डॉ. विजय कुमार उपाध्याय

भारत के समान ही यूनान भी प्राचीन काल में ज्ञान-विज्ञान का एक महान केन्द्र था। इस देश में कई विश्व प्रसिद्ध  दार्शनिकों, वैज्ञानिकों तथा विचारकों का जन्म हुआ। प्राचीन यूनान के विश्व विख्यात वैज्ञानिकों की श्रेणी में पायथागोरस का नाम अग्रणी है। पायथागोरस का जन्म 550 वर्ष ईसा पूर्व सामोस नामक स्थान पर हुआ था। उनका विचार था कि ज्ञान की प्राप्ति घर पर बैठ कर नहीं हो सकती। ज्ञानार्जन हेतु देश-विदेश का भ्रमण आवश्यक है। यही कारण था कि उन्होंने अध्ययन एवं शोध के सिलसिले में कई देशों का भ्रमण किया। कहा जाता है कि एशिया माइनर (काला सागर तथा भूमध्य सागर के बीच का क्षेत्र) से उनका गहरा नाता था।

पायथागोरस के जीवन का सर्वोत्तम काल उस समय शुरू हुआ जब वे 529 वर्ष ईसा पूर्व यूनान छोड़कर दक्षिण इटली में क्रोटोना नामक नगर में आकर बस गए। उनके यूनान छोड़ने का मुख्य कारण वहां के शासक पोलीक्रेट का भीषण अत्याचार था। वह इतना अत्याचारी था कि उसने अपने दो सगे भाइयों को भी मरवा डाला था। उसके अत्याचार से राज्य की जनता त्रस्त थी। पायथागोरस ने ऐसे अत्याचारी राजा के राज्य से दूर रहने में ही भलाई समझी।

पायथागोरस जब क्रोटाना आकर बसे तो उनके जीवन में क्रांतिकारी परिवर्तनों की शुरुआत हुई। यहां उन्होंने धार्मिक भाईचारे को प्रोत्साहन देने तथा नैतिक शिक्षा द्वारा समाज में सुधार लाने के उद्देश्य से एक नए संगठन की स्थापना की जिसका नाम रखा गया ‘पायथागोरियन ब्रादरहुड’। थोड़े समय में ही इस संगठन को बहुत अधिक प्रसिद्धि प्राप्त होने लगी तथा असंख्य लोग इसके सदस्य बनने लगे। इस संगठन में शामिल होने वाले सदस्यों के लिए कुछ नियम तथा सिद्धान्त बनाए गए थे। इन सिद्धान्तों के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को अपनी जाति से ऊपर उठकर अपनी आत्मा को पहचानने का प्रयत्न करना चाहिए। यह आवश्यक माना गया था कि प्रत्येक व्यक्ति गलत कार्यों से दूर रहकर अपनी आत्मा को शुद्ध करने का प्रयास करे। इस संगठन के प्रत्येक सदस्य का यह पुनीत कत्र्तव्य निर्धारित किया गया था कि वह विभिन्न जातियों एवं विभिन्न धर्मावलम्बियों के बीच किसी भी प्रकार की कटुता पैदा न होने दे तथा उनके बीच आपसी भाईचारे तथा धार्मिक सहिष्णुता की भावना पैदा करने तथा अधिक से अधिक विकसित करने का प्रयास करे।

उपरोक्त संगठन की स्थापना के कुछ समय बाद पायथागोरस ने इस संगठन के संचालन का भार अपने कुछ प्रमुख शिष्यों को सौंप दिया तथा वे स्वयं संगठन के सभी कार्य-कलापों से मुक्त हो गए। उसके बाद उन्होंने क्रोटोना छोड़ दिया तथा मेटापोंटम नामक स्थान पर रहने लगे। इसी स्थान पर शांतिपूर्वक जीवन व्यतीत करते हुए उन्होंने कई वैज्ञानिक तथा दार्शनिक सिद्धान्त प्रतिपादित किए।
495 ईसा पूर्व मेटापोंटम में उनका देहांत हो गया। परन्तु उनके द्वारा स्थापित किए गए ‘पायथागोरियन ब्रादरहुड’ नामक संगठन का कार्य मैगनाग्रेसिया नामक स्थान पर उनकी मृत्यु के बाद भी काफी लंबे समय तक चलता रहा।

