में प्रचलित सिद्धांत यह था कि पृथ्वी ठंडी होकर सिकुड़ रही है। सिकुड़ने के कारण उस पर सिलवटें पड़ीं जिसके चलते ज़मीन के खंड आपस में टकराए। इन टक्करों की वजह से कुछ जगहों पर पहाड़ बन गए और पहाड़ों से दूर स्थानों पर दरारें और घाटियां बन गर्इं।

इसी समय युरोप के वैज्ञानिक ‘संकुचन’ के विचार से सहमत तो थे, लेकिन यह भी मानते थे कि ऐसी बड़ी-बड़ी हलचलों के कारण तबाही भी हुई होगी। इस विचार के प्रवर्तक विएना विश्व विद्यालय के भूविज्ञान के प्रोफेसर एडवर्ड सुएस (1831-1941) थे। सुएस मॉडल में सुझाया गया था कि संकुचन ऐसे तीव्र नाटकीय परिवर्तन की चालक शक्ति है, और बीच-बीच में स्थिरता के लंबे अंतराल होते हैं। इन्हीं ने पृथ्वी को वह आकार दिया है जैसा कि वर्तमान में नज़र आता है। उनका मत था कि ऑस्ट्रेलिया, भारत और अफ्रीका एक विशाल भूभाग के टुकड़े थे जो कभी दक्षिणी गोलार्ध में हुआ करता था (इस विशाल भूभाग को उन्होंने वर्तमान छत्तीसगढ़ राज्य में गोंड क्षेत्र के आधार पर गोंडवानालैंड कहा था)। इस विशाल भूभाग का अधिकांश हिस्सा ठंडे हो रहे नीचे वाले समुद्र में डूब गया। धरती की बाहरी परतों (पर्पटी) के सिकुड़ने से सिलवटें बनी (पर्वत द्याृंखलाएं और दरारें) और बड़े-बड़े हिस्सों में ठंडक और संकुचन से खाली जगह का निर्माण हुआ जिसने पूर्व में जुड़ी हुई ज़मीनों के बीच महासागर और घाटियों का निर्माण किया (जैसे अटलांटिक के अलावा दक्षिणी गोलार्ध में महासागर)।

अलबत्ता, यह मॉडल ठीक-ठाक जांच के आगे टिक नहीं सका। उदाहरण के लिए, सुएस मॉडल आल्प्स और हिमालय जैसे पर्वतों के निर्माण के लिए ज़रूरी सिकुड़न और सिलवट निर्माण की व्याख्या नहीं कर पाया।

वर्ष 1912 में, जर्मन मौसम विज्ञानी और खगोल शास्त्र में प्रशिक्षित अल्फ्रेड वेगनर ने सुएस सिद्धांत की खामियों को दूर करने का प्रस्ताव रखा। 1910 में, मार्बर्ग विश्व विद्यालय के एक साथी द्वारा दिए गए एटलस के नए संस्करण को देखकर वेगनर चकित रह गए (जैसे कि उनके पहले अन्य लोगों के साथ भी हुआ था)। उनके आश्चर्य का कारण यह था कि उन्होंने ध्यान दिया कि किस तरह से दक्षिण अमेरिका का पूर्वी तट अफ्रीका के पश्चिमी तट में फिट बैठता है। वे चकरा तो गए, किंतु उन्होंने इस विचार को असंभव माना और इसे आगे नहीं बढ़ाया। फिर वर्ष 1911 में ब्रााज़ील और अफ्रीका की चट्टानों में जीवाश्म रिकॉर्ड के बीच जीवाश्म वैज्ञानिक समानता पर चर्चा करने वाली एक रिपोर्ट सामने आई। जीवाश्म विज्ञानियों ने तर्क दिया कि दूर-दूर स्थित ये दोनों भूभाग किसी समय एक ज़मीनी सेतु के माध्यम से जुड़े हुए थे; लेकिन वेगनर ने चीज़ों को अलग तरीके से देखा और 1915 में लिखी गई अपनी पुस्तक डाई एन्स्टेहुंग डेर कॉन्टिनेन्ट उंड ओज़ीएन (यानी महाद्वीपों और समुद्र की उत्पत्ति) में सुझाया कि जीवाश्मों और चट्टानों के बीच समानताएं बताती हैं कि करोड़ों साल पहले ये दो महाद्वीप एक थे। इसके साथ ही वेगनर को संभावित प्रमाण का दूसरा हिस्सा प्राप्त हो गया। आधुनिक तटरेखा और प्राचीन तटरेखा की संगति भी इस सिद्धांत का समर्थन करती है। जहां वर्तमान तटरेखा समुद्र की वर्तमान ऊंचाई पर निर्भर करती है वहीं प्राचीन तटरेखा का पता हमें महाद्वीप के समुद्र में डूबे किनारे से चलता है जिसके आगे अचानक गहराई बढ़ती है।

मार्च 1914 तक, वेगनर का शैक्षिक कार्य समाप्त हुआ और उन्हें एक आरक्षित लेफ्टिनेंट के रूप में पश्चिमी मोर्चे पर नियुक्त किया गया। वहां वे शुरुआती महीनों में दो बार घायल हुए और आगे की सेवाओं के लिए उन्हें अयोग्य पाया गया। स्वस्थ होने के बाद उन्हें सेना के मौसम सेवा विभाग में तैनात किया गया। स्वास्थ्य लाभ के अवकाश के दौरान उन्होंने 94 पृष्ठ की एक प्रसिद्ध पुस्तक (“महाद्वीपों और महासागरों की उत्पत्ति”) का पहला संस्करण लिखा था। उस समय पुस्तक ने बहुत कम प्रभाव डाला।

1924 में वेगनर की किताब का जर्मन से अंग्रेज़ी में अनुवाद किया गया और उसे आलोचना का सामना करना पड़ा जिसकी उम्मीद भी थी। उन्होंने भविष्य के संस्करणों में इन आलोचनाओं को संबोधित किया, और धीरे-धीरे उनके सिद्धांत को अधिकांश संस्थानों में स्वीकृति मिलने लगी।
वेगनर के मॉडल में एक ऐसी धरती की परिकल्पना थी जो परतों की एक द्याृंखला से बनी हुई है, जिसमें पर्पटी से केंद्र तक घनत्व में वृद्धि होती है। उन्होंने देखा कि महाद्वीप और महासागरों के भूतल अलग-अलग हैं तथा पुराने भू-भाग और कुछ नहीं, उभरी हुई हल्की ग्रेनाइट चट्टानें हैं (जिसेे उसके सिलिका-एल्यूमिना संघटन के कारण सियाल कहते हैं)। ये मूलत: घनीभूत बेसाल्ट चट्टानों (सिमा, सिलिका-मैग्नीशियम) पर तैरते हैं। यही सिमा तलछट की एक परत के नीचे समुद्र तल की कठोर चट्टान बनाता है।

उन्होंने कहा कि आज के महाद्वीपीय भूखंडों की मूल रूपरेखा वही है जो एक इकलौते बड़े महाद्वीप (पैंजीया) के टूटने के समय बनी थी। धरती की लगभग सारी ज़मीन लगभग 15 करोड़ वर्ष पूर्व तक इस इकलौते महाद्वीप में सिमटी हुई थी। वेगनर मॉडल की एक बड़ी कमज़ोरी यह थी कि उन्होंने पैंजीया के टूटने का कोई कारण नहीं बताया। वे तो बस केन्द्रापसारी बलों के कारण ‘ध्रुवों से दूर की ओर सरकने’ या कतिपय ज्वारीय प्रभाव से महाद्वीपीय बहाव जैसे अस्पष्ट व भ्रामक विचारों की बात करते रहे।
लेकिन अपने से पूर्व के शोधकर्ताओं से आगे बढ़ते हुए उन्होंने भ्रंश घाटियों (जैसे पूर्वी अफ्रीकी भ्रंश घाटी) के स्थलों की ओर इशारा करके कि ये वे स्थल हैं जहां महाद्वीपों के टूटने की शुरुआत होती है। इससे यह स्पष्ट हुआ कि महाद्वीपों को सरकने को प्रेरित करने वाली प्रक्रियाएं आज भी जारी हैं।