पायथागोरस का एक सक्रिय तथा कर्मठ शिष्य फिलोलौस था। वह दक्षिणी मिरुा में थिबेस नामक स्थान पर जाकर रहने लगा। यहीं उसने पायथागोरस द्वारा व्यक्त किए गए धार्मिक तथा दार्शनिक विचारों एवं उनके द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्तों को पुस्तक रूप में लिपिबद्ध किया। कुछ समय के बाद फिलोलौस इटली जाकर रहने लगा। इटली में ही ओरेंटम नामक स्थान पर पायथागोरियन दर्शन एवं विज्ञान का अध्ययन केन्द्र खोला गया।

पायथागोरस की प्रतिभा बहु आयामी थी। उन्होंने कई क्षेत्रों में अपनी विद्वत्ता की छाप छोड़ी। एक ओर जहां उन्होंने सामाजिक सुधार से सम्बंधित ‘पायथागोरियन ब्रादरहुड’ संगठन स्थापित किया, वहीं दूसरी ओर, विज्ञान एवं दर्शन के क्षेत्र में भी कई सिद्धान्त प्रतिपादित किए। ध्वनि एवं संगीत के क्षेत्र में भी उन्होंने एक महत्वपूर्ण खोज की तथा इससे सम्बंधित एक उपयोगी सिद्धान्त का प्रतिपादन भी किया। उन्होंने पाया कि ऐसे दो तार, जिनकी लंबाई किसी निश्चित अनुपात में हो, साथ बजाने पर सुर में बजते हैं। उदाहरण के लिए यदि दो तारों की लंबाई का अनुपात 2:1 हो तो  अष्टक सुर उत्पन्न होता है। और यह अनुपात यदि 3:2 हो तो पंचम सुर उत्पन्न होता है।

गणित के क्षेत्र में भी पायथागोरस द्वारा की गई खोजें काफी महत्वपूर्ण थीं। विभिन्न अंकों एवं संख्याओं के लिए उन्होंने कई संकेतों की खोज की। उन्होंने गणित से सम्बंधित कई अन्य रोचक सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया। उन्होंने बताया कि विषम संख्याओं का योग (यदि 1 से प्रारम्भ किया जाए) सदैव एक वर्ग संख्या होती है। जैसे 1अ3 उ 4, 1अ3अ5 उ 9, तथा 1अ3अ5अ7 उ 16 इत्यादि। अंक गणित के अलावा ज्यामिति के क्षेत्र में भी उन्होंने कुछ सिद्धान्त प्रतिपादित किए। उदाहरणार्थ, उन्होंने बताया कि किसी भी समकोण त्रिभुज में आधार के वर्ग तथा लंब के वर्ग का योग कर्ण के वर्ग के बराबर होता है। उन्होंने यह भी साबित किया था कि त्रिभुज के तीनों कोणों का योगफल दो समकोण के बराबर होता है।

अंक गणित और समतल ज्यामिति के अलावा ठोस ज्यामिति के क्षेत्र में भी पायथागोरस का योगदान बहुत ही महत्वपूर्ण रहा। उपलब्ध साक्ष्यों से पता चलता है कि पायथागोरस ने नियमित आकृति वाले पांच ठोस - टेट्राहेड्रन (पिरामिड), क्यूब (घन) ऑक्टाहेड्रन, डोडेकाहेड्रन तथा आइकोसाहेड्रन की निर्माण विधि विकसित की थी। हालांकि पायथागोरस द्वारा अनेक आकृतियों वाले ठोसों के निर्माण की विधि विकसित की गई परन्तु उन्हें सबसे अधिक प्रिय था डोडेकाहेड्रन। पायथागोरस के मतानुसार पेंटागन शरीर का निर्माण करने वाले पांच तत्वों का प्रतिनिधित्व करता है। इसी कारण पायथागोरियन मत मानने वालों द्वारा पेंटागन को धार्मिक चिन्ह के रूप में उपयोग में लाया जाता था। जब पायथागोरियन मतावलम्बी एक-दूसरे से कहीं मिलते थे तो उनका पहचान-चिंह स्टार पेंटागान ही होता था। इस चिंह को वे लोग ‘सेहत (हेल्थ)’ कहा करते थे।