सबसे महत्वपूर्ण बात यह थी कि वेगनर ने अपने विचारों को पृथ्वी के स्थिर आकार पर आधारित रखा था, जिसमें कोई यकायक (या क्रमिक) संकुचन या विस्तार नहीं हो रहा था। मॉडल की सबसे प्रमुख कमज़ोरियों में से एक यह थी कि वेगनर ने समुद्र तल में ‘सिमा’ पर जुताई करके सरकते महाद्वीपों की कल्पना की थी;  जिसे पचाना भूवैज्ञानिकों के लिए कठिन था।
परन्तु वेगनर ने स्पष्ट रूप से उत्तरी और दक्षिण अमरिकी महाद्वीपों के पूर्वी तटों पर या महाद्वीपों के बीच में स्थित हिमालय जैसे पहाड़ों के निर्माण की व्याख्या की थी। उनकी व्याख्या थी कि ऐसे पर्वत महाद्वीपों की टक्कर की वजह से बने हैं।

वेगनर की परिकल्पना के कुछ भाग तो अच्छे थे, लेकिन अभी भी कई उत्तर नहीं मिल पाए थे। ये उत्तर रेडियोधर्मिता का उपयोग करने से मिले। 1920 के दशक में, एक भूविज्ञानी आर्थर होम्स रेडियोधर्मी क्षय के प्रमुख विशेषज्ञ थे और रेडियोधर्मी तकनीकों का उपयोग करके पृथ्वी की उम्र को मापने के प्रयासों में अग्रणी थे। किसी भी अन्य व्यक्ति से अधिक, वास्तव में, होम्स ही “वे व्यक्ति थे जिन्होंनेे पृथ्वी की उम्र को मापा है।”
युरेनियम के रेडियोधर्मी क्षय से अंतत: सीसा (लेड) बनता है। इस प्रक्रिया का समयक्रम एकदम विशिष्ट होता है। अत: किसी चट्टान में युरेनियम और लेड के अनुपात को मापकर उसकी उम्र का पता लगाया जा सकता है।

1930 में, होम्स ने महाद्वीपीय बहाव का अपना सबसे विस्तृत विवरण तैयार किया। इसमें बताया गया था कि रेडियोधर्मी क्षय से उत्पन्न गर्मी के परिणामस्वरूप पृथ्वी के अंदर संवहन धाराएं उत्पन्न होती हैं, जिनकी वजह से पैंजीया महाद्वीप टूटा होगा। पहले चरण में यह दो बड़े-बड़े भूखंडों में विभाजित हुआ था (दक्षिणी गोलार्ध में गोंडवानालैंड, उत्तर में लॉरेसिया)। और फिर ये दो भूखंड कई छोटे-छोटे टुकड़ों में बंटे होंगे और बहकर यहां-वहां पहुंचे होंगे जो आज की पृथ्वी की सतह पर नज़र आते हैं। 1943 में होम्स ने पता लगाया कि धरती पर सबसे पुरानी चट्टानें 4.5 अरब वर्ष पुरानी हैं। इसी वर्ष उन्होंने एक प्रभावशाली पाठ्यपुस्तक, “दी प्रिनसिपल्स ऑफ फिज़िकल जियॉलॉजी” (भौतिक भूगर्भ विज्ञान के सिद्धांत) का प्रकाशन किया। आज भी भूगर्भ शास्त्र के विद्यार्थियों के लिए इस पाठ्यपुस्तक की सिफारिश की जाती है।

द्वितीय विश्व  युद्ध के बाद नए प्रमाण सामने आए। प्रथम किस्म के सबूत पुरा-चुंबकत्व - यानी पुरानी चट्टानों में पाया जाने वाला चुंबकत्व - के अध्ययन से प्राप्त हुए थे। वाल्टर एलास्सर (1904-1991) उन जर्मन वैज्ञानिकों में से थे, जिन्हें एडॉल्फ हिटलर के सत्ता में आने के बाद अमेरिका में शरण लेनी पड़ी थी। 1930 के दशक में उन्होंने यह विचार विकसित किया कि पृथ्वी का चुंबकत्व एक प्राकृतिक आंतरिक डायनमो द्वारा उत्पन्न होता है। 1946 में युद्ध समाप्त होते ही उन्होंने अपने विस्तृत विचारों को प्रकाशित किया। उनके इस विचार को ब्रिाटिश भू-भौतिक शास्त्री एडवर्ड बैलार्ड (1907-1980) ने आगे बढ़ाया। युद्ध के दौरान बैलार्ड ने जहाज़ों को चुंबकीय सुरंगों से बचाने के लिए विचुंबकित करने की तकनीकों पर काम किया था। 1940 के आखिर में, बैलार्ड ने प्रस्ताव दिया कि पृथ्वी का चुंबकीय क्षेत्र उसके केंद्रीय भाग (कोर) में सुचालक द्रव के परिसंचरण से उत्पन्न होता है। इसी बात को आसान शब्दों में यों कह सकते हैं कि पृथ्वी का चुंबकत्व केंद्रीय भाग में पिघले हुए लोहे के घूमने से पैदा होता है। बैलार्ड के कार्य के अलावा, द्वितीय विश्व  युद्ध में इस्तेमाल की गई अमरिकी पनडुब्बियों की बदौलत भी समुद्र के पेंदे की समझ में काफी वृद्धि हुई।

1940 के दशक से पहले, भूगर्भ वैज्ञानिक मानते थे कि समुद्र तल भूपर्पटी का सबसे पुराना हिस्सा है; यहां तक कि महाद्वीपीय बहाव के समर्थक भी यही मानते थे। चूंकि समुद्र के पेंदे को प्राचीन माना जाता था, इसलिए यह भी माना जाता था कि समुद्र तल पर करोड़ों वर्षों में ज़मीन से बह-बहकर आई काफी तलछट जमा हो गई होगी। यह समुद्र के पेंदे में लगभग 5-10 किलोमीटर मोटी परत के रूप में जमा हो गई होगी। चूंकि यह बहकर आई है और अत्यंत प्राचीन है, इसलिए यह माना जाता था कि यह एक सपाट परत होगी। और यह माना गया कि इस तलछट के नीचे पर्पटी होगी, जो महाद्वीपों की पर्पटी की तरह दसियों किलोमीटर से अधिक मोटी होनी चाहिए।

जब समुद्र के तल से नमूने प्राप्त किए गए और सर्वेक्षण किया गया, तो ये सारे विचार गलत निकले। तलछट की परत निहायत पतली है और महाद्वीपों के किनारों से दूर जाएं तो शायद वह भी नहीं होती। समुद्र तल में ज़्यादातर चट्टानें अपेक्षाकृत नवीन हैं, और सबसे कम उम्र की चट्टानें समुद्री रिजों (पहाड़ियों) के बगल में पाई जाती हैं। समुद्री पहाड़ियां दरअसल समुद्र के अंदर सबसे सक्रिय क्षेत्र होते हैं। समुद्र की पर्पटी में दरारें या भ्रंश सक्रिय ज्वालामुखी गतिविधियों के चिंह हैं। भूकंपीय सर्वेक्षण (जो भूकंप और विचलन की निगरानी करते हैं) में पाया गया कि महासागरों में भूपर्पटी की मोटाई केवल 5-7 किलोमीटर है, जबकि महाद्वीपीय पर्पटी औसतन 32 किलोमीटर मोटी है (कहीं-कहीं तो यह 80-110 किलोमीटर मोटी है)।