पायथागोरस ने खगोल विज्ञान के क्षेत्र में भी कई सिद्धान्त प्रतिपादित किए। उन्होंने बताया कि पृथ्वी तथा अखिल ब्रह्मांड की आकृति गोल है। उनके मतानुसार सूर्य, चंद्रमा तथा सभी ग्रहों की अपनी-अपनी गतियां हैं। उनकी मान्यता थी कि पृथ्वी ब्राहृाण्ड के केन्द्र में स्थित है तथा अन्य सभी खगोलीय पिण्ड उसका चक्कर लगाते हैं। विभिन्न खगोलीय पिण्डों द्वारा पृथ्वी का चक्कर लगाने की अवधि अलग-अलग है।

प्राचीन भारतीय दार्शनिकों के समान ही पायथागोरस ने आत्मा को अमर माना। उन्होंने बताया कि जब किसी जीव की मृत्यु होती है तो उस जीव की आत्मा उसके शरीर से बाहर निकल कर किसी अन्य जीव का शरीर धारण कर लेती है। उनके सिद्धान्त के अनुसार आत्मा द्वारा शरीर बदले जाने में आवश्यक नहीं है कि फिर वह उसी जाति के जीव का शरीर धारण करे जिस जाति का शरीर उसने छोड़ा है। उदाहरण के लिए, किसी मानव का शरीर छोड़ने वाली आत्मा घोड़े का शरीर धारण कर सकती है। पायथागोरस का सिर्फ आत्मा की अमरता तथा पुनर्जन्म में ही वि·ाास नहीं था अपितु उन्हें मोक्ष में भी पूरा विश्वास था। प्राचीन भारतीय दार्शनिकों के समान पायथागोरस की भी धारणा थी कि पवित्र जीवन व्यतीत करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है। मोक्ष की प्राप्ति हेतु पवित्र जीवन किस प्रकार बिताया जाए इस सम्बंध में पायथागोरस ने कुछ दिशा निर्देश दिए थे। उदाहरणार्थ, प्रत्येक व्यक्ति को प्रतिदिन शाम को अपने आप से कुछ प्रश्न पूछने चाहिए, जैसे --
1. मैं आज कौन-सा अच्छा काम करने में असफल रहा और इस असफलता का कारण क्या था?
2. मैंने आज कौन-कौन-से अच्छे काम किए?
3. मैंने आज ऐसा कौन-सा काम नहीं किया जो मुझे करना चाहिए था?
यदि इन तीनों प्रश्नों के उत्तर आपके विचार से संतोषजनक हों तो समझे कि आप पवित्र जीवन जी रहे हैं।

प्राचीन काल के दौरान रोम एक ऐसा देश था जहां के लोगों को पायथागोरस के सिद्धान्तों पर पूरा विश्वास था। रोम में पायथगोरस द्वारा प्रतिपादित आत्मा के अमरत्व के सिद्धान्त को पहली शताब्दी में काफी अधिक मान्यता प्राप्त हो चुकी थी। दर्शन शास्त्र के एक प्रमुख सिद्धान्त के रूप में पायथागोरस का यह सिद्धान्त आगे चल कर प्लेटो के सिद्धान्त के साथ मिल गया। एक समय था जब रोम एवं यूनान में पायथागोरियन सिद्धान्त सबसे अधिक लोकप्रिय था। सच पूछा जाए तो पायथागोरस द्वारा बताई गई जीवन पद्धति बहुत लम्बे समय तक एक विशिष्ट संस्कृति के रूप में पनपती तथा फलती-फूलती रही। कालांतर में पायथागोरस द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्तों को ही अनेक प्रकार के नए सिद्धान्तों के रूप में विकसित किया गया तथा समाज में उनका प्रचार किया।

पायथागोरस ने ज्ञान-विज्ञान के अनेक क्षेत्रों में अपने ज्ञान तथा विद्वत्ता की छाप छोड़ी। उन्होंने अध्यात्म के क्षेत्र में तो सराहनीय कार्य किया ही, साथ ही विज्ञान के विभिन्न विषयों में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया। धर्म हो या दर्शन, गणित हो या संगीत, खगोल विज्ञान हो या ज्योतिष, सभी विषयों में उनका योगदान देखने को मिलता है। विभिन्न क्षेत्रों में दिए गए उनके योगदान के लिए इतिहास में उनका नाम सदैव सम्मान के साथ याद रखा जाएगा। (स्रोत फीचर्स)