अंतत: पहेली के टुकड़ों को एक साथ रखने का काम 1960 में प्रिंसटन विश्व विद्यालय के अमरिकी भूगर्भ विज्ञानी हैरी हेस (1906-1919) ने किया। उनके द्वारा प्रस्तुत मॉडल को ‘समुद्र तल के प्रसार’ के नाम से जाना जाता है। इसके अनुसार, समुद्र में उभरी हुई धारियां मैंटल के तरल पदार्थ में चल रही संवहन धाराओं के साथ तरल पदार्थों के ऊपर उठने के कारण निर्मित होती हैं। मैंटल उस भाग को कहते हैं जो ठोस भू-पर्पटी के ठीक नीचे एक गाढ़े तरल के रूप में पाया जाता है। यह अत्यंत गाढ़ा और गर्म तरल होता है जो संवहन के कारण बहुत धीमी गति से बहता है। महासागर के पेंदे में उभरी हुई धारियां ज्वालामुखीय गतिविधि के उस स्थान को दर्शाती हैं जहां यह गर्म तरल पेंदे को फोड़कर सतह पर आ जाता है। फिर यह गाढ़ा तरल पर्वतीय धारी के दोनों ओर फैलता है। इस फैलाव के चलते यह समुद्र के दोनों ओर के महाद्वीपों को एक-दूसरे से दूर धकेलता है। इस प्रक्रिया में सबसे नवीन चट्टानें पर्वतीय धारी के पास ठोस बनती हैं जबकि रिज से दूर वे चट्टानें होती हैं जो करोड़ों वर्ष पूर्व ठोस बन गई थीं। और इस मॉडल में महाद्वीपों को महासागर की पर्पटी में जुताई करने की कोई ज़रूरत नहीं है। और वैसे भी समुद्र तल के सर्वेक्षणों में इसका कोई प्रमाण नहीं मिला है। इस तरह से बन रही नई पर्पटी की वजह से अटलांटिक महासागर प्रति वर्ष लगभग 2 सेंटीमीटर की दर से फैल रहा है। यह होम्स द्वारा अनुमानित गति का लगभग आधा है।

हेस के मॉडल में होम्स के विचारों की झलक ज़रूर मिलती है, लेकिन इनमें एक महत्वपूर्ण अंतर है। जहां होम्स भौतिकी के कुछ मूलभूत नियमों के आधार पर सामान्य बात ही कर पाए थे, वहीं हेस के पास प्रत्यक्ष प्रमाण थे और समुद्र तल में किए गए मापन से प्राप्त आंकड़े थे जिन्हें वे अपनी गणनाओं में शामिल कर पाए थे। होम्स ने अपने मॉडल में बड़े पैमाने पर समुद्र की घाटियों को अनदेखा किया था, एक अच्छे कारण से। हेस के बाद ‘प्रसारशील समुद्र तल’ अवधारणा का उपयोग, यह समझाने के लिए किया जाने लगा कि सागर के पेंदे के नीचे से नई ज़मीन कैसे बनती है और कैसे ये भूभाग दूर-दूर जाते हैं या पास आकर टकराते हैं।

कैंब्रिज विश्वविद्यालय के एक युवा व्याख्याता ड्रमॉण्ड मैथ्यूस और उनके एक स्नातक छात्र फ्रेडरिक वाइन ने भू-चुंबकीय उलटफेर के अध्ययन से प्राप्त प्रमाणों के आधार पर हेस के मॉडल को और परिष्कृत किया। 1960 के दशक की शुरुआत तक पृथ्वी के चुंबकीय इतिहास को लेकर महाद्वीपों से काफी आंकड़े एकत्रित हो चुके थे। इसके अलावा, समुद्र के पेंदे के कुछ हिस्सों के चुंबकत्व के पैटर्न का मानचित्रण प्रसारशील समुद्र तल के मॉडल के आधार पर किया जाने लगा था। ऐसा पहला-पहला विस्तृत सर्वेक्षण उत्तर-पूर्वी प्रशांत महासागर में वैंकूवर द्वीप के निकट जुआन डी फुका रिज नामक भूगर्भीय संरचना के निकट किया गया था।

इस तरह के सर्वेक्षणों से समुद्र तल की चट्टानों में चुंबकत्व का एक पट्टीदार पैटर्न दिखा, और ये पट्टियां कमोबेश उत्तर-दक्षिण दिशा में थी; पता चलता था कि ऐसी एक पट्टी में चुंबकत्व की दिशा वर्तमान चुंबकीय क्षेत्र के अनुरूप है, लेकिन उससे सटी हुई दोनों बाजू की पट्टियों में चुंबकत्व की दिशा इसके विपरीत होती है। इससे संकेत मिला कि समय-समय पर पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र की दिशा पलट जाती है। इसने गहरे सागर में पर्वतीय धारियों के दोनों ओर समान प्रसार के हेस के सिद्धांत का समर्थन किया। 1963 में, हेस ने वाइन और कनाडाई भूभौतिकीविद ट्यूज़ो विल्सन के साथ दुनिया भर से चुंबकीय आंकड़े एकत्रित कर पहले तो अटलांटिक महासागर के लिए एक चुंबकत्व-मानचित्र विकसित किया और फिर धरती की पूरी पर्पटी और समुद्र तल के लिए एक मानचित्र तैयार किया।

विल्सन ने एक नया शब्द प्लेट सुझाया। प्लेट ऐसे कठोर भूभागों को कहा गया जो समुद्र के तल में नई ज़मीन बनने पर एक-दूसरे से अलग-अलग हो जाते हैं। और 1967 में एक नया शब्द आया: प्लेट टेक्टोनिक्स। प्लेट टेक्टोनिक्स के तहत होम्स, हेस, बैलार्ड और विल्सन के विचारों को समाहित करके यह सुझाया गया कि पृथ्वी 6 बड़ी-बड़ी प्लेट्स और एक दर्ज़न छोटी-छोटी प्लेट्स से मिलकर बनी है।
कोई भी प्लेट (जैसे भारतीय प्लेट जिस पर भारतीय उपमहाद्वीप स्थित है) मात्र समुद्री पर्पटी या सिर्फ महाद्वीपीय पर्पटी से बनी हो सकती है या इन दोनों से मिलकर बनी हो सकती है। लेकिन पृथ्वी की सतह पर चलने वाली अधिकांश भूगर्भीय गतिविधियां प्लेटों की सीमाओं पर होती है जहां प्लेट्स एक-दूसरे से रगड़ती हैं।

भू-वैज्ञानिक इन सीमाओं को निम्नलिखित ढंग से वर्गीकृत करते हैं: रचनात्मक सीमा वह क्षेत्र है जहां, जैसा कि हमने देखा था, महासागर रिज पर नई पर्पटी बनती है और दोनों तरफ फैलती है। विनाशकारी सीमा वे क्षेत्र होते हैं जहां एक प्लेट दूसरी के नीचे धंसती है, 45 डिग्री के कोण पर गोता लगाते हुए नीचे जाकर वापिस पिघल कर मैग्मा में बदल जाती है। संरक्षक सीमा वे क्षेत्र हैं जहां पर्पटी न तो बनती है और न ही नष्ट होती है, लेकिन घूमती हुई प्लेट्स एक-दूसरे को बाजू से रगड़ते हुए गति करती हैं। यह प्रक्रिया सैन एड्रियाज़ फॉल्ट में नज़र आती है।

महाद्वीपों के बीचोंबीच प्राचीन पर्वतमालाओं (जैसे अरावली) और पूर्व समुद्र तलों (जैसे मकराना की संगमरमर की खदानों) की उपस्थिति इस बात के प्रमाण हैं कि टेक्टोनिक्स (यानी हरकतें/गतियां) करोड़ों वर्षों से जारी हैं। धरती पर विभिन्न भूखंड कैसे उभरे और उनकी गति के लिए ज़िम्मेदार बलों को लेकर हमारी समझ हाल ही में बनी है। वेगनर ने जब महाद्वीपीय बहाव का अपना मॉडल पेश किया था, उस समय से आज तक हमारी समझ में काफी वृद्धि हुई है। यह सब कई विज्ञानों और वैज्ञानिक औज़ारों के साथ-साथ आने से संभव हो पाया है। वैज्ञानिकों की प्रेरक शक्ति उनकी जिज्ञासा है और जवाब खोजने की इच्छा है। साथ ही साथ उनमें साझा प्रयासों में खुले मन से भाग लेने और विविध प्रमाणों को एक सूत्र में पिरोकर समझ को आगे बढ़ाने की क्षमता है। यह बात सारी महान वैज्ञानिक खोजों पर लागू होती है और शायद भावी वैश्विक समस्याओं को सुलझाने के लिए अनिवार्य साबित होगी। (स्रोत फीचर्स